कोलाचेल का युद्ध: जिसके पश्चात डच कभी भारत में पांव नहीं जमा पाए

मार्तंड वर्मा की अद्भुत बहादुरी की महागाथा!

मार्तंड वर्मा

Source- TFI

“मिटाने से नहीं मिटते,

डराने से नहीं डरते,

वतन के नाम पर हम सर कटाने से नहीं डरते”

द लीजेंड ऑफ भगत सिंह फिल्म के यह बोल भारत भूमि की भव्यता को परिलक्षित करते हैं। अब भारत भूमि की बात ही कुछ और है, यहां के कण कण में शौर्य और बलिदान की गाथा है। परंतु हमें दुर्भाग्यवश केवल अहिंसा और गांधी का पाठ पढ़ाया गया है, मानो इनके अतिरिक्त भारत की युवा पीढ़ी को विरासत में देने को कुछ था ही नहीं। इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे एक महावीर योद्धा ने एक युद्ध से ब्रिटिश साम्राज्यवादियों समान अत्याचारी शासन के पांव उखाड़ दिये गये परंतु उस विजय को कभी भारत के समक्ष आने ही नहीं दिया गया।

यह कथा है कोलाचेल के युद्ध की, जिसने भारत में डच साम्राज्य के पांव उखाड़ दिये और महावीर योद्धा मार्तंड वर्मा ने इसका नेतृत्व किया था। त्रावणकोर, एशिया का पहला ऐसा राज्य बना, जिसने यूरोप के उपनिवेशवाद को सबसे पहले हराकर अपना लोहा मनवाया था। राज्य के राजा मार्तंड वर्मा ने विदेशियों को यह कहकर चुनौती दी थी कि अगर डच सेना हम पर हमला करती है तो अपनी हार के लिए तैयार रहे। हम यूरोप पर भी हमला करने की सोच रहे हैं। मार्तंड वर्मा के ये शब्द बताते हैं कि वो इतनी जल्दी घुटने टेकने वाले नहीं थे। यही नहीं, उन्होंने न सिर्फ डच चुनौती को स्वीकार किया बल्कि युद्ध जीता और उनके 11 हज़ार सैनिकों को बंदी भी बना लिया। चूंकि, यह इतिहास में दर्ज उपनिवेशवाद के खिलाफ पहली जीत मानी जाती है, इसलिए इसे जानना दिलचस्प रहेगा।

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16वीं शताब्दी के आसपास भारत में व्यापार के लक्ष्य से आए डच लोगों ने 1605 में डच ईस्ट इंडिया कंपनी का निर्माण किया। फिर वे धीरे-धीरे केरल के मालाबार तट तक आ पहुंचे। रही बात व्यापार की, तो ये लोग काली मिर्च, चीनी और मसाले का व्यापार किया करते थे। समय के साथ-साथ उन्होंने पूरे एशिया में अपने पांव पसारना शुरू कर दिया और बड़ी आसानी से धीरे-धीरे श्रीलंका, केरल, बंगाल, बर्मा और सूरत तक अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। तेजी से फैल रहे उनके साम्राज्य का मुख्य गढ़ था- श्रीलंका और त्रावणकोर। उस समय केरल एक न होकर कई छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ था। इसके अलावा उन्होंने बड़ी चालाकी से कोच्चि और किल्लोंन पर भी कब्ज़ा जमा लिया था। आपको बता दें कि यूरोप के नीदरलैंड के लोग ही डच कहलाते हैं!

अब आते हैं मार्तंड वर्मा पर, जिनका जन्म 1705 में एक शाही परिवार में हुआ था। मार्तंड वर्मा  शुरू से ही समझदार और निडर थे। इस बात का परिचय उन्होंने तब दिया, जब उन्होंने अपने चाचा महाराजा वीर रामा वर्मा को मदुरै के नायकों के साथ समझौता करने के लिए प्रभावित किया ताकि वह विद्रोही मुखियाओं का पता लगा सकें। उनके इस फैसले से उनमें मौजूद एक शासक और समझदार होने की झलक दिखी थी।

महज़ 23 साल की उम्र में, 1729 में मार्तंड वर्मा ने त्रावणकोर राज्य पर चढ़ाई की। उसके बाद उन्होंने रुकने का नाम नहीं लिया। उन्होंने अपनी सेना बनाई और नायर लोगों को सत्ता से उखाड़ फेंका। ये वही नायर थे जिन्होंने उनकी हत्या का व्यूह रचा था और उनकी रियासत हड़पनी चाही थी। अपनी बुद्धि और निडरता से उन्होनें बड़े कम समय में जल्दी ही कोल्लम, कयमकुलम और कोट्टाराकारा रियासतों पर अपना कब्ज़ा जमा लिया। साथ ही इन सब छोटी-छोटी रियासतों को मिलाकर उन्होनें एक साम्राज्य खड़ा किया, जो त्रावणकोर साम्राज्य कहलाया।

