परिवर्तन प्रकृति का एक शाश्वत नियम है, परंतु एक सत्य ये भी है कि जो बोओगे, वही काटोगे। बोए पेड़ बबूल के तो आम कहां से पाओगे। कुछ लोग सदैव इसी भ्रम में जीते हैं कि जो कार्य वो करते हैं, वो सदैव उनके हित में ही होगा, उनके विरुद्ध नहीं जाएगा, परंतु सदैव ऐसा नहीं होता। दरअसल, वामपंथियों द्वारा उत्पन्न किया गया ‘कैंसिल कल्चर’ अब उन्हीं को काटने दौड़ रहा है और ऐसी स्थिति में ये वामपंथी चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं।
‘Boycott’, ‘Cancel’, ‘Destroy’ पर चर्चा क्यों?
‘Boycott’, ‘Cancel’, ‘Destroy’, विगत कुछ माह से हम सभी के टाइमलाईन इन सभी शब्दों से पट चुके होंगे। इसका सर्वाधिक असर बॉलीवुड पर पड़ा है। ‘लाल सिंह चड्ढा’ और ‘रक्षा बंधन’ पर पड़ने वाले इसके व्यापक प्रभाव से कोई भी अपरिचित नहीं है।
परंतु इस बात पर चर्चा क्यों? असल में टाइम्स ऑफ इंडिया ने हाल ही में एक लेख निकाला जिसमें इन्होंने इस बात पर चिंता जतायी कि कैसे ये कैंसिल कल्चर सिनेमा के लिए हानिकारक है और कैसे ये कला के स्वस्थ आदान प्रदान के लिए हानिकारक है और कैसे हमें इस कैंसिल कल्चर को कैंसिल करना होगा। हिप्पोक्रेसी की भी कोई सीमा होती है भई।
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कमाल है, अब वामपंथियों को इस बात से मिर्ची लग रही है कि जिस काम की रचना उन्होंने अपने लाभ के लिए की थी, जिस कार्य के लिए उन्होंने ‘कैंसिल कल्चर’ को रचा था, वो आज उन्हीं को काटने के लिए कैसे दौड़ रहा है? आज ‘Boycott Bollywood’ जैसे अभियान इतने सफल कैसे हो रहे हैं कि आमिर खान जैसे अभिनेताओं को एक-एक शो पर जाकर अपने फिल्म के लिए भीख मांगनी पड़ रही है? कारण स्पष्ट है, अब जनता पहले जैसी नहीं रही कि आप उसे कुछ भी दिखाएंगे और वह उसे हाथों हाथ लपक लेगी।
यही लोग कई फिल्मों के बाधक रहे हैं
ये वही लोग हैं जो ‘तान्हाजी’ के रिलीज़ में बाधा डालने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे, ये वही लोग हैं जिन्होंने ‘द ताशकंद फाइल्स’ को रिव्यू करने से केवल इसलिए मना कर दिया था क्योंकि यह उनके प्रिय पक्ष यानी कांग्रेस पार्टी को नकारात्मक छवि में दिखाती थी, ये वही लोग हैं जो ‘द कश्मीर फाइल्स’ का नाम सुनते ही तिलमिला उठते थे और अरविन्द केजरीवाल के उसे यूट्यूब पर डालने के घृणास्पद सुझाव पर ऐसे ताली पीटते थे जैसे कोई नोबेल प्राइज़ जीतने योग्य बात हुई हो।
अब जब यही “कैंसिल कल्चर” इन्हीं पर पलटकर पड़ा है तो इन लोगों की स्थिति काटो तो खून नहीं वाली हो गयी है। कोई अपने आप को मिलिंद सोमन की भांति तसल्ली दे रहा है कि अच्छी फिल्म है तो चलेगी ही, तो कोई कुंठा में जनता को ही दोष दे रहा है। करीना कपूर जैसे लोग तो दस कदम आगे निकल रही हैं, जिनके अनुसार जनता को उनका टेस्ट ही नहीं पसंद, और मूल फिल्म ही बेकार, इलीटिस्ट और कॉम्प्लेक्स है, हम असली आइटम बना रहे हैं।
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कहते हैं कि बबुआ उतना ही बोलो, जितना पचा सको, परंतु इतना ज्ञान हमारे वामपंथियों ने ले लिया होता तो आज इतनी गालियां न खा रहे होते, और उसी का परिणाम है कि वे अपने ही बोए विषबेल के दुष्परिणाम झेल रहे होते, पर जैसे कि पहले भी कहा गया था बोए पेड़ बबूल के तो आम कहाँ ते होय?
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