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गुजरात के किसानों ने डेयरी दिग्गज पोल्सन को कैसे हराया, जानिए पूरी कहानी

वो भी एक समय था जब पॉल्सन डेरी की हेकड़ी मिट्टी में मिल गयी थी

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
30 July 2022
in चर्चित, समीक्षा
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हाल ही में गुजरात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साबर डेरी में कई परियोजनाओं का उद्घाटन किया। इसी दौरान जनता को संबोधित करते हुए उन्होंने गुजरात के विश्वप्रसिद्ध सहकारिता संघ के महत्व को रेखांकित करते हुए बताया,

“आज गुजरात का डेयरी मार्केट 1 लाख करोड़ रुपये तक पहुँंच चुका है। गुजरात में सहकारिता की एक समृद्ध परंपरा रही है, और संस्कार भी है। तभी तो सहकार है और सहकार है, तभी तो समृद्धि है। दूध से जुड़े सहकारी आंदोलन को जो सफलता मिली है, इसका विस्तार अब हम खेती से जुड़े बाकी क्षेत्रों में भी कर रहे हैं। देश में आज 10 हजार किसान उत्पादक संघ – FPOs के निर्माण का काम तेजी से चल रहा है”

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गुजरात के किसान तंग आ चुके थे

गुजरात की यह सहकारिता केवल समृद्धि का ही प्रतीक नहीं अपितु गुजरात के व्यवसायिकता का प्रत्यक्ष प्रमाण है, इसीलिए आज गुजरात देश के लिए एक रोल मॉडल की तरह है। परंतु क्या आपको पता है कि इसकी नींव एक दंभी पारसी उद्योगपति के कारण पड़ी, जिसके डेरी उद्योग पर एकाधिकार के कारण देशभर के दुग्ध किसान, विशेषकर गुजरात के किसान तंग आ चुके थे। इस लेख में जानेंगे कथा गुजरात के सहकारिता की उत्पत्ति की, जानेंगे कि कैसे इसने ‘अमूल’ एवं ‘आत्मनिर्भर भारत’ दोनों की ही नींव रखी।

एक समय था, जब देश में दूध का उत्पादन अनंत हुआ करता था। यूं कहिए कि ‘दूध की नदियां’ बहा करती थी। परंतु ब्रिटिश साम्राज्यवाद के आते ही, हमारे इस ‘दुग्ध धन’ पर भी ग्रहण लग गया और साम्राज्यवादियों ने समस्त संसाधनों पर नियंत्रण जमा लिया था।

इसी बीच उद्भव हुआ था एक पारसी उद्योगपति पेस्टोनजी एडुलजी का। इन्होंने डेरी उद्योग में निवेश करने का निर्णय लिया और परिणाम था पॉल्सन डेरी। इसका प्रथम डेरी प्लांट गुजरात के आणंद में ही स्थापित किया गया था, जिसकी लागत तब 7 लाख रुपये से अधिक की थी। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के समय ये मक्खन और कॉफी भारी मात्रा में ब्रिटिश इंडियन आर्मी के लिए निर्मित करता था, और इसका ब्रांड वैल्यू इतना लोकप्रिय था कि इसके लिए मुख्य ब्रिटिश आर्मी एवं अमेरिकी आर्मी तक मांग करते थे।

एक समय पॉल्सन प्रतिदिन 5 टन मक्खन का निर्माण करता था, और इसकी नमकीन मक्खन की तकनीक ऐसी थी कि इसके समक्ष कोई अन्य टिक ही नहीं पाता था। परंतु यही सफलता अब इसके सर चढ़ने लगी। दरअसल, क्षेत्र में एकाधिकार होने के नाते किसान औने-पौने दाम पर अपना दूध इसे बेचने को मजबूर थे। पॉल्सन गुजरात एवं अन्य क्षेत्रों से कौड़ियों के दाम पर दूध खरीद कर मुंबई एवं अन्य क्षेत्रों में दूध की सप्लाई करके बड़ा मुनाफा कमाती थी। ये कंपनी ब्रिटिश आर्मी को भी दूध सप्लाई करती थी।

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जब पटेल ने कहा- आपके हाथ में शक्ति है

किसानों के प्रतिनिधि त्रिभुवन दास पटेल अपनी समस्या लेकर सरदार वल्लभ भाई पटेल के पास गए। सरदार वल्लभभाई पटेल तो भारत छोड़ो आंदोलन के समय से ही इस दिशा में व्यापक परिवर्तन करने को आतुर थे, परंतु उन्हें कुछ और ही सूझा। उनका विचार स्पष्ट था, ‘आपके हाथ में शक्ति है, आप स्वयं क्यों नहीं पराजित करते?’ इसी परिप्रेक्ष्य में उन्होंने एक सहकारी संस्था बनाने का सुझाव दिया।