इन युद्धों के दौरान कई राजा और मुखिया अपना राज्य गवां चुके थे। इस कारण उनमें हताशा भी थी। इससे उबरने के लिए उन्होंने डच लोगों के दरवाजे पर दस्तक दी और ये वहीं डच लोग थे, जो पहले से ही उनका समर्थन करते आ रहे थे। असल में वे अपना हारा हुआ राज्य किसी भी हाल में वापस पाना चाहते थे। इसी क्रम में जब कयमकुलम के राजा डच के पास गुहार लेकर पहुंचे, तब डचों ने त्रावणकोर के राजा यानी मार्तंड वर्मा को यह कहते हुए चेतावनी दी कि या तो वह जीते हुए साम्राज्य को वापस कर दें या फिर युद्ध के लिए तैयार हो जाए। सीलोन के गवर्नर गुस्ताफ्फ़ विलेम को लगा कि वह युद्ध की बात बोलकर उन्हें डरा देंगे।

किंतु  मार्तंड वर्मा ने बिना डरे बड़े साहस से उल्टा उन्हें ही चेता दिया। उन्होंने कहा हम किसी से नहीं डरते। अगर डच सेना हम पर हमला करती है तो वो अपनी हार के लिए तैयार रहे। इसके अलावा हम यूरोप पर भी हमला करने की सोच रहे हैं! वह यही नहीं रुके, उन्होंने आगे कहा कि बाहरी लोगों को हमारे निजी मामले में दखल देने का कोई अधिकार नहीं है। अगर वे ऐसा करते हैं तो हम भी युद्ध की स्थिति में हॉलैंड पर अपने मछुआरों की मदद से हमला करवा सकते हैं।

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डच सेना को लगा था होगा कि वे आसानी से मार्तंड को हराकर अपना राज फिर कायम कर लेंगे। लिहाज़ा उन्होंने मार्तंड को ललकारने के लिए राजकुमारी इलायादथु स्वरुपम को वहां के शासक के रूप में नियुक्त कर दिया। इस तरह कोट्टाराकारा और डच की सेना ने मिलकर मार्तंड वर्मा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। मगर दोनों सेना मिलकर भी उन्हें हरा नही पाई। परिणाम यह हुआ कि त्रावणकोर सेना ने उन्हें बहुत बुरी तरह से मात दे दी। मार्तंड वर्मा और उनकी सेना ने न सिर्फ उन्हें हराया बल्कि कोट्टाराकारा रियासत को त्रावणकोर में मिला दिया। इसके अलावा डच सेना को कोच्चि तक खदेड़ दिया और उन्होंने डचों द्वारा कब्ज़े में लिए गए सारे इलाकों को भी अपने अधीन कर लिया।

आपको बता दें कि 1740 में डच सेना ने इस युद्ध में कोलाचेल (आज का कन्याकुमारी) में तीन दिन तक नेवल बमबारी की थी। सीलोन से 400 समुद्री जहाज़ मालाबार तट की और रवाना किये गए थे और डच सेना ने कोलाचेल को अपना ठिकाना बनाया था, जोकि मार्तंड  वर्मा की राजधानी से सिर्फ 13 किलोमीटर दूर था। उनके इस चाल का जवाब देते हुए मार्तंड वर्मा ने अपनी 10 हज़ार की सेना के साथ डच सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। कोलाचेल में वर्मा की जीत का एक ये भी कारण था कि वहां के स्थानीय मछुआरों ने भी इस लड़ाई में उनकी बहुत मदद की थी। 10 अगस्त, 1741 को मार्तंड वर्मा ने डचों पर विजय हासिल की और उन्हें खदेड़ दिया और इस तरह भारत के इतिहास में मार्तंड वर्मा ऐसे पहले नायक के रूप में दर्ज हो गए, जिन्होंने उपनिवेशवाद को न सिर्फ चुनौती दी बल्कि उनकी भारत में जड़े जमाने की पहली कोशिश को भी नाकाम कर दिया था। परंतु इस विजय गाथा से न केवल केरल को अपितु संपूर्ण भारत को दशकों तक वंचित रखा गया। हमें बताया ही नहीं गया कि ऐसे भी नायक थे पर अब और नहीं!

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