NJAC 2.0 को लागू करने का समय आ गया है

मी-लॉर्ड के लिए भी 'लक्ष्मण रेखा' होनी आवश्यक है!

supreme court

Source- TFIPOST.in

क्या आपको 1 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के दो-न्यायाधीशों की पीठ जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जेपी पारदीवाला याद हैं जो निलंबित भाजपा नेता नूपुर शर्मा पर एक टीवी शो में पैगंबर मोहम्मद पर उनकी टिप्पणी के लिए की गई याचिकाओं की सुनवाई कर रहे थे। तो आपको यह भी याद होगा कि कैसे उन दोनों न्यायाधीशों ने यह माना कि नूपुर के कारण ही देश में दंगे और डर का माहौल पैदा हुआ है। यहां तक की पीठ ने तो यह भी कह दिया कि 29 जून को उदयपुर के दर्जी कन्हैया लाल की हत्या की वजह भी नूपुर ही थी और इन सभी दंगे और हत्याओं के लिए न्यायाधीशों ने नूपुर को सार्वजनिक रूप से माफी मांगने के लिए भी कहा था।

वह बात जिसने सबको हैरान कर दिया वह यह थी कि कैसे उन्होंने एक हिंदू देवता पर टिप्पणी करने वाले मंत्री का जिक्र भी नहीं किया लेकिन उस टिप्पणी का जवाब देने वाली एक महिला पर एक के बाद एक आरोप गढ़ दिए। न्यायाधीशों की इस टिप्पणी के बाद ट्विटर पर काफी बवाल उठा और तब जस्टिस जेपी पारदीवाला ने कहा था की डिजिटल मीडिया का इस तरह न्यायपालिका में हस्तक्षेप करना अनुचित है। यह लक्ष्मण रेखा पार करने जैसा है। लेकिन लक्ष्मण रेखा की याद दिलाने वाले न्यायाधीश शायद यह भूल गए थे कि जिस समय उन्होंने एक न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर बिना पूरी डिबेट देखें केवल एक महिला पर ही दंगे और हत्याओं का कीचड़ उछाल दिया उस समय उन्होंने भी एक लक्ष्मण रेखा पार कर दी थी।

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केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू से इस विषय में पूछने पर उन्होंने कोई भी टिप्पणी देने से इन्कार करते हुए कहा की, “अगर मुझे निर्णय पसंद नहीं भी है या मुझे न्यायाधीशों द्वारा की गई टिप्पणियों के तरीके पर गंभीर आपत्ति है, मैं इस मुद्दे पर उचित मंच पर चर्चा करूंगा।“ लेकिन ऐसे में देश की न्यायिक प्रणाली को लेकर एक बहुत बड़ा सवाल उठता है जो यह है कि क्या हमारी न्याय प्रणाली वाकई में निष्पक्ष है? न्यायपालिका से ऊपर भले ही कोई ना हो लेकिन न्यायपालिका में बैठे न्यायाधीश का मन अगर अपने स्वयं के विचारों के कारण किसी एक पक्ष में झुकता है तो यह न्यायाधीश के उस कुर्सी का अपमान होगा जिस पर बैठकर उसने सही न्याय करने का संकल्प लिया था। ऐसे में एक अन्य सवाल उठता है कि क्या न्यायपालिका को इतनी ताकत मिलना सही है या फिर कोई ऐसा भी होना चाहिए जो न्यायपालिका से भी सवाल करने की ताकत रखता हो? क्या यही समय है कि एनजेएसी को एक बार फिर से लागू कर दिया जाए?

क्या है एनजेएसी?

NJAC, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) एक प्रस्तावित निकाय था जो भारत सरकार और भारत की सभी राज्य सरकारों के तहत न्यायिक अधिकारियों, कानूनी अधिकारियों और कानूनी कर्मचारियों की भर्ती, नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए जिम्मेदार था। 16 अक्टूबर 2015 को सर्वोच्च न्यायालय ने 4:1 के बहुमत से उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की दो दशक पुरानी कॉलेजियम प्रणाली को बदलने के लिए एनजेएसी अधिनियम, 2014 को असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया।

बहुमत के फैसले का विरोध करने वाली पांच-न्यायाधीशों की पीठ में से केवल एक ही जस्ती चेलमेश्वर थे, जिनका मानना था कि एनजेएसी की प्रस्तावित संरचना एक संवैधानिक मुद्दा नहीं होगी, बल्कि यह कॉलेजियम नीति के साथ मिलकर कार्य कर सकती थी। ऐसा करने से न्यायाधीशों के पास भी शक्ति रहती और वह अपनी शक्ति का दुरुपयोग ना करें इसके लिए सरकार की उन पर नजर भी रहती।

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सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री, नितिन गडकरी नागपुर में महाराष्ट्र राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के एक सुविधा खंड के उद्घाटन के अवसर पर बोल रहे थे जब लोकतंत्र के चार स्तंभों– विधायी, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया– की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा, “स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक प्रणाली एक स्वतंत्र लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है। निर्णय देना न्यायपालिका का अधिकार है और उसके फैसले पर किसी एक पक्ष का दवाब नहीं होना चाहिए।“

न्यायाधीशों के पास न्यायालय डोमेन का पूर्ण और अपरिवर्तनीय नियंत्रण होता है। लेकिन वे अभद्र टिप्पणियों, अशोभनीय मजाक या वकील, पार्टियों या गवाहों की तीखी आलोचना करके अपने अधिकार का दुरुपयोग नहीं कर सकते हैं। क्या आप समय आ गया है कि एनजेएसी 2.0 लागू कर दिया जाए?

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