किसी ने सही ही कहा है, परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत सत्य है। परंतु शायद ये बात राजस्थान भाजपा के कुछ नेताओं को ज्ञात नहीं है, जो अभी भी इसी भ्रम में हैं कि ‘राजमाता’ वसुंधरा राजे आएंगी और उनकी नैया पार लगायेंगी। इसी परिपाटी पर चलते हुए राजस्थान भाजपा के कुछ नेता भाजपा के राष्ट्रीय इकाई द्वारा पीएम मोदी की ‘छत्रछाया’ में 2023 के राजस्थान चुनाव लड़ने के बजाए वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ना चाहेंगे, भले ही राज्य और राज्य के निवासियों की बलि ही क्यों न चढ़ जाए।
ऐसा क्यों? वसुंधरा राजे के साथ क्या समस्या है? जब आपके राजनीतिक प्रतिद्वंदी को आपसे बेहतर बताया जाने लगे, ये जानते हुए भी कि वे प्रशासन और नीति में भारतीय राजनीति के निकृष्टतम नेताओं में से एक है, तो निस्संदेह आप में कुछ तो गड़बड़ है, और यही समस्या थी वसुंधरा राजे में। स्वयं तो वह प्रभावशाली नेता न थी, और न ही वे किसी प्रभावशाली नेता को राजस्थान में पाँव तक जमाने देती थी। यदि ऐसा न होता, तो ये नारा राजस्थान क्यों गूँजता, ‘मोदी तुझसे बैर नहीं, रानी तेरी खैर नहीं!’?
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राजस्थान में सत्ता संभाल सकते है
नेतृत्व तो उनका खराब था ही, उसके ऊपर आनंदपाल सिंह जैसे धूर्त, पर प्रभावशाली अपराधी का एनकाउन्टर, और ‘पद्मावत’ के विषय पर करनी सेना द्वारा मचाए गए उत्पात ने भाजपा के हाथ से एक अभेद्य गढ़ को लगभग छीन ही लिया। जिस प्रकार से लोकसभा में जनता ने जमकर भाजपा को समर्थन दिया, परंतु विधानसभा में जिस प्रकार से पटखनी मिली, उससे स्पष्ट था कि जनता को पीएम मोदी या राष्ट्रीय नेतृत्व से नहीं, वसुंधरा राजे के नेतृत्व वाली राजस्थानी इकाई से चिढ़ थी।
शायद इसीलिए कुछ दिनों पूर्व आयोजित एक राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में इस बात पर भी ध्यान दिया गया कि पार्टी में किसी एक की नहीं चलेगी। राजस्थान भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया ने कहा कि इस आयोजन का उद्देश्य 2023 के विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए ‘एकता का संदेश’ देना है। एक अन्य नेता ने कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के समर्थकों को भी एक संदेश दिया गया कि ‘व्यक्तिगत वफादारी उन्हें किसी तरह का लाभ नहीं मिलने वाला’।
परंतु प्रश्न तो अब भी व्याप्त है- यदि वसुंधरा राजे सिंधिया नहीं मुख्यमंत्री बनेंगी, तो राजस्थान के मुख्यमंत्री कौन होंगे? अधिकतम लोग का मानना है कि जल शक्ति मंत्री और वसुंधरा राजे के प्रमुख प्रतिद्वंदी गजेन्द्र सिंह शेखावत एक प्रमुख नाम हो सकते हैं। परंतु एक व्यक्ति ऐसे भी हैं जिन पर कम ही लोगों की दृष्टि है, और जिन्हे वसुंधरा राजे के मनमाने व्यवहार के कारण पार्टी छोड़ने पर विवश किया गया था। 2013 में पार्टी विरोधी गतिविधियों के नाम पर जिस हनुमान बेनीवाल को भाजपा से निकाला गया था, वे भी राजस्थान की सत्ता संभाल सकते हैं।
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राजे को चुनौती मिलना तय
अब आप भी सोच रहे होंगे– हैं, ये कैसे संभव है? हनुमान तो भाजपा विरोधी है, उन्होंने तो किसान आंदोलन का समर्थन किया था न? लेकिन आप लोग हनुमान बेनीवाल से फिर पूर्णतया परिचित नहीं है। हनुमान बेनीवाल एक समय राजस्थान भाजपा के सबसे प्रभावशाली किसान नेताओं में से एक थे। जमीन से जुड़े होने के अतिरिक्त इन्होंने पार्टी के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया, परंतु जब इन्होंने पार्टी के कुछ नेताओं द्वारा कांग्रेस के साथ सांठगांठ के प्रयास देखे, तो इनसे रहा नहीं गया और इन्होंने ये आरोप सार्वजनिक कर दिया गया। लेकिन ऐसे प्रभावशाली नेता भला वसुंधरा राजे के रहते कैसे टिकते? सो उन्हे पार्टी विरोधी होने का आरोप लगाते हुए 2013 में अपमानजनक तरीके से पार्टी से निकाल दिया गया।
ये सत्य है कि हनुमान बेनीवाल ने किसान आंदोलन को भी अपना समर्थन दिया था, परंतु उनका विरोध विरोध कम और वसुंधरा राजे के विरुद्ध आक्रोश अधिक था, जिनके कारण उन्हे उसी पार्टी से निकाला गया, जिसमें उन्होंने काफी निवेश किया था, राजनीतिक रूप से भी और निजी तौर पर भी। जो व्यक्ति 2019 के प्रचंड मोदी लहर में भी अपनी पार्टी के जरिए अपना प्रभाव कायम रखे, चाहे एक ही सीट पर सही, उसमें कुछ तो बात होगी। ऐसे में वसुंधरा राजे के वर्चस्व को अब राजस्थान में चुनौती मिलने लगी है।
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इससे उसके अनुयाई भले ही असहज हो जाएँ, परंतु संदेश स्पष्ट होगी– अब राजस्थान में भी परिवर्तन होगा, और वसुंधरा राजे का राजनीतिक अस्तित्व जो था, अफसोस, यहीं तक था। यदि भाजपा को राजस्थान में सत्ता में वापसी करनी है, तो उन्हे मिट्टी से जुड़े नेताओं की आवश्यकता है, और हनुमान बेनीवाल ऐसे ही एक नेता है, जो उनके ‘संकटमोचक’ सिद्ध हो सकते हैं।