किसी भी राष्ट्र की शासन और प्रशासन व्यवस्था उसकी नींव होती है पर भारत में यह दुर्भाग्यवश सबसे लचर और थर्राई हुई नींवों मे से एक प्रतीत होती है। क्या मंत्री और क्या नौकरशाह सभी भ्रष्ट और सुस्त आचरण के आदी हो गए हैं और इसका भुगतान राज्य को करना पड़ता है। वर्षों से इस अक्षमताओं ने भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास को बाधित किया हुआ है और ऐसे में इसके सुधार की सर्वाधिक आवश्यकता है जिसका जिम्मा अब सरकार ही उठा रही है। भारतीय शासन प्रणाली में सबसे अतिदेय सुधार इसके कामकाज में पारदर्शिता लाने के लिए इसे कुशल और जवाबदेह बनाना है और परिकल्पना को साधने के लिए मिशन कर्मयोगी एक सार्थक पहल है। यह एक उचित सुधार है जिससे आम नागरिकों के लिए जनजीवन आसान होने के साथ ही सार्वजानिक जीवन को सुलभ करने में सहायता मिलेगी और “बाबुओं” की कार्यशैली भी बदल जाएगी।
दरअसल, विश्व बैंक ने भारत सरकार के मिशन कर्मयोगी, सिविल सेवा क्षमता निर्माण के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम का समर्थन करने हेतु $47 मिलियन की एक परियोजना को मंजूरी दी है। पूरे भारत में लगभग 18 मिलियन सिविल सेवक कार्यरत हैं, जिनमें से लगभग दो-तिहाई राज्य सरकार और स्थानीय प्राधिकरण में कार्यरत हैं। मिशन कर्मयोगी के कार्यान्वयन के माध्यम से सरकार का लक्ष्य देश के सिविल सेवा बल को भविष्य के लिए तैयार करने और इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाना है।
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अब देश को खोखला नहीं कर पाएगा बाबू-तंत्र
सच बात तो यह है कि आज हर व्यवस्था में अच्छे और बुरे दोनों ही प्रकार के लोग विद्यमान हैं, पर जैसा कि हमेशा हुआ है अच्छाई के आगे बुराई का प्रभाव बढ़कर दिखाई देता है। सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने के बाद से ही अक्षमता प्रत्येक सिविल सेवक की सामान्य समस्याओं में से एक होती हैं। समस्या का एक कारण इसकी सामान्यवादी कार्यशैली को माना जाता है। मंत्रालयों और नीति बनाने वाली संस्थाओं का नेतृत्व इन ‘सामान्यवादी’ अधिकारियों द्वारा किया जाता है। साथ ही एक विशिष्ट भूमिका के लिए गैर-विशेषज्ञ व्यक्तियों को चुनने का निर्णय अंततः संस्थानों के विकास में बाधक बन जाता है।
ज्ञात हो कि पीएम मोदी ने संसद के पटल पर खड़े होकर इस नीति की आलोचना भी की थी। उन्होंने कहा था कि “केवल बाबू ही सब कुछ करेंगे? IAS बनने का मतलब अब आप खाद की फैक्ट्री चलाएंगे और केमिकल फैक्ट्री भी चलाएंगे? हमने कौन-सी बड़ी शक्ति बनाई है? देश को बाबुओं के हवाले कर हम क्या करने जा रहे हैं?”
मिशन कर्मयोगी को व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि इसका प्रमुख उद्देश्य और ध्येय ही देश के शासन में व्यावसायिकता को बढ़ावा देने के साथ-साथ सुस्त नियम-आधारित कार्य पद्धति को भूमिका-आधारित बनाना है। जैसा कि हर नाम या संज्ञा देने की प्रक्रिया के पीछे बड़ा रहस्य छिपा होता है, कुछ ऐसा ही ‘कर्मयोगी’ के संदर्भ में भी कहा जा सकता है। सिविल सेवकों को कर्मयोगी कहने की प्रेरणा श्रीमद भगवद् गीता से मिलती है, जो कहती है कि “योगः कर्मसु कौशलम” जिसका अर्थ है कि कार्य में दक्षता अधिकतम परिणाम उत्पन्न करती है। यह सिविल सेवकों की औपनिवेशिक मानसिकता को तोड़ने और उन्हें लोगों के सेवकों की सच्ची भावना में ढालने का एक प्रयास है।
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मिशन कर्मयोगी के स्तंभ
ऐसे में यह मिशन कर्मयोगी पेशेवर क्षमता की तर्ज पर भारतीय नौकरशाही की परिकल्पना करता है। इसने सिविल सेवकों के लिए उनके करियर के हर हिस्से में एक व्यवस्थित प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार किया है। मिशन कर्मयोगी के छह स्तंभ हैं-
1) नीतिगत ढांचा – आधुनिक युग की प्रशिक्षण नीतियां
2) योग्यता ढांचा – नियम-आधारित से भूमिका-आधारित
3) संस्थागत ढांचा
4) iGOT कर्मयोगी – बड़े पैमाने पर व्यापक शिक्षण मंच
5) e-HRMS – सामरिक मानव संसाधन प्रबंधन
6) M & E – निगरानी और मूल्यांकन ढांचा
बताते चलें कि मिशन कर्मयोगी बाबुओं की इस भ्रष्ट कार्यशैली का मारक है। इसकी दक्षता बनाए रखने से आम नागरिकों के सामाजिक-आर्थिक जीवन को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी और सरकार एवं जनता के बीच की खाई को और कम किया जा सकेगा। ध्यान देने वाली बात है कि जैसे-जैसे नौकरशाही राजशाही पर हावी हो रही है वैसे-वैसे देश के अंदर बाबू-तंत्र देश को खोखला करने का काम करते आया है और नौकरशाही को एक पूर्ण शक्ति प्रदान की गई, जिसने उन्हें पूरी तरह से भ्रष्ट कर दिया और कर रहा है। यह सदी उस बदलाव की अपेक्षा करती है जो भारतीय नौकरशाही से ही आरंभ होकर ठीक हो सकती है। यह दुर्भाग्य देश का ही है जो देश के विकास के लिए जिन हाथों को ताकत प्रदान की गई उन्होंने उस अधिकार का दुरूपयोग किया। यही कारण है जो देश को विकास के पथ पर लाने के लिए सरकारी व्यवस्था में बाबुओं के एकाधिकार को तोड़ना बहुत जरूरी हो गया है।
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