हमारे देश में एक तबका ऐसा है जिसे हर चीज से समस्या होती है। वे हर मुद्दे के जरिए अपना एजेंडा चलाने के प्रयास करता रहता है। जी हां, हम बात वामपंथियों की ही कर रहे है। देखने मिल रहा है कि जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है वामपंथी कैसे हम मुद्दे को धर्म से जोड़कर बड़ा बवाल खड़ा करने का प्रयास करते रहते है। लिबरल गैंग द्वारा मुस्लिमों में असुरक्षा की भावना बढ़ाने की कोशिश हो रही है। इस बीच अब सेकुलर गिरोह ने देश में मुस्लिम प्रधानमंत्री बनाने की मांग भी शुरू कर दी है।
दरअसल, कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर मुस्लिम प्रधानमंत्री (#MuslimPM) का मुद्दा सुर्खियों में आया हुआ है। इसकी शुरुआत वरिष्ठ पत्रकार प्रीतिश नंदा ने की । उन्होंने अपने ट्वीट के माध्यम से अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों का उदाहरण देते हुए प्रश्न उठाए कि क्या अब भारत में कोई मुस्लिम प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन पाएगा?
प्रीतिश नंदा ने अपनी ट्वीट में लिखा- “भारतीय मूल की एक महिला अमेरिका की उपराष्ट्रपति हैं। भारतीय मूल के व्यक्ति के पास ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनने का अवसर है। परंतु क्या कभी भारत में पैदा हुआ मुस्लिम व्यक्ति दोबारा देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन पाएगा?” उन्होंने प्रश्न किया कि क्या आप हर सात भारतीयों में से एक को उच्च राजनीतिक पद के लिए अपात्र बना सकते है? प्रीतिश नंदा ने आगे कहा- “यहां मैं एक साधारण सा प्रश्न पूछ रहा हूं। क्या ऐसी पदों के लिए योग्यता की कोई भूमिका नहीं रह जाती है? या हम जाति, लिंग, आस्था और क्षेत्रीय पहचान के विचारों के आगे झुकते रहेंगे?”
Here I was asking a simple question. By sealioning me, the trolls are sidestepping the real issue: Does merit have any role left to play in such appointments or will we continue to succumb to considerations of caste, gender, faith and regional identity?
— Pritish Nandy (@PritishNandy) July 18, 2022
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प्रीतिश नंदा की इस ट्वीट पर वामपंथी पत्रकार के रूप में पहचानी जाने वाली राणा अय्यूब ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा- “भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि सत्ता पक्ष का एक भी सांसद मुस्लिम नहीं है। सत्तारूढ़ दल एक पूर्व उपराष्ट्रपति को उनके मुस्लिम होने के कारण अपमानित कर रहा है। ऐसे में प्रधानमंत्री तो दूर की बात है।“
https://twitter.com/RanaAyyub/status/1548623054699261952
इसके बाद से ही देश में मुस्लिम प्रधानमंत्री का मुद्दा सुर्खियों में छा गया। ध्यान देने वाली बात है कि मुस्लिम प्रधानमंत्री की मांग उस वक्त जोर पकड़ रही है, जब भारत को दौपद्री मुर्मु के रूप में 15वीं राष्ट्रपति मिली हैं। दौपद्री मुर्मु भारत की पहली महिला आदिवासी के तौर पर निर्वाचित हुई है। परंतु इस पर गर्व करने की जगह लिबरल्स को तो मुस्लिम प्रधानमंत्री बनाने की चिंता अधिक सता रही है।
पत्रकार प्रीतिश नंदा ने अपनी इस ट्वीट के जरिए अमेरिका, ब्रिटेन से भारत की तुलना कर यह दिखाने के प्रयास किए कि विदेशों और विकसित देशों में किस तरह से अल्पसंख्यकों को आगे बढ़ाया जा रहा है, जबकि भारत में ऐसा नहीं हो रहा। ऐसा कर उन्होंने देश की छवि खराब करने की भी कोशिश की। परंतु यह सवाल पूछने योग्य है कि क्या अल्पसंख्यक से मतलब केवल मुस्लिम समुदाय से ही होता है? भारत में मुस्लिमों के अलावा सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई भी अल्पसंख्यक की ही श्रेणी में आते हैं। सिख समुदाय से आने वाले मनमोहन सिंह 10 सालों तक देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। परंतु यहां प्रीतिश नंदा में केवल मुस्लिमों का ही जिक्र किया। अन्य समुदाय के बारे में उन्होंने शायद इसलिए बात नहीं की क्योंकि यह उनके एजेंडे में फिट नहीं बैठ रहा था।
जिन मुस्लिम समुदाय का जिक्र प्रीतिश नंदा ने अपनी ट्वीट में किया, उसी मजहब से आए डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम देश के राष्ट्रपति रह चुके हैं। वे देश के सबसे लोकप्रिय राष्ट्रपति में से एक रहे। धर्म-जाति से परे हर समुदाय के लोग अब्दुल कलाम को प्यार और सम्मान देते हैं। देखा जाए तो अब तक भारत में तीन मुस्लिम राष्ट्रपति रह चुके हैं। परंतु वामपंथियों के द्वारा उनकी बात नहीं की जाती।
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भारत में अगर अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव होता तो क्या एपीजे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति पद तक पहुंच पाते? मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन पाते? रामनाथ कोविंद एक दलित होने के बाद भी देश के सर्वोच्च पद पर बैठ सकते थे? या फिर द्रौपदी मुर्मु पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति बन पाती? भारत में तो यह लोग मुस्लिम राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनाने की मांग उठा रहे है। परंतु क्या कभी इन्होंने किसी इस्लामिक देश से प्रश्न पूछा है कि उनके यहां के कितने हिंदू या अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े लोग देश में बड़े पद पर कायम है? पाकिस्तान समेत तमाम इस्लामिक देशों में किसी हिंदू या अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े व्यक्ति को प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति तक पहुंचने की बात तो दूर की रही। यहां अल्पसंख्यकों पर किस तरह से अत्याचार होते है, उन्हें उनके अधिकारों तक से वंचित रखा जाता है, उससे दुनिया अच्छी तरह से वाकिफ है।
परंतु इन सब तथ्यों से लिबरल गुट को क्या लेना देना? उनका उद्देश्य तो केवल यही रहता है कि वो किसी भी तरह भारत को बदनाम करें। फिर इसके लिए वो देश के संविधान पर प्रश्न उठाने से भी नहीं झिझकते। भारत एक लोकतांत्रिक देश हैं और यहां राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री का चुनाव एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत किया जाता है। संवैधानिक प्रक्रिया के अनुसार प्रधानमंत्री का चुनाव जनता के द्वारा चुने गए सांसदों से होता है। वहीं, राष्ट्रपति बनने के लिए भी सांसदों और विधायकों के वोटों की आवश्यकता होती है, जिन्हें जनता के द्वारा ही चुना जाता है। ऐसे में देश में किसी भी समुदाय से जुड़ा व्यक्ति प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बन सकते हैं। इसमें किसी भी तरह का भेदभाव किसी के साथ नहीं होता, बस जरूरत होती है तो जनता के समर्थन की।
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परंतु सेकुलर गुट तो संवैधानिक प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए केवल यह दिखाने के प्रयासों में जुटा रहता है कि भारत में किस तरह अल्पसंख्यकों से भेदभाव होता है और उन्हें प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति जैसे पदों तक पहुंचने से रोका जाता है। सच्चाई क्या है इससे इनको जरा भी नहीं लेना देना।
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