दम घोंटू वामपंथी सीरियलों में ताजा हवा का झोंका है ‘पंचायत’
“नशा बढ़िया से बढ़िया आदमी को बर्बाद करके छोड़ता है!”
“आज के बाद से कंट्रोल में पिया करेंगे”!
इस संवाद पर जिस तरह पात्र और दर्शक एक साथ खिलखिलाकर हंसते हैं यही सुंदरता कई वर्षों से हमारे फिल्मों, हमारे धारावाहिकों से कहीं गायब सी हो गई थी। हम असली इंडिया, असल भारत को दिखाने के दावे तो बहुत करते हैं परंतु बहुत कम लोग होते हैं जो इस दावे को वास्तव में आत्मसात करते हैं। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे ‘पंचायत’ का द्वितीय संस्करण वामपंथी एजेंडे के विषैले वातावरण में किसी अमृत वर्षा से कम नहीं है।
दीपक कुमार मिश्रा द्वारा निर्देशित एवं चंदन कुमार द्वारा रचित ‘पंचायत’ एमेजॉन प्राइम वीडियो पर प्रसारित होने वाली वेब सीरीज का द्वितीय संस्करण है, जिसका प्रथम भाग अप्रैल 2020 में प्रसारित हो चुका था। कथा वहीं से प्रारंभ होती है जहां से प्रथम संस्करण में खत्म हुई थी, पानी के टंकी से। पंचायत सचिव अभिषेक त्रिपाठी फुलेरा ग्राम में अपना जीवन व्यतीत करते हैं, और कैसे वे
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‘पंचायत’ ने पुनः झंडे गाड़े हैं
प्रथम संस्करण के प्रचंड लोकप्रियता को देखते हुए द्वितीय संस्करण से भी काफी आशाएं थी कि सामाजिक समस्याओं और ग्रामीण भारत की वास्तविकता को परिलक्षित करते हुए वह एक बार फिर OTT पर अपनी अमिट छाप छोड़े और इसमें कोई संदेह नहीं है कि ‘पंचायत’ ने इस क्षेत्र में पुनः झंडे गाड़े हैं।
लेखन, अभिनय, निर्देशन, सिनेमाटोग्राफी, आप बस बोलते जाइए और ‘पंचायत’ ने तो बस हर क्षेत्र में गर्दा उड़ाया है। ये सीरीज आपको गुदगुदाएगी, हंसाएगी, कई जगह झकझोरेगी भी और कुछ जगह तो झिंझोड़ भी देगी जहां आप निःशब्द रह जाएंगे। यदि आप किसी सीरीज के चरित्र के साथ ऐसे जुड़ जाओ कि उसके सुख आपके सुख, उसके दुख आपके दुख, तो समझ लीजिए कि इस सीरीज में दम तो है और ‘पंचायत’ ने ये काम काफी खूब किया है। चाहे मुख्य भूमिका में जितेंद्र कुमार हो, या सहायक भूमिकाओं में रघुबीर यादव, चंदन रॉय, फैसल मलिक, संविका, नीना गुप्ता, सुनीता राजवर, यहाँ तक कि दुर्गेश सिंह जैसे कलाकारों ने भी अपनी भूमिका के साथ भरपूर न्याय किया है।
परंतु यही एक बात नहीं है जो पंचायत को अन्य सीरीज से अलग करती है। एक ओर ‘सेक्रेड गेम्स’, ‘पाताल लोक’, जैसे सीरियल हैं, जहां मनोरंजन बाद में और एजेंडा पहले आ जाता है। ऐसी वेब सीरीज के कारण वामपंथियों को दम घोंटू, एजेंडावादी वेब सीरीज बनाने का मानो लाइसेंस मिल गया हो, जहां वो कुछ भी एजेंडा चलाते थे और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हमें उसे झेलना होता था। परंतु वे भूल गए कि सोशल मीडिया के युग में झूठ ज्यादा दिन टिकता नहीं, ऐसे में वामपंथी विष क्या खाक टिकता?
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जनता की नब्ज पकड़ने में सफल हुआ है पंचायत
आम तौर पर कोई भी सीरीज एक संस्करण से अधिक नहीं चल पाता है, परंतु TVF का प्रभाव तो देखिए। पहले ‘गुल्लक’, और फिर ‘पंचायत’ के जरिए उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि यदि आप अपने जनता को समझते हैं, तो समझ जाइए कि आप अपने जनता की नब्ज पकड़ने में सफल हुए हैं।
OTT शो के साथ अक्सर यह शिकायत रहती है कि या तो वे पर्याप्त मनोरंजन नहीं कर पाती, और अगर एक संस्करण में कमाल करती हैं, तो दूसरे में पूरी तरह फुस्स हो जाती हैं। लेकिन पंचायत की कथा ही अनोखी है, हर संस्करण में एक अलग ही रूप, एक अलग ही दृष्टिकोण देखने को मिलता है। पंचायत केवल एक सीरीज नहीं है, ये कथा एक बदलते भारत की, एक नए भारत की, जो आगे बढ़ना चाहता है, जो उड़ना चाहता है, और अब रुकना नहीं चाहता।