अपने देश में देशद्रोह को लेकर विद्रोह छिड़ा हुआ है। कुछ लोग देशद्रोह और राजद्रोह के बीच के भेद का निर्धारण करना चाहते हैं। उनका कहना है की इस विधि का उद्गम औपनिवेशिक काल में हुआ था ताकि स्वतंत्रता सेनानियों को ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध विद्रोह करने से रोका जा सके। अब विरोधियों का आरोप है कि सरकार देशद्रोह और राजद्रोह के अवधारणा में इसी भ्रम का फायदा उठाकर राजनीतिक प्रतिशोध ले रही है। उनका कहना है कि सरकार का विरोध करना उनका मूलभूत संवैधानिक अधिकार है। अगर कोई विरोध की परिधि को पार भी करता है तो उसपर राजद्रोह लगना चाहिए ना की देशद्रोह। मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा। सर्वोच्च न्यायालय ने देशद्रोह के सभी लंबित मामलों को प्रभावी ढंग से स्थगित कर दिया।
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सर्वोच्च न्यायालय का आदेश
भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना की अगुवाई वाली सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने अपने आदेश में कहा कि “यह स्पष्ट है कि भारत संघ इस न्यायालय द्वारा व्यक्त की गई प्रथम दृष्टया राय से सहमत है कि आईपीसी की धारा 124 ए की कठोरता वर्तमान सामाजिक परिवेश के अनुरूप नहीं है और उस समय के लिए अभिप्रेत था जब यह देश औपनिवेशिक शासन के अधीन था।”
सरकार का हमला
इस पर प्रतिक्रिया देते हुए, केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री किरेन रिजिजू ने बुधवार को कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच “लक्ष्मण रेखा” की बात दोहराई और कहा कि किसी को भी अपनी “सीमा” पार नहीं करनी चाहिए। उन्होंने कहा- “हम एक दूसरे का सम्मान करते हैं। कोर्ट को सरकार, विधायिका का सम्मान करना चाहिए। सरकार को भी कोर्ट का सम्मान करना चाहिए। हमारे पास सीमा का स्पष्ट सीमांकन है और किसी को भी ‘लक्ष्मण रेखा’ नहीं लांघनी चाहिए।”
रिजिजू ने यह भी कहा कि देशद्रोह कानून पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंशा से भी कोर्ट को अवगत करा दिया गया है। उन्होंने कहा- “हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम भारतीय संविधान के प्रावधानों के साथ-साथ मौजूदा कानूनों का भी सम्मान करें।”
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देशद्रोह कानून के समीक्षा का आश्वासन
हालांकि, सरकार ने कोर्ट को बताया कि केंद्र राजद्रोह पर कानून की समीक्षा करेगा। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने लंबित मामलों पर रोक लगाने या भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के तहत नई प्राथमिकी दर्ज करने से रोकने का विरोध किया, जो देशद्रोह को परिभाषित और दंडित करता है।
हालांकि, मेहता ने तर्क दिया कि कुछ लंबित मामले आतंक या मनी लॉन्ड्रिंग से जुड़े हो सकते हैं। अतः, न्यायालय केंद्र को संज्ञेय अपराध से जुड़ा मामला दर्ज करने से नहीं रोक सकता। हालांकि, कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि वह “उम्मीद” करेगी कि राज्य और केंद्र सरकारें कानून के उक्त प्रावधान के दौरान आईपीसी की धारा 124 ए को लागू करके किसी भी तरह की प्राथमिकी दर्ज करने, किसी भी जांच को जारी रखने या कोई भी दंडात्मक उपाय करने से रोकेंगी।
अदालत ने कहा-“यह न्यायालय एक ओर राज्य के सुरक्षा हितों और अखंडता और दूसरी ओर नागरिकों की नागरिक स्वतंत्रता से परिचित है। विचार के दोनों सेटों को संतुलित करने की आवश्यकता है, जो एक कठिन अभ्यास है।”
संस्थाओं के बीच संतुलन है अहम
संयोग से, CJI रमणा ने हाल ही में दो संस्थानों के बीच “लक्ष्मण रेखा” के विषय को भी शामिल किया था और आश्वासन दिया कि “न्यायपालिका कभी भी शासन के रास्ते में नहीं आएगी यदि यह कानून के अनुसार है”।
यह राज्य के तीन अंगों के बीच सामंजस्यपूर्ण और समन्वित कामकाज है जिसने पिछले सात दशकों में इस महान राष्ट्र की लोकतांत्रिक नींव को संरक्षित और मजबूत किया है। अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए, न्यायपालिका को लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखना चाहिए। न्यायपालिका कभी भी शासन के रास्ते में आड़े न आए यदि वह कानून के अनुसार है। न्यायपालिका बस जनकल्याण के संदर्भ में अपनी चिंताओं को साझा करती है।
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