“Family Trip to Ibiza” कैसे डॉक्टर फँसते हैं बिग फार्मा के मायाजाल में

एमआर को नियंत्रित करने के लिए एक स्पष्ट अधिनियम को लागू किया जाना चाहिए!

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Source-CNN

TVF का बहुचर्चित सीरियल ‘गुल्लक’ देखे हैं न? उसका हर सीजन अपने आप में सबकी आँखें खोल देता है और तीसरा संस्करण भी किसी मायने में कम नहीं था। उसके प्रथम एपिसोड में ही हमारे एक प्रमुख कलाकार आनंद यानि अन्नू मिश्रा अब काम पे लग चुके हैं और अपने मित्रों/सहकर्मियों को बताते हैं कि किस तरह से अधिक से अधिक दवाइयों का व्यापार बढ़ाना है।

एक संवाद के अंश अनुसार,

“मेडिकल स्टोर वालों को चाउमीन और कोल्ड ड्रिंक पेल के खिलाओ, बच्चों के लिए टॉफी, कंपट, नटखट और ऐसे वो क्या….

“पॉप्पिन्स”

“हाँ वही, बाकी डॉक्टरों को हम संभाल लेंगे!”

ये संवाद सुनने में बड़े चुटीले और हास्य से परिपूर्ण लग रहे हों, परंतु यह एक ऐसे स्याह पहलू को भी प्रदर्शित करते हैं। जिसपर किसी का ध्यान नहीं जाता। चिकित्सा उद्योग में स्वास्थ्य प्रतिनिधि यानि एम आर [Medical Representative] के इस बढ़ते मायाजाल का न कोई आदि है और न कोई अन्त और ये समस्या केवल भारत तक सीमित नहीं है।

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पिछले कुछ समय से डोलो 650 नामक पैरासिटामॉल का प्रभुत्व पूरे देश भर में व्याप्त है। कोरोना के दूसरे और सबसे भीषण लहर में इसका असर सबसे प्रभावी भी था और शीघ्र ही यह सबका ‘प्रिय’ बन गया। परंतु अब इस उत्पाद पर घपला करने का आरोप लगा है। मरीजों का बुखार उतारने के लिए इन दिनों डॉक्टरों की तरफ से सबसे ज्यादा लिखी जा रही दवाइयों में से एक डोलो 650 पर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में एक सुनवाई के दौरान गंभीर सवाल उठे हैं। मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव की संस्था फेडरेशन ऑफ मेडिकल एंड सेल्स रिप्रेजेंटेटिव्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने सुप्रीम कोर्ट में दावा किया है कि डोलो 650 (Dolo 650) में पेरासिटामोल का डोज मरीज की जरूरत से ज्यादा रखा गया है। इस दवा को बनाने वाली कंपनी डॉक्टरों को तरह-तरह के लालच देकर उनसे यही दवा लिखवा रही है।

दवा की मार्केटिंग के लिए मौजूद कोड को कानूनी दर्जा देने की मांग कर रही मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव की संस्था ने सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और ए एस बोपन्ना की बेंच को बताया कि पेरासिटामोल की 500 मिलीग्राम पद की मात्रा वाली दवाइयों की कीमत को सरकार ने नियंत्रित रखा है। सामान्य रूप से मरीजों की जरूरत भी इतनी मात्रा में ही पेरासिटामोल लेने की होती है। ABP के रिपोर्ट के अनुसार, “क्रोसिन, कालपोल जैसी दूसरी सामान्य दवाए इसी मात्रा के पेरासिटामोल के साथ उपलब्ध हैं। लेकिन डोलो को बनाने वाली कंपनी ने 650 मिलीग्राम मात्रा वाली भी टेबलेट निकाली। उसका मकसद यही था कि दवा की कीमत अधिक रखी जा सके। एसोसिएशन के वकील संजय पारीख ने जजों को बताया कि इस महंगी दवा को पर्चे में लिखवाने के लिए उसने डॉक्टरों को 1000 करोड़ रुपए से ज्यादा के सामान मुफ्त में दिए हैं या उन्हें महंगी विदेश यात्रा करवाई है।

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बेंच की अध्यक्षता कर रहे जस्टिस चंद्रचूड़ ने इस पर चिंता जताते हुए कहा, “आप जो कह रहे हैं वह सुन कर मुझे व्यक्तिगत रूप से भी अच्छा नहीं लग रहा है। पिछले दिनों जब मैं बीमार पड़ा था तब मुझे भी यही दवा दी गई थी। यह निश्चित रूप से बहुत गंभीर विषय है।” अब पीठ ने यह भी कहा कि सरकार या संसद (Parliament) को कोई कानून बनाने का आदेश नहीं दिया जा सकता है। लेकिन मामले में थोड़ी देर की सुनवाई के बाद जजों ने यूनिफॉर्म कोड ऑफ़ फार्मास्यूटिकल मार्केटिंग प्रैक्टिसेज को कानूनी रूप देने की मांग पर जवाब देने के लिए केंद्र सरकार को 10 दिन का समय दे दिया।

अब बात जब विदेश यात्रा की हो रही तो इसका उल्लेख भी ‘गुल्लक’ के उसी एपिसोड में बखूबी हुआ था। जब अपने दोस्तों को समझाते हुए अन्नू मिश्रा बोल रहा था “थायलैंड से लेके बैंकॉक, जहां जाना है, हम भेजेंगे” और एक अन्य एपिसोड में तो ये भी बताया जाता है कि कैसे कई डॉक्टर ऐसे लुभावने पैंतरों की मदद से प्लॉट, गाड़ी, बंगले, यहाँ तक कि एम्स्टर्डम, बार्सिलोना इत्यादि तक के विदेशी ट्रिप तक कर आते हैं। एक प्रसिद्ध हॉलीवुड फिल्म ‘लव एंड अदर ड्रग्स’ में इस गोरखधंधे का सबसे स्याह पहलू तक दिखाया गया  जहां पर एमआर दवाइयों के धंधे के साथ आपको वो सब