आज आपको एक ऐसे इंसान के बारे में बताएँगे जिनका जम्मू कश्मीर विवाद से बहुत बड़ा नाता रहा है या यूँ ही कहें की उन्ही के कारण ये विवाद हुआ। उनका नाम है- राम चंद्र काक। राम चंद्र काक (5 जून 1893 – 10 फरवरी 1983) 1945-1947 के दौरान जम्मू और कश्मीर के प्रधानमंत्री थे। काक इस पद को धारण करने वाले बहुत कम कश्मीरी पंडितों में से एक थे। 1945-1947 के दौरान काक के पास ब्रिटिश राज से सत्ता के हस्तांतरण का कठिन काम था। किन्तु, क्या आप जानते हैं की वो काक ही थे जिन्होंने जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को रोक कर रखा। इतना ही नहीं उन्होंने राज्य में उठ रही लोकतंत्र की मांग और भारत में विलय के आन्दोलन को भी रोकने की कोशिश की। उन्हों राज्य के विलय के लिए ब्रिटिश दबाव को भी दूर किया। वो राजशाही और कश्मीर के स्वतंत्रता के प्रखर समर्थक और भारत में विलय के मुखर विरोधी थे। यद्यपि उनका ज्यादा झुकाव जिन्ना और पाकिस्तान के तरफ था।
उन्होंने अंतिम निर्णय लेने से पहले महाराजा को कम से कम एक वर्ष तक स्वतंत्र रहने की सलाह दी। किन्तु, जम्मू कश्मीर में उनकी लोकप्रियता की वजह से अगस्त 1947 में भारत और पाकिस्तान की स्वतंत्रता से कुछ समय पहले उन्हें प्रधानमंत्री के पद से बर्खास्त कर दिया गया था। आज उनका जन्मदिवस है, तो आइयें, उनके कार्यों की विवेचना करें जिससे हमें एक राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी के रूप में तथा भारत के सन्दर्भ में उन्हें समझ सके।
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1946 में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने महाराजा के खिलाफ कश्मीर छोड़ो आंदोलन शुरू
आंदोलन शुरू ने के बाद ही काक ने मार्शल लॉ की घोषणा की और 20 मई को सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। शेख अब्दुल्ला को जल्द ही तीन साल के कारावास की सजा सुनाई गई। जवाहरलाल नेहरू ने उनके बचाव पक्ष के वकील के रूप में पेश होने का प्रयास किया लेकिन 21 जुलाई को काक ने श्रीनगर में उनके प्रवेश को रोक दिया। उस समय के कश्मीर प्रशासन ने इस सन्दर्भ में INC को “अभद्र, गलत और निंदनीय बयान” प्रकाशित करने और महाराजा सरकार के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने के लिए फटकार लगाई। शेख अब्दुल्लाह के माध्यम से हरी सिंह का तख्तापलट करना, आन्दोलन को बढ़ावा देना, उनका बचाव करना और आतंरिक मामलों मे कांग्रेस द्वारा हस्तक्षेप करने को आदत को मुद्दा बनाते हुए उन्होंने कश्मीर विलय का विरोध किया।
जुलाई के अंत में, काक ने सरदार वल्लभभाई पटेल से मुलाकात की क्योंकि एक सरदार पटेल ही थे जिनपर काक भरोसा करते थे। पटेल ने सलाह दी कि शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा किया जाए और शासक और लोगों के बीच संबंधों को सुधारने के लिए कदम उठाए जाएं। काक ने इस मामले में पटेल के अधिकार क्षेत्र को खारिज कर दिया। काक की पहल विफल रही, कश्मीर में ब्रिटिश रेजिडेंट ने नवंबर में बताया कि कश्मीर के भारतीय संघ से बाहर रहने की संभावना है। कारण “कांग्रेस केंद्र सरकार द्वारा राजशाही के प्रति विरोध और शेख को समर्थन दिया था.”
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काक चाहते तो कश्मीर भारत में शामिल हो जाता
जून 1947 में भारत के विभाजन के निर्णय के बाद, कश्मीर विलय पर निर्णय अटक गया। लॉर्ड माउंटबेटन ने जून (19-23 जून) में कश्मीर का दौरा किया और संवैधानिक राजतंत्र के निरंतरता की गारंटी देते हुए निर्णय लेने के लिए महाराजा के साथ-साथ काक को भी राजी किया। काक द्वारा “सही विकल्प” के बारे में पूछे जाने पर, काक की अंतिम स्थिति यह थी कि “चूंकि कश्मीर पाकिस्तान में शामिल नहीं होगा, यह भारत में शामिल नहीं हो सकता। उन्होंने महाराजा को सलाह दी कि कश्मीर को स्वतंत्र रहना चाहिए। कम से कम एक वर्ष, जब तक विलय के मुद्दे पर विचार किया जा सके।
काक ने जुलाई में नई दिल्ली में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं से मुलाकात की। जिन्ना ने उनसे कहा कि अगर कश्मीर बाद में नहीं बल्कि तुरंत मिल जाता है तो कश्मीर का बेहतर शर्तों के साथ विलय कराया जायेगा। काक ने भारत के लिए रियासतों के प्रभारी सचिव वी. पी. मेनन से भी मुलाकात की और सुरक्षा की मांग की। स्टेट फोर्सेज के चीफ ऑफ स्टाफ जनरल हेनरी स्कॉट ने अपनी आखिरी रिपोर्ट में कहा था कि काक स्वतंत्रता के पक्षधर थे लेकिन पाकिस्तान के साथ घनिष्ठ संबंध रखते थे। 1 अगस्त 1947 को, जबगांधी ने कश्मीर का दौरा किया और काक को बताया कि वह लोगों के बीच कितने अलोकप्रिय थे तब, काक ने इस्तीफा देने की पेशकश की थी। काक को स्वतंत्र कश्मीर के विचार का शिल्पी कहा जा सकता है। हालाँकि, काक अगर चाहते तो कश्मीर के हीरो बन सकते थे लेकिन अदूरदृष्टि और स्वार्थ के कारण उन्होंने खलनायक बनने की ठानी।
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