राजनीति में पद का मोह हर उस नेता को होता है जो राजनीति को अपना जीवन देने का मन बना चुका होता है। एक बार वो पद हाथ आते ही उसको बनाए रखने और उसपर अपना अधिकार कायम रखने की सोच ही मन में लालच पैदा करती है। राजस्थान की राजनीति भी इसी तंत्र की भेंट चढ़ गई है, जहाँ एक-एक बार करके भाजपा-कांग्रेस की सरकार आने की रीत रही है उसी क्रम में वसुंधरा राजे भी अब भाजपा के लिए उस नेता के समान हो गई हैं जिनके होने से जितना फायदा नहीं हो रहा है उससे अधिक उनकी महत्वकाँक्षाओं से पार्टी को नुकसान हो रहा है। यही कारण है कि राजस्थान को वो नेता नहीं मिल पा रहा है जिसको अब राजस्थान के अगले चेहरे के तौर पर पेश किया जा सके।
बीजेपी चाहे तो इस बार आसानी से सत्ता हासिल कर ले, लेकिन वहां लड़ाई वर्चस्व की है। एक तरफ राज्य की पूर्व सीएम वसुंधरा राजे सिंधिया हैं, तो दूसरी ओर बीजेपी की केंद्रीय ईकाई समेत प्रदेश अध्यक्ष सतीश पुनिया का धड़ा। वसुंधरा आए दिन बीजेपी के लिए नई चुनौतियां खड़ी करती रहती हैं, जिसमें कभी टीम वसुंधरा नामक बना मोर्चा होता है, जो राज्य में बीजेपी से अलग एक बड़ा संगठन बनकर खड़ा हो चुका है।
खास बात ये है कि इस मोर्चे को पर्दे के पीछे से वसुंधरा ही लगातार विस्तार दे रही हैं। दिसंबर 2018 में राजस्थान में बीजेपी की हार के बाद से पूर्व सीएम वसुंधरा राजे सिंधिया का जनता के बीच सरोकार बंद हो गया है, लेकिन समय-समय पर वो पार्टी में आंतरिक बगावत के संकेत देती रहती हैं। वसुंधरा की पसंद से हटकर सतीश पुनिया को राज्य बीजेपी अध्यक्ष बनाने का केंद्रीय फैसला वसुंधरा को रास नहीं आया था।
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वसुंधरा और संगठन मे
राजस्थान में बीजेपी की इस दरार की बड़ी वजह ये है कि पार्टी अब राज्य में नेतृत्व परिवर्तन करना चाहती है, और वसुंधरा से इतर एक नया नेता चुनना चाहती है। साल 2018 में चुनाव के दौरान ही बीजेपी अपने सीएम उम्मीदवार को बदलना चाहती थी, लेकिन वसुंधरा के विद्रोह के कारण ऐसा कुछ भी न हो सका। नतीजा ये कि बीजेपी से सहानुभूति रखने वाले वोटरों ने भी वसुंधरा से नाराजगी के चलते बीजेपी को वोट नहीं दिया। सभी ने विधानसभा चुनाव के दौरान ‘मोदी से बैर नहीं और रानी(वसुंधरा) की खैर नहीं’ वाला नारा सुना था। ऐसे में पार्टी को राज्य में हाशिए पर ले जाने के बावजूद वसुंधरा पार्टी में एकछत्र राज चाहती हैं, लेकिन उसकी संभावनाएं अब कम ही हैं।
सतीश पुनिया बीजेपी का संगठन मजबूत करने की कोशिश तो कर रहे हैं, लेकिन वसुंधरा उसे कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही।वसुंधरा की न तो सतीश पुनिया से बनती है, और न ही केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत से और दोनों राज्य के दो बड़े नेता हैं जिनमें एक पार्टी को संगठन स्तर पर मजबूत करने का काम कर रहे हैं तो दूसरे पीएम मोदी की महत्वपूर्ण योजना जलशक्ति मिशन की बागडोर संभाले हुए हैं। यूँ तो पार्टी पूर्णतः राजस्थान में संगठन में बदलाव के संकेत दे चुकी है।
ऐसे में वसुंधरा का आलाकमान पर दबाव बनाने का रवैया ही पार्टी के लिए एक मुश्किल तो बन गया है, पर इस बार यह मुश्किल इतनी बड़ी नहीं है क्योंकि चेहरा बदलने के मामले में अब भाजपा निपुणता हासिल कर चुकी है। फिर चाहे त्रिपुरा में सर्वानंद सोनोवाल के बदले हिमंत बिस्वा सरमा को सीएम बनाना हो या उत्तराखंड में बड़ी विद्रोही लहर को समेटने का काम हो। अब राजस्थान में चुनाव नजदीक आते-आते वसुंधरा को टाटा बाय-बाय करना भाजपा के लिए उसकी विवशता और रणनीति दोनों बनकर सामने आने वाली है।
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