हुड़दंग आरक्षण के मुद्दे पर बेजुबानों को आवाज देने का एक साहसिक प्रयास है

हुड़दंग जैसी फिल्मों की अभी और जरूरत है

सौजन्य से गूगल

यह आज के समाज की कमज़ोरी है कि वो जब तक बड़े पर्दे या टीवी पर एक मुद्दे और उसके कारण समाज में व्याप्त वैमन्सयता को नहीं देख लेता तब तक वो उस बात को बहुत उदारवादी बनकर समझता है। जैसे ही उस मुद्दे पर टीवी पर बहस छिड़ती नहीं उसके रुझान आने शुरू आ जाते हैं जिसमें जनता यह कहती दिख जाती है कि “अरे बताओ, कितना छुपाया हमसे, जानने ही नहीं दिया कभी हमें!” जानने की लेश मात्र कोशिश या प्रयास न करने वाले जब ऐसा कहते हैं तो  उनके उस चरित्र की पोल खुल जाती है जिसे “समाज से कटा हुआ” कहा जाता है जिन्हें बाहर क्या हो रहा है उससे सरोकार नहीं होता, बस जैसे ही हुड़दंग हुआ नहीं सबके कान खड़े हो जाते हैं और सब अपनी राय देने में जुट जाते हैं जैसे न जाने कितने परमसिद्ध ज्ञानी हों।

अब हुड़दंग की बात हुई ही है तो बता दें 8 अप्रैल को एक फिल्म रिलीज़ होने जा रही है जिसका नाम है हुड़दंग जिसके ट्रेलर के अनुसार उस फिल्म का मूल आधार जाति आधारित आरक्षण को चुनौती देना है क्योंकि पात्र इसे भेदभावपूर्ण मानते हैं। ऐसे में न केवल दबे हुए इस मुद्दे को हवा मिल रही है बल्कि राजनीतिक हलकों में भी हलचल है कि कुछ तो पक रहा है क्योंकि ऐसी फिल्में पहले तो बनती नहीं थीं, और द कश्मीर फाइल्स के बाद एक और समाज से जुड़े मुद्दे पर आ रही फिल्म ने सभी की रूचि बढ़ा दी है कि क्या होगा फिल्म में?

भारतीय सिनेमा उद्योग में दिख रहा सूक्ष्म परिवर्तन

निश्चित रूप से हम भारतीय सिनेमा उद्योग में एक सूक्ष्म परिवर्तन देख रहे हैं जो धीरे-धीरे ही सही पर अपने पैर पसार रहा है जो समाजहित में है। पहले के सभी फ़िल्मी नेरेटिव वाम-उदारवादी तंत्र की विचारधारा पर आधारित थे और यह हमेशा वामपंथी सोच ही थी जिसे मनोरंजन उद्योग के माध्यम से प्रचारित किया जाता था।

हालांकि, समय बदला, काल बदला और बदली परिस्थिति, भारतीय दर्शक और उनकी सोच विकसित हो रही है और यह बदले दर्शक के मिजाज अब न ही बड़ी स्टार कास्ट या बड़े नामों की परवाह करते हैं और न ही किस निर्माता ने फिल्म बनाई है इसमें को दिलचस्पी लेते हैं। अब वह दर्शक अच्छी और समय ख़राब न करने वाली सामग्री की खोज करता है। ऐसे में मरता क्या न करता, बॉलीवुड दर्शकों की मांगों को पूरा करने पर विवश हो चुका है। आरआरआर और द कश्मीर फाइल्स की सफलता के बाद, एक और शक्तिशाली कहानी के साथ फ़िल्मी उद्योग वापस आ गया है जो उदारवादियों को बरनोल का जला घाव देने के लिए तैयार है।

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हुड़दंग का ट्रेलर बुधवार को लॉन्च किया गया

आगामी दिनों में आने वाली फिल्म हुड़दंग का ट्रेलर बुधवार को लॉन्च किया गया। फिल्म की स्टार कास्ट में सनी कौशल, नुसरत भरूचा और विजय वर्मा शामिल हैं। यूं तो ट्रेलर की शुरुआत में हर कोई यह मान लेगा कि फिल्म एक और प्रेम कहानी पर आधारित है, लेकिन आगे बढ़ते हुए पता चलता है कि यह तो इससे कहीं ज़्यादा आगे की सोच देने के लिए तैयार है।