14 दिसंबर 1946 को खेड़ा डिस्ट्रिक्ट मिल्क प्रोड्यूसर्स यूनियन लिमिटेड की शुरुआत हुई। इस सोसाइटी के बनने से बिचौलिए हट गए और किसानों की आमदनी में सुधार हुआ। साल 1950 में त्रिभुवन दास पटेल ने इस सोसाइटी की जिम्मेदारी देश के लिए कुछ करने को बेचैन एक युवा वैज्ञानिक, डॉ. वर्गीज कुरियन को सौंपी।

त्रिभुवन दास पटेल किसानों को जोड़कर जब ऐसी अन्य सोसाइटी बना रहे थे, डॉ. कुरियन इस को-ऑपरेशन को मजबूत करने में जुटे थे। उन्हें को-ऑपरेटिव चलाने के लिए एक टेक्निकल मैन की मदद की जरूरत थी, जो एचएम दलाया के आने से पूरी हुई। ये तीनों अमूल के आधार स्तंभ साबित हुए।

1955 में जब को-ऑपरेशन का नाम चुनने की बारी आयी तो डॉ. कुरियन ने इसका नाम अमूल रखा। ये आणंद मिल्क यूनियन लिमिटेड का छोटा रूप था। साथ ही संस्कृत में अमूल्य का मतलब होता है जिसकी कोई कीमत न लगायी जा सके।

परंतु सरदार पटेल की मृत्यु के पश्चात ये परियोजना लगभग ठंडे बस्ते में पड़ चुकी थी। जवाहरलाल नेहरू बहुत अधिक उत्सुक नहीं थे, परंतु उनकी सद्बुद्धि कहें या उनके ‘अंतरराष्ट्रीय छवि’ की चिंता, उन्होंने गुजरात के सहकारिता के विनाश की ओर भी ध्यान नहीं दिया।

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तत्कालीन प्रधानमंत्री ने महत्वपूर्ण निर्णय लिया

परंतु 1964 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इस सफल मॉडल को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने का निर्णय लिया। उन्होंने अमूल मॉडल को दूसरी जगहों पर फैलाने के लिए राष्ट्रीय दुग्ध विकास बोर्ड (एनडीडीबी) का गठन किया और डॉक्टर कुरियन को बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया। एनडीडीबी ने 1970 में ‘ऑपरेशन फ्लड’ की शुरुआत की जिससे भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश बन गया। कुरियन ने 1965 से 1998 तक 33 साल एनडीडीबी के अध्यक्ष के तौर पर सेवाएं दीं। वे 1973 से 2006 तक गुजरात को-ऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड के प्रमुख और 1979 से 2006 तक इंस्टीट्‍यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट के अध्यक्ष रहे।

आज गुजरात दुग्ध सहकारिता संघ यानी अमूल न केवल भारत की सफलता का एक प्रतीक है अपितु ये भारतीय अर्थव्यवस्था की उन्नति में एक महत्वपूर्ण योगदान भी देता है।

आज पॉल्सन का कोई अस्तित्व नहीं है, तो वहीं अमूल का बटर देश में मार्केट लीडर है और उसके पास कुल 85 फीसदी मार्केट शेयर है। वहीं, पाउच मिल्क के मामले में मार्केट शेयर 25 फीसदी है, और इसके अलावा पनीर सेगमेंट में अमूल का मार्केट शेयर 80 फीसदी है। वहीं, आइसक्रीम सेगमेंट में अमूल के पास 40 फीसदी मार्केट शेयर है।

और पढ़ें- अब कपड़ा उद्योग में नहीं रहेगा बांग्लादेश का वर्चस्व, भारत जल्द लेकर आ रहा है PLI स्कीम

इसके अतिरिक्त अमूल का वार्षिक टर्नओवर यानी आमदनी साल 2016 में 11,668 करोड़ रुपये थी। वहीं, 2017 में यह बढ़कर 20,733 करोड़ रुपये हो गयी। साल 2018 में यह 29,225 करोड़ रुपये पर पहुंच गयी। अब साल 2019 की बात करें तो कमाई बढ़कर 32,960 करोड़ रुपये हो गयी। आज अमूल देश के दुग्ध क्रांति की सफलता का प्रतीक है, परंतु इसके पीछे गुजरात के किसानों के अथक प्रयासों की कथा बहुत लोगों से छुपी है। गुजरात के सहकारिता की सफलता इस बात का प्रतीक है कि आत्मनिर्भरता अभिशाप नहीं है, वरदान है, जो भारत को उन्नति को शिखर पर ले जा सकता है।

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