सुपरस्टार अजय देवगन के वर्षों के प्रयास को अंततः उचित सम्मान मिला है। वो कैसे? इसी प्रश्न का उत्तर हम इस लेख में जानेंगे। हाल ही में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा हुई, जो वर्ष 2020-21 के सत्र के लिए थी। इस बार OTT और सिनेमा में प्रदर्शित फिल्मों की काफी चर्चा थी, जिसमें तमिल फिल्म ‘सूराराई पोटरू’ ने विजय प्राप्त करते हुए 5 पुरस्कार बटोरे, जो प्रसिद्ध एयरलाइन सेवा ‘एयर डेक्कन’ की स्थापना पर आधारित थी और जिसमें सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री इत्यादि के पुरस्कार शामिल थे।
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एक पुरस्कार स्वयं अजय देवगन को प्राप्त हुआ है
परंतु केवल यही अकेले नहीं थे जिन्होंने लाईमलाइट बटोरी। चर्चित निर्देशक ओम राऊत की ‘तान्हाजी– द अनसंग वॉरियर’ को एक नहीं बल्कि तीन राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए, जिसमें से एक पुरस्कार स्वयं अजय देवगन को प्राप्त हुआ है। अजय देवगन को यह पुरस्कार संयुक्त रूप से सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए प्राप्त हुआ है जो उन्होंने इस फिल्म में मुख्य भूमिका यानी सूबेदार तान्हाजी मालुसरे की भूमिका के लिए मिला है।
इस फिल्म के लिए अजय देवगन ने काफी समय लगाया था और दिन रात एक कर दिया था। इस फिल्म के लिए उन्हें न केवल अनेक कठिनाइयां झेलनी पड़ी थी अपितु वामपंथियों और लिबरल ईकोसिस्टम के उलाहने भी झेलने पड़े थे। उदाहरण के लिए द क्विंट ने तो कुछ ऐसे विष उगला था- द क्विंट के एक लेख के एक अंश के अनुसार, “फिल्में अक्सर अपने समय की राजनीति का आईना होती हैं। नेहरू के जमाने में फिल्मों का झुकाव समाजवाद की ओर था, मसलन ‘दो बीघा जमीन’ और ‘जिस देश में गंगा बहती है। फिलहाल नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी का राज है। इस दौरान उग्र राष्ट्रवाद दिखाने वाली फिल्मों का बोलबाला है। आतंकवाद रोधी ‘उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक और ‘बेबी’ एक देश के रूप में भारत का महिमा मंडन करने वाली फिल्मों के उदाहरण हैं। इनसे भी महत्त्वपूर्ण हैं वो ऐतिहासिक फिल्में और खासकर मध्यकालीन जमाने का इतिहास बताने वाली फिल्में, जिनमें हिंदू राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित किया जा रहा है। ये बात संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावत’(2018) और ‘बाजीराव मस्तानी’(2015) से साफ है। इस कड़ी में ताजा उदाहरण हैं, आने वाली फिल्में ‘पानीपत: द ग्रेट बेट्रायल’ और ‘तानाजी: द अनसंग हीरो।”
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द क्विंट की कुंठा एक अलग ही लेवल पर निकली
ये तो कुछ भी नहीं है। जब Tanhaji प्रदर्शित हुई तो द क्विंट की कुंठा एक अलग ही लेवल पर निकली, जिसे देखकर आप भी सोचोगे आखिर इतनी नफरत आती कहां से है। यकीन न हो तो इस आर्टिकल की इन पंक्तियों को पढ़िए जिसमें लिखा है, “तानाजी का ट्रेलर: सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर भगवा पावर तक सबकुछ दिखा”, इस आर्टिकल में लिखा है कि “मालूम पड़ता है कि फिल्म निर्माता ने जानबूझकर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ नैरेटिव का इस्तेमाल किया है, ताकि मराठा और मुगलों के बीच जंग को भारत-पाकिस्तान तनाव के साथ जोड़ा जा सके। साफ है कि ये नैरेटिव ‘हिन्दू बनाम मुस्लिम पर आधारित है। 1670 में हुई कोंढाना की लड़ाई (अब पुणे के पास सिंघनाद) पर आधारित फिल्म निश्चित रूप से धार्मिक आधार पर हुई लड़ाई दिखलाती है। उस जंग के मुख्य किरदार थे छत्रपति शिवाजी के कोली जाति के एक सेनापति तानाजी मल्सारे और मुगल साम्राज्य से दो-दो हाथ करने वाले राजपूत सेनापति उदयभान सिंह राठौड़। उस जंग में कहीं हिन्दू-मुस्लिम का एंगल नहीं था लेकिन, फिल्म निर्माता ने जानबूझकर उस जंग को ‘अच्छे और बुरे,’ ‘हिन्दू बनाम मुसलमान और भारतीय राष्ट्रवाद की विदेशी शासन से लड़ाई के रूप में प्रस्तुत किया। तानाजी की भूमिका में अजय देवगन हैं, जबकि उदयभान की भूमिका में सैफ अली खान। फिल्म का राष्ट्रवादी झुकाव पोस्टर से ही साफ है, जिसमें अजय देवगन को तिलक लगाए हुए और दाढ़ी के साथ सैफ अली खान को मुस्लिम किरदार के रूप में दिखाया गया है, जिसके चेहरे पर कोई धार्मिक निशाना नहीं है। जबकि सच्चाई ये है कि दोनों हिन्दू थे।” द क्विंट ने आगे लिखा है कि “पोस्टर और पूरे ट्रेलर में मराठा पहचान पीले और भगवा रंग की है, जबकि मुगलों को भयंकर दिखलाया गया है। मराठा सेना सफेद या भगवा कपड़ों में हैं, जबकि मुगल काले या हरे कपड़ों में। साफ है कि फिल्म की थीम ‘अच्छा बनाम बुरा’ और ‘हिन्दू बनाम मुसलमान है”।
अजय देवगन को अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध करने की आवश्यकता किसी को भी नहीं है। जिसने सरदार भगत सिंह जैसे व्यक्ति को सिल्वर स्क्रीन पर निष्कपट रूप में आत्मसात कर ऐसे ही 20 वर्ष पूर्व राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया था उन्हें एक बार ऐसे ही एक निष्कपट परफ़ॉर्मेंस के लिए पुनः भारत ने उचित सम्मान दिया है। वैसे सुनने में आ रहा है कि महोदय आचार्य चाणक्य को भी सिल्वर स्क्रीन पर आत्मसात करना चाहते हैं।
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