सनी कौशल द्वारा निभाया गया किरदार दद्दू एक जुनूनी आईएएस आकांक्षी है, जब उन्हें शैक्षणिक संस्थानों में जाति-आधारित आरक्षण से रूबरू होना पड़ता जाता है, तो यह उन्हें गुस्सा आता है। इस प्रकार, व्यवस्था से लड़ने के लिए, दद्दू विजय वर्मा द्वारा निभाए गए चरित्र लोहा सिंह से जुड़ जाता है। वे दोनों आयोग के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद करने का फैसला करते हैं।

हुड़दंग फिल्म की पूरी संरचना आशाजनक प्रतीत होती है और यह बताता है कि यह एक अंतर्मन को भेदने वाली वो गहन फिल्म है जिसका सरोकार उस जातिगत आरक्षण से है जो आज समाज में बेड़ियों के समान नज़र आती है।  यह फिल्म 90 के दशक के इलाहाबाद पर आधारित है। निखिल नागेश भट द्वारा लिखित और टी-सीरीज़ द्वारा अभिनीत, हुड़दंग की रिलीज़ से पहले ही ट्विटर पर सराहना की जा रही है।

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ट्रेलर से वामपंथी नाराज़ हैं

ट्रेलर लॉन्च होते ही लोगों ने ट्विटर पर अपने विचार साझा करने शुरू कर दिए। जहां उदारवादी  द कश्मीर फाइल्स के आने के बाद क्षुब्ध हुए कुठरिया में बंद हैं और वैचारिक मंदी दौर से गुजर रहे हैं, वहीं अन्य पूरा समाज ‘हुडंग’ के नाम पर इस साहसिक प्रयास की प्रशंसा कर रहा है। ट्रेलर से वामपंथी नाराज़ हैं और इस प्रकार वो कह रहे हैं कि “फिल्म में बारीकियों का अभाव है, और यह पहचानने में विफल है कि आरक्षण क्यों महत्वपूर्ण है।” उनका यह भी दावा है कि फिल्म यह नहीं बताती कि मंडल आयोग को पहले क्यों लागू किया गया था। खैर, एक कारण है कि वे नाराज हैं, बुरा लगा है बेचारे को।

फिल्म इस कहानी पर केंद्रित जान पड़ती है कि एक उच्च वर्ग का व्यक्ति आरक्षण के बारे में क्या महसूस करता है और यह उनके साथ किस हद तक भेदभावपूर्ण रवैया है। हालांकि, दर्शकों के दूसरे वर्ग ने ट्रेलर का समर्थन और प्रशंसा करते हुए कहा कि “इस मुद्दे को एक उच्च-जाति के आख्यान के दृष्टिकोण से संदर्भित करना सही है जो कथित तौर पर जाति आधारित आरक्षण से पीड़ित हैं।”

एक यूजर ने कमेंट किया, “हर उस पीड़ित छात्र की भावनाओं को चित्रित करने के लिए धन्यवाद सनी कौशल, मूवी रिलीज़ होने का इंतजार नहीं कर पा रहे हैं। हमारे कानूनों में बदलाव आना चाहिए, मुझे लगता है कि कम से कम इस फिल्म को देखने से हर स्तर पर बदलाव आएगा!”

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ध्यान देने योग्य कौन सी बात है

यह ध्यान देने योग्य है कि 1990 में, भारत में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए सरकारी नौकरियों और सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में 27 प्रतिशत कोटा प्रदान करने के लिए मंडल आयोग की सिफारिश के कार्यान्वयन के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध देखा गया। इस प्रकार, हुड़दंग उन दिनों क्या हुआ और इसने भारतीय शिक्षा प्रणाली को कैसे प्रभावित किया, यह दर्शाने के लिए एक बहादुर प्रयास के रूप में सबके सामने कुछ बेहद ज़रूरी लेकर आ रहा है। शेष तो मूवी पर्दे पर लगने के बाद ही स्पष्ट हो पाएगी कि कितना क्या सत्य बताया गया है।

 

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