उत्तर प्रदेश सरकार ने एक मामले की सुनवाई के दौरान इलाहाबाद हाईकोर्ट को स्पष्ट किया है कि समलैंगिक विवाह भारत की संस्कृति के अनुरूप नहीं है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने कोर्ट से कहा है कि ऐसे संबंधों को हमारी संस्कृति और भारत में सह-अस्तित्व के साथ रहने वाले विभिन्न अन्य धर्मों के ‘विरुद्ध’ माना जाता है। दो लड़कियों के समलैंगिक संबंध के मामले की सुनवाई के दौरान न्यायिक पीठ के समक्ष उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना पक्ष रखा है। अतिरिक्त सरकारी अधिवक्ताओं (एजीए) ने दृढ़ता से अपना पक्ष रखा और कहा कि ऐसे विवाह की मान्यता ‘संस्कार’ के विरुद्ध होगी। साथ ही, उन्होंने उद्धृत किया कि ऐसे विवाह के 16 भारतीय अनुष्ठानों के लिए एक पुरुष और एक महिला की उपस्थिति आवश्यक है। यदि उनमें से कोई भी अनुपस्थित है, तो विवाह को स्वीकार नहीं किया जाएगा क्योंकि दोनों पक्षों की ‘निश्चित भूमिका’ होती है।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार अंजू देवी ने अपनी बेटी के लिए एक याचिका दायर की, जो एक और लड़की के साथ रिश्ते में थी। अंजू देवी ने कोर्ट के समक्ष अपना पक्ष रखते हुए कहा कि उनकी पुत्री को एक 22 वर्षीय युवती द्वारा अवैध तरीके से अपने साथ रखा गया है और उन्होंने कोर्ट से मांग की कि उन्हें उनकी पुत्री की कस्टडी सौंप दी जाए। इसके बाद 6 अप्रैल 2022 को अदालत ने दोनों लड़कियों को तलब किया और वे अगले दिन 7 अप्रैल को पेश हुईं, जहाँ उन्होंने कहा कि वे प्यार में थीं और साथ रहना चाहती थीं।
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समलैंगिक विवाह पर सरकार का तर्क
दोनों लड़कियों ने कोर्ट के समक्ष अपना पक्ष रखते हुए कहा कि वह वयस्क है और अपनी इच्छा से समलैंगिक विवाह करना चाहती हैं। अपने पक्ष में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय का प्रयोग किया जिसमें समलैंगिक यौन संबंध को आपराधिक कार्य नहीं माना गया है और ऐसे ऐच्छिक सम्बंध बनाने की अनुमति दी गई है। दोनों लड़कियों ने हिंदू विवाह अधिनियम की व्याख्या का अपने पक्ष में प्रयोग किया है। हिंदू विवाह अधिनियम के अनुसार दो वयस्क लोगों को विवाह का अधिकार है, लड़कियों का तर्क था कि वयस्क की परिभाषा स्त्री या पुरुष के रूप में नहीं दी गई है। अतः उनकी व्याख्या यह थी कि हिंदू विवाह अधिनियम समलैंगिक विवाह को स्वीकृति प्रदान करता है।
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दिया गया तर्क यह था कि भारत में विवाह एक संस्कार है जबकि अन्य देशों में यह एक समझौता है। अर्थात सरकार ने भारतीय संस्कृति के आधार पर विवाह को केवल दो पक्षों में समझौता-भर, न मानने की अपील की क्योंकि विवाह के पीछे पति पत्नी के सामाजिक और पारिवारिक कर्तव्य भी जुड़े हैं। सांस्कृतिक आधार पर देखें तो पूर्वजों के ऋण से मुक्त होने के लिए पुत्र की और मोक्ष के लिए किए जाने वाले महादान हेतु कन्या की उत्पत्ति आवश्यक मानी गई है। मूलतः यह मानव सभ्यता के अनवरत विकास हेतु आवश्यक है जो समलैंगिक विवाह द्वारा संभव नहीं है और इसी तर्क को सरकार ने आधार बनाया है।
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हिन्दू विवाह अधिनियम
उत्तर प्रदेश सरकार ने हिन्दू विवाह अधिनियम की व्याख्या करते हुए कहा “यह एक महिला और एक पुरुष के बीच विवाह की बात करता है और दोनों में से किसी की भी अनुपस्थिति में विवाह को किसी भी तरह से स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह भारतीय परिवार की अवधारणा से परे होगा।” सरकार ने तर्क दिया कि हिंदू विवाह अधिनियम 1955, विशेष विवाह अधिनियम 1954, और यहां तक कि विदेशी विवाह अधिनियम 1969 भी समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं देते हैं। यहां तक कि मुस्लिम, बौद्ध, जैन, सिख आदि धर्मों ने भी समलैंगिकता को मान्यता नहीं दी गई है।
महत्वपूर्ण तथ्य है कि कोर्ट लड़कियों के हिन्दू विवाह अधिनियम वाले तर्क को शायद ही स्वीकार करे क्योंकि इतना निश्चित है कि उस अधिनियम के गठन के समय, कानून निर्माताओं का ध्येय कहीं से भी समलैंगिक विवाह को मान्यता देने का नहीं रहा होगा क्योंकि समलैंगिकता तब तक वैश्विक विमर्श का भाग ही नहीं थी। हालांकि, लड़कियों के द्वारा दिया गया सुप्रीम कोर्ट वाला तर्क मजबूत है जिसपर कोर्ट विचार कर सकती है। सरकार ने समलैंगिक विवाह से बच्चे न उत्पन्न होने का तर्क दिया है और कहा है कि विवाह मानव श्रृंखला को आगे बढ़ाने का तरीका है। उचित-अनुचित का निर्णय कोर्ट को करना है किंतु इतना तय है कि कोर्ट का निर्णय समलैंगिक विवाह के विमर्श को एक नई दिशा देगा।
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