महिलाओं के परिधानों में ‘जेब’ नहीं होने के पीछे बहुत हद तक जिम्मेदार हैं सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक कारण

दुनिया 21वीं सदी में पहुंच गई और महिलाएं अभी भी अपने अधिकारों के लिए ही लड़ रही हैं!

महिलाओं की जेब

Source- Google

कल मुझे थोड़ी ही दूर पर मार्केट जाना था, मैंने सोचा कि जेब में कुछ पैसे, मोबाइल फोन और रूमाल रखकर चली जाऊं, अब हर जगह पर्स ले जाने की भी क्या ही आवश्यकता है। पर जब मैंने अपनी जेब टटोली तो उसमें इतनी भी जगह नहीं थी कि चंद सिक्कों के अलावा और कोई सामान रखकर ले जा सकूं। मेरे हर कुर्ते, जींस और बाकी के पोशाकों का भी यही हाल है। किसी में जेबें बहुत छोटी हैं और किसी पोशाक में तो जेब है ही नहीं। हालांकि, मेरे किसी पुरुष मित्र या कार्यालय के पुरुष सहकर्मी या फिर भाइयों के साथ ऐसा नहीं है। अपनी पैंट की जेब में वे रूमाल, मोबाइल फोन और बहुत सारे सामान भर लेते हैं। जेबों के द्वारा महिलाओं के साथ होने वाले इस भेदभाव को देखकर मेरा दिमाग ठनका और मैंने इसकी तह तक जाने का प्रयास किया।

इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे एक समय था जब जेबों के द्वारा भी महिलाओं के साथ भेदभाव किया गया और आगे चलकर कैसे पहले यह जेबें महिलाओं को आंकने का माध्याम बनीं और फिर महिलाओं के पोशाक से स्वयं के अस्तित्व को मिटाकर ये जेबें पर्स की मार्केटिंग का माध्यम बनीं। समाज को आइना दिखाते जेबों के इतिहास पर चलिए ध्यान आकर्षित करते हैं।

पोशाक में जेब का होना कोई नयी बात या लेटेस्ट फैशन नहीं है, बल्कि इसका इतिहास शुरू होता है 17वीं शताब्दी से। उससे पहले रस्सी में कपड़ा बांधकर बनायी गयी थैलियों से पुरुष और महिला दोनों ही काम चला लिया करते थे। उसी कपड़े वाली थैली में वे अपने जरूरी सामान रख लिया करते थे। फिर ऐसे पॉकेट अस्तित्व में आए जो पहने हुए पोशाक से ही जुड़े होते थे, लेकिन ऐसे सिर्फ पुरुषों के लिए ही था। महिलाओं को तो अभी भी वैसे ही रस्सी से कपड़ा बांध कर उसमें ही आवश्यक वस्तुओं को रखना होता था। ध्यान देने वाली बात है कि पोशाक से जुड़े हुए जेब का विकल्प होने के बाद भी महिलाओं को कपड़े वाले झोले को पेटिकोट के अंदर रखना पड़ता था, जिसकी वजह से वे सार्वजनिक स्थल पर अपनी आवश्यक वस्तुए निकाल ही नहीं सकती थीं।

ये वो दौर भी था जब मध्य-पूर्वी देशों का प्रभाव पूर्व और पश्चिमी देशों पर बढ़ रहा था और इसके कारण इन देशों में भी डोरी वाले पर्स अस्तित्व में आने लगे। भारत के परिप्रेक्ष्य में इसकी बात करें तो लटकन के अलावा इन थैलों को कढ़ाई से सजाया जाने लगा। यह सजावट तब बहुत चलन में था। मुगल शासन के समय इसे बटुआ और पोटली कहा जाने लगा। फिर बाद में ये फैशन एक्सेसरी के रूप में प्रयोग किया जाने लगे।

और पढ़ें: खुसरो जैसे अनपढ़ शायर और आधुनिक युग के अर्द्धज्ञानी बुद्धिजीवी उत्तर और दक्षिण भारत के बीच के बंधन को कभी समझ नहीं सके

