शरद पवार को राजनीतिक पंडित जितना बड़ा बताते हैं, उतने बड़े वो हैं नहीं. उन्हें चाणक्य की उपाधि दी गई. राजनीतिक रूप से मिस्टर कूल की संज्ञा दी गई और इसके साथ-साथ उन्हें अमित शाह के काट के रूप में भी पेश किया गया, किंतु यह सारी बातें ऊंची दुकान फीके पकवान सम प्रतीत होती हैं. पवार किसी भी मामले में राजनीतिक रूप से एक कुशल और सक्षम राजनेता नहीं हैं. उनकी ऐसी छवि सिर्फ और सिर्फ परिस्थितिजन्य है. जहां तक रही बात मिस्टर कूल राजनेता बनने की तो ऐसा उनके बारंबार मुंह की खाने के कारण हुआ है.
अभी हाल ही में राज्यसभा चुनाव हारने के बाद पवार ने कहा कि उन्हें महाविकास आघाडी की हार और भाजपा की जीत पर कोई आश्चर्य नहीं है, बल्कि वह तो पहले से ही जानते थे कि ऐसा ही होगा. उनका यह बयान सुनते ही कुछ अति उत्साही अल्प राजनीतिक ज्ञाता उन्हें विराट और सक्षम राजनेता के रूप में पेश करने लगे. किंतु, वह भूल गए कि इस प्रकार की भविष्यवाणी एक कुशल राजनेता की पहचान कदापि नहीं हो सकती, बल्कि यह सिर्फ और सिर्फ एक कुशल राजनीतिक पंडित की पहचान है. पवार न तो खुद अपना राजनीतिक लक्ष्य साध पाएं और न ही अपने राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और भविष्य को सुरक्षित कर पाए. उनके खुद की पार्टी और उनका राजनीतिक रूप से सक्षम परिवार भी निरंतर अंतर्कलह का सामना करता रहा.
3 बार ऑफर मिलने के बाद भी वह भारत के प्रधानमंत्री बनने के स्वर्णिम अवसर से चूक गए. विधानसभा चुनाव में भी वह मात्र 50 से 55 सीटों पर सिमट गए. ऊपर से उनकी भद्द तब पिटी जब मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा लिए उनके भतीजे अजित पवार ने न सिर्फ उनको धोखे में रखा बल्कि छल करते हुए सरकार बनाने का दावा भी पेश कर दिया. पर फिर भी पता नहीं कैसे राजनीतिक पंडित उन्हें चतुर, चाणक्य और चाचा चौधरी की उपाधि दे देते हैं? इस लेख में हम आपको उन चार पांच कारणों से अवगत कराएंगे जो यह बताता है कि शरद पवार बहुत ही साधारण किस्म के राजनेता हैं और मीडिया उन्हें जबरदस्ती चाणक्य बनाने पर तुली हुई है, जबकि उनको मिलने वाली सारी सफलता अवसरवादिता का प्रत्यक्ष प्रमाण है.
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कुशल रणनीति नहीं अवसरवादिता है पवार की पहचान
वर्ष 1978 में इंदिरा गांधी द्वारा कांग्रेस को विभाजित करने के बाद, पवार दूसरे गुट में शामिल हो गए. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में खंडित जनादेश के बाद, कांग्रेस के दोनो गुट जनता पार्टी को सत्ता से वंचित करने के लिए एक साथ आए. पवार वसंतदादा पाटिल सरकार में मंत्री बने. किन्तु, केवल चार महीने बाद पार्टी तोड़ 38 साल की उम्र में जनता पार्टी के समर्थन से राज्य के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बनें. वर्ष 1999 में, उन्होंने सोनिया गांधी के खिलाफ उनके विदेशी मूल को लेकर विद्रोह शुरू किया और अपनी पार्टी एनसीपी बनाई. दोनों दलों ने जल्द ही महाराष्ट्र में साझा सरकार स्थापित की और अगले 15 वर्षों तक शासन करते रहें.
