आप विमल के लिए इस व्यक्ति का जितना उपहास उड़ा लें चलेगा, आप इनके विकल्पों के लिए इनका जितने मीम बनाना चाहें वो भी चलेगा, लेकिन वीर भगत सिंह को इनके जैसा कोई आत्मसात करके दिखा दे, तो मान जाऊंगा। 7 जून 2002. 20 वर्ष पहले भगत सिंह के ऊपर फिल्मों की मानो बाढ़ सी आ गई थी, और शायद दुर्भाग्यवश इसी कारण से एक भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औसत आँकड़े भी पार न कर पाई। एक समय ऐसा भी था जब उत्कृष्ट फिल्में केवल जनता की उपेक्षा के कारण फ्लॉप हो जाते थे, और द लीजेंड ऑफ भगत सिंह भी उनमें से ही एक थी।
परंतु जिस फिल्म उद्योग में ऐतिहासिक तथ्यों को ठेंगे पर रखा जाए, जिस उद्योग में “सम्राट पृथ्वीराज”, “बाजीराव मस्तानी” जैसी फिल्मों को बढ़ावा दिया जाए, जिस फिल्म उद्योग में अभिनेता बेशर्मी से ये बोलते फिरे कि लाल बाल पाल में लाल लाला लाजपत राय नहीं, लाल बहादुर शास्त्री हैं, उस उद्योग में ‘द लीजेंड ऑफ भगत सिंह’ किसी अमृत धारा से कम नहीं था। लेकिन हम भूल जाते हैं कि इस फिल्म को बनाया भी किसने था। जिस राजकुमार संतोषी ने ‘घायल’, ‘दामिनी’, ‘अंदाज अपना अपना’, ‘घातक’, ‘पुकार’ जैसी फिल्में दी हो, वो अगर निरंतर शोध करते हुए ऐसी फिल्म बनाये, तो कैसे अच्छी नहीं बनेगी।
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देवगन की एक्टिंग के आगे फेल दिखे कई बड़े अभिनेता
द लीजेंड ऑफ भगत सिंह फिल्म के लिए अजय देवगन प्रथम विकल्प नहीं थे, परंतु अजय देवगन ने इस रोल को ऐसे आत्मसात कर लिया था, जैसे भगत सिंह को इनसे बेहतर कोई अन्य निभा नहीं सकता था। आज जब “सम्राट पृथ्वीराज” में अपनी असहजता और अनुत्साही होने के लिए अक्षय कुमार को सोशल मीडिया पर उपहास का सामना करना पड़ा है, तो तुलना में कई अभिनेताओं का नाम लिया जाता था, जिन्होंने न केवल उन ऐतिहासिक किरदारों को निभाया, अपितु उन्हें अपना बना लिया, और अजय देवगन ऐसे ही एक अभिनेता थे।
अब ऐसा नहीं है कि अजय देवगन से पूर्व भगत सिंह पर किसी ने फिल्म ने नहीं बनाई, और न ही किसी ने कोई सार्थक प्रयास किया। परंतु जिस प्रकार से अजय देवगन भगत सिंह की जीती जागती प्रतिमूर्ति बने, उसका आज भी शायद ही कोई तोड़ मिलेगा। लोग विकी कौशल को ‘सरदार उधम’ में उनकी भूमिका के लिए प्रशंसा करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे, परंतु जो काम अजय देवगन ने किया, उसके समक्ष विकी कौशल भी पानी मांगते हुए दिखाई पड़ेंगे।
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लेकिन ये फिल्म केवल अजय देवगन तक सीमित नहीं थी। वैचारिक रूप से इसे वामपंथ का गुणगान करने हेतु ही रचा गया था, आखिर स्क्रीनप्ले अंजुम राजाबअली जैसे वामपंथियों ने जो लिखी थी। परंतु जैसे शौर्य में अपने अभिनय से के.के. मेनन ने खेला कर दिया, वैसे ही अजय देवगन ने अपने अभिनय से भगत सिंह को वामपंथ तक न सीमित कर उन्हें उनका वास्तविक राष्ट्रवादी स्वरूप दिया, और इससे बेहतर प्रमाण क्या हो सकता है, जब एक अंग्रेज जज को उसकी औकात बताने के लिए वो कहे, “जब तुम्हारे बाप दादा बोलना नहीं जानते, हमारा बच्चा-बच्चा रामायण गीता का पाठ पढ़ता था।”
द लीजेंड ऑफ भगत सिंह फिल्म में जितना प्रभाव अजय देवगन ने डाला, उतना ही प्रभाव सहायक अभिनेताओं का भी रहा। ये अलग बात है कि आज सुशांत सिंह विशुद्ध वामपंथी है, परंतु सुखदेव थापर के रूप में इन्होंने भी एक अलग प्रभाव छोड़ा था। डी. संतोष और अखिलेन्द्र मिश्रा को देखकर लगा ही नहीं कि ये कोई किरदार निभा रहे थे, क्योंकि ऐसा प्रतीत हुआ कि वास्तव में स्क्रीन पर राजगुरु और चंद्रशेखर आज़ाद स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए दाँवपेंच दिखा रहे थे। कभी-कभी सोचके लगता है कि ‘द लीजेंड ऑफ भगत सिंह’ समय से बहुत ही पूर्व रिलीज हुई थी। इसका म्यूज़िक आज भी लोगों को रुला दे, इसके संवाद आज भी लोगों को गौरवान्वित कर दे, तो सोचिए, यदि ये ‘शेरशाह’ जैसे फिल्मों या ‘उरी’ जैसे फिल्मों के समय रिलीज हुई होती, तो? प्रसिद्धि तो प्रसिद्धि, और समृद्धि मिलती वो अलग, और वैसे एक्टिंग क्या होती है इन्ही फिल्मों से देख लीजिए। ऐसे ही नहीं अजय देवगन को नेशनल अवॉर्ड मिला था।
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