महिलाओं की ‘जेब’ और ‘पर्स’ का है अनोखा कनेक्शन

फिर 18वीं सदी के अंत तक यह फैशन भी बदलने लगा और साथ ही एक बीमार मनसिकता ने भी जन्म लिया, लेकिन 1790 के दशक में महिलाओं के लिए पोशाक चिपके और टाइट डिजाइन किए जाने लगे। जिससे जेब गायब थी और पर्स अस्तित्व में आया, जिसमें दो चार सिक्के और रुमाल को रखा जा सकता था। एक तो महिलाओं के पोशाक में पॉकेट नहीं, ऊपर से पर्स भी छोटा, ऐसा क्यों? इस प्रश्न के लिए हमें तब की पितृसत्तात्मक मानसिकता पर ध्यान देना होगा जो गहरायी से सबके दिमाग पर हावी थी। महिलाओं के छोटे पर्स बताते थे कि तब समाज में महिलाओं का कोई अधिकार ही नहीं था। पैसों के लिए, गुजारे के लिए वो पुरुषों पर निर्भर थी। समाज में तब ऐसी सोच थी कि बड़े पर्स और जेब रखकर महिलाएं आखिर करेंगी क्या, जब उन्हें चूल्हें के पास बैठकर खाना ही पकाना है और घर संभालना है। पैसा कमाकर तो पुरुष ही ले आता है।

ध्यान देने वाली बात है कि एक समय तक जेब पितृसत्तात्मक समाज को दर्शाती रही, फिर रही सही कसर पर्स ने पूरी कर दी। उस समय ऐसा माना जाने लगा कि जिस महिला का पर्स जितना बड़ा वो महिला उतनी बुरी। क्योंकि उस समय महिलाएं काम करने हेतु बाहर निकलती तो समाज उन्हें बुरी महिला होने का दर्जा दे देता। यह उस समय की सोच थी जिसने समाज को बुरी तरह से जकड़ लिया था।

लेकिन 19वीं सदी के अंत में जेब के लिए और सुविधाजनक पोशाक के लिए महिलाओं ने जमकर विरोध किया। जेब का अधिकार पाकर वे अत्मनिर्भरता का भाव अपने भीतर भरना चाहती थी। 20वीं सदी की शुरुआत में महिलाएं जेब वाली पैंट पहनने लगी। फिर आया 1914 से 1945 के बीच का समय जब प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध हुए, इसमें पुरुष युद्ध में थे और महिलाओं को इस दौरान जेबों वाली पोशाक पहनने की स्वतंत्रता मिलीपर जब युद्ध से पुरूष लौटे तो महिलाओं का संघर्ष फिर लौट आया। लौट आयी वहीं पुरुष की महिलाओं पर हावी होने वाली सोच। पुरुषों जैसी जेबें नहीं हो सकती महिलाओं की, महिलाएं बाहर काम नहीं कर सकती और भी ऐसी ही कई सोच लौट आयीं। इसी तरह की सोच के साथ समय गुजरा, फैशन बदला, रहन-सहन में बदलाव आने लगा। महिलाओं के लिए स्लिम दिखने वाली और बिना जेब वाली पोशाकें डिजाइन की जाने लगी। फैशन में हैंडबैग भी आया और हैंडबैग उद्योग फलने फूलने लगा। दिमाग में ऐसी सोच बैठती चली गयी कि महिलाओं को जेब की आवश्यकता नहीं और हैंडबैग के साथ महिलाएं ज्यादा स्टाइलिश दिखती हैं।

महिलाओं के दिखावटी जेब के पीछे ये हो सकते हैं कारण

मौजूदा समय की बात करें तो महिलाओं के पोशाक में जेबों का नहीं होना या फिर दिखावटी जेब होना या फिर जेबों की गहरायी पुरुषों की जेबों की गहरायी से कम होना इसके कई कारण समझ में आते हैं। फैशन ट्रेंड, महिलाओं की जींस की डिजाइन जैसे कारण हो सकते हैं लेकिन इन सबसे भी बड़े कारण जो दिखायी देते हैं वो दो हैं, एक तो कॉस्ट कटिंग हो सकती हैं। सोचिए कि एक जींस में पॉकेट नहीं दी गयी तो पॉकेट जितना कपड़ा बच गया और ऐसे ही कोई कंपनी 100 या फिर 1000 जींस के उत्पादन में कितने मीटर कपड़े बचा सकती है। कंपनिया कुछ ऐसे ही उपायों से बचत कर पाती हैं। दूसरा ये कि अगर महिलाओं की जींस या कुर्ते या फिर किसी और पोशाकों में जेब दे दी गयी तो भला पर्स या हैंडबैग उद्योग का बंटाधार ही हो जाएगा। ये तो हुई फैशन, उद्योग और अधिकार की बात जो जेब से सीधे-सीधे जुड़ी दिखायी देती है। लेकिन मेरे पोशाक में जेब का न होना या फिर जेबों का छोटा होना दिक्कत की बात तो है और मेरी जैसी कई लड़कियों को भी ये दिक्कत जरूर होगी। आशा है कि कुछ ऐसा क्रांतिकारी डिजाइन आए और हमारी इस दिक्कत का समाधान कर दे।

और पढ़ें: भारतीय संस्कृति और विरासत के पुनरुद्धार के लिए राकेश सिन्हा की पहल समय की मांग है

Exit mobile version