तीन मौकों पर- 1991, 1999 और 2019 में, पवार ने प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न देखा लेकिन ये स्वप्न स्वप्न ही रह गया. उन्हें हर मोर्चे पर निराशा हाथ लगी थी. प्रधानमंत्री पद के पहले दो अवसर का खंडन कांग्रेस की ओर से आए, जबकि तीसरा भाजपा द्वारा 2019 के आम चुनाव में एक अनुमानित और शानदार जीत दर्ज करने पर ध्वस्त हो गया. इस घटना में भाजपा आवश्यक संख्या में सीटें जीतने में सक्षम नहीं थी, हालांकि प्रधानमंत्री बनने में शरद पवार सबसे आगे थे.
इनसे तो परिवार भी नहीं संभलता
कर्नाटक के गौड़ा की तरह ही महाराष्ट्र का पवार परिवार भी है. वे शिक्षण संस्थानों, ट्रस्टों और चीनी सहकारी समितियों को चलाने में मिलकर काम करते हैं. यह अजित पवार ही थे जिन्होंने चाचा शरद पवार के लिए जगह बनाने हेतु बारामती लोकसभा सीट खाली की थी. 2019 के लोकसभा चुनावों में, शरद ने अपने भतीजे और अजित पवार के बेटे, पार्थ को मावल लोकसभा सीट से मैदान में उतारा और यह कहते हुए दौड़ से बाहर हो गए कि उनके परिवार के दो सदस्य (बेटी सुप्रिया सुले सहित) पहले से ही चुनाव लड़ रहे थे. हालांकि, हम सभी जानते हैं कि यह परिवार में मतभेदों के कारण था. पार्टी में उत्तराधिकार की लड़ाई के बारे में अफवाहों का खंडन करते हुए, पवार की बेटी सुप्रिया सुले ने अक्सर स्पष्ट रूप से कहा है कि उनके चचेरे भाई अजित पवार महाराष्ट्र में एनसीपी का चेहरा होंगे, जबकि वह दिल्ली में पार्टी का प्रतिनिधित्व करेंगी.
पवार परिवार और करीबी सहयोगियों के खिलाफ केस
यह विडंबना ही है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), जिसने धन शोधन के मामले में शरद पवार के खिलाफ मामला दर्ज कर उनकी राजनीतिक जीवन को संजीवनी प्रदान की क्योंकि इन्हीं मामलों के कारण पवार विधानसभा चुनावों के दौरान खुद को पीड़ित के तौर पर पेश कर अपने पक्ष में माहौल बना सकें. पवार के अलावा, उपमुख्यमंत्री अजित पवार, पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रफुल्ल पटेल और वरिष्ठ नेता छगन भुजबल सहित राकांपा के कई वरिष्ठ नेता कथित भ्रष्टाचार के मामले में विभिन्न जांच एजेंसियों की जांच के दायरे में हैं. 79 वर्षीय शरद पवार ने अपने खिलाफ ईडी के मामले का इस्तेमाल खुद को एक पीड़ित के रूप में पेश करने के लिए किया था, लेकिन आखिर काठ की हांड़ी कितनी बार चढ़ेगी? वैसे भी अब चुनाव खत्म हो चुके हैं और एनसीपी नेता इन मामलों में कुछ राहत चाहते हैं, वरना पार्टी में फूट पड़ते देर नहीं लगेगी.
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राकांपा की राजनीतिक महत्वाकांक्षा
अपने अस्तित्व के दो दशकों के बावजूद, राकांपा काफी हद तक पश्चिमी महाराष्ट्र क्षेत्र तक ही सीमित है, जबकि गिरती हुई कांग्रेस पूरे राज्य में अपनी उपस्थिति बनाए रखती हैं. यह देखते हुए कि राकांपा भाजपा और शिवसेना के हिंदुत्व-संचालित वोटबैंक पर आधारित है, अतः राज्य में इसका विस्तार कांग्रेस की कीमत पर होनी चाहिए. यह एनसीपी के राजनीतिक विस्तार को स्वाभाविक रूप से रोकता है. मराठा मानुष की राजनीतिक कमान भी उद्धव और राज ठाकरे के पास है. हिंदुत्व गया भाजपा को. तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का ढोंग कांग्रेस के परंपरागत वोट बैक का आधार है. जाति का ध्वज क्षत्रपों ने उठा रखा है तो आखिर पवार के पास बचा क्या? उनके पास कुछ नहीं बचा और न ही पवार कुछ बना पाए. साफ़-साफ़ प्रदर्शित होता है कि वो एक विफल राजनेता हैं जिन्हें अब आराम करना चाहिए.
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