श्रीलंका की स्थिति दिनों दिन बद से बदतर होती जा रही है। आज श्रीलंका दशकों में अपने सबसे खराब वित्तीय संकट से जूझ रहा है। लाखों लोग भोजन, दवा और ईंधन खरीदने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। खाद्य कीमतों में 80% की वृद्धि हुई और पिछले एक साल में डेढ़ लाख लोग गरीबी रेखा के नीचे पहुँच गए। ऐसे में श्रीलंका को ऐसी हालत में धकेलने वाले देश के प्रधानमंत्री भी देश से भाग चुके हैं और सड़कें अब केवल प्रदर्शनकारियों से भरी दिख रही है। गुस्साए प्रदर्शनकारियों ने श्रीलंका के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के आधिकारिक आवासों को तोड़ दिया। जनता के इस आक्रोश का कारण है कि राष्ट्र दिवालिया हो चुका है। लेकिन यह देश इस हालत में कैसे पहुंचा?
वैसे तो श्रीलंका वर्ष 2012 से ही आर्थिक संकट से जूझ रहा था और फिर 2019 में श्रीलंका में तीन चर्च और तीन लग्जरी होटल में हुए आतंकी हमलों ने देश के टूरिज्म सेक्टर को भारी नुक्सान पहुँचाया जिसके चलते देश का अरबों का नुकसान हुआ। लेकिन कोरोना महामारी के कारण विश्वभर में लगे लॉकडाउन ने श्रीलंका की कमर तोड़ दी। ऐसे में एक के बाद एक गलतियां कर रहे देश के नेता ने एक और गलती की जो थी चीन से क़र्ज़ की मांग। यह सच है की चीन ने जो क़र्ज़ का जाल श्रीलंका के लिए बुना था उसमें यह देश अब बुरी तरह फंस चुका है लेकिन क्या चीन अकेला श्रीलंका की इस हालत के लिए जिम्मेदार है? तो जवाब है नहीं। श्रीलंका के पतन के लिए जितना जिम्म्मेदार चीन है उतना ही जिम्मेदार पश्चिम देश भी है और चीन की बातें आँख और बुद्धि मूँद कर सिर हाँ में हाँ हिला देने वाले नेता भी उतने ही जिम्मेदार हैं इस देश की बिखरती हालत के लिए।
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किस तरह पश्चिम है श्रीलंका का गुनहग़ार ?
पश्चिम के विकसित देश हमेशा से ही पर्यावरण के सबसे बड़े चिंतक बनकर घूमते रहे हैं। वे अपने सोच, विचार और परियोजनाओं का पालन स्वयं करें या न करें लेकिन विकासशील देशों पर अपनी राय थोपने से बाज़ नहीं आते। श्रीलंका भी ऐसे ही पश्चिम की एक नयी परियोजना का शिकार हुआ। योजना थी श्रीलंका को पूर्ण रूप से जैविक खेती की ओर ले जाना। अप्रैल 2021 में श्रीलंका ने रासायनिक उर्वरकों पर प्रतिबंध लगा दिया। राजपक्षे सरकार ने किसानों को तैयार किए बिना रासायनिक उर्वरकों पर अचानक प्रतिबंध लगाने का फैसला किया। सरकार के बिना सोचे बिचारे इस फैसले का नतीजा यह निकला कि श्रीलंका की एक तिहाई कृषि भूमि 2021 में उर्वरक प्रतिबंध के कारण निष्क्रिय हो गई। श्रीलंका के 90% से अधिक किसानों ने प्रतिबंध लगने से पहले रासायनिक उर्वरकों का उपयोग किया था। रासायनिक उर्वरकों पर प्रतिबंध लगने के बाद, 85% कृषियों की फसल को नुकसान पहुंचा।
कितना हुआ फसलों को नुक्सान
रासायनिक उर्वरकों के अभाव में चावल का उत्पादन 20% गिर गया और चावल की कीमतें केवल छह महीनों में 50 प्रतिशत बढ़कर आसमान छू गईं। गाजर और टमाटर जैसी सब्ज़ियों के दाम पांच गुना बढ़ गए। इसके बाद, अन्य खाद्य पदार्थों की कीमतों में भी लगभग तीन गुना वृद्धि होने लगी। रबड़ और चाय जैसी फसलें जिनमें रसायनों का उपयोग 90 प्रतिशत है, वे भी इस मूर्खतापूर्ण फैसले का शिकार हुईं और किसानों के हाथ एक बार फिर से केवल निराशा ही लगी। वे लोग जो कभी अपनी जमीन पर किसानी करते थे अब वे दूसरों के घर मजदूरी करने को विवश थे। देश में जब अनाज की कीमतें आसमान छूने लगीं तो उसका असर तेल और ईंधन पर भी दिखने लगा। तेल की ऊंची कीमतों का मतलब था कि परिवहन की कीमतें 128% बढ़ीं।
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निर्यातक से आयातक बना श्रीलंका
प्रतिबन्ध से पहले जो देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर था। चावल और सब्ज़ियों का प्रमुख निर्यातक था। वह देश अब 450 मिलियन डॉलर मूल्य के चावल का आयात करने लगा। अगस्त 2021 के अंत में, राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने आपातकाल की स्थिति घोषित कर दी और दो महीने बाद जब एक बार फिर स्थिति बदलने का प्रयास किया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी क्योंकि अब उन्हें ढूंढने पर भी पर्याप्त रासायनिक उर्वरक नहीं मिल रहे थे। भारी जनसंख्या वाले एक देश को जो अपना पेट भरने के लिए मुख्य तौर से खेती पर निर्भर है और उसे ऐसे धकेला जैसे किसी को अंधे कुँए में धकेल दिया जाता है।
उर्वरक पर सरकार के विनाशकारी प्रतिबंध ने श्रीलंका को इतना अक्षम बना दिया कि अब वह अरबों के ऋण में तो दबा ही है और साथ ही दाने दाने को मोहताज हो गया है। आज श्रीलंका जल रहा है और इसका कारण केवल राजपक्षे और अन्य श्रीलंकाई नेता और चीन ही नहीं बल्कि वे पश्चिमी देश और लोग भी हैं जिन्होंने श्रीलंका को आर्गेनिक फार्मिंग में बिना सोच- विचारे और बिना तैयारी के धकेल दिया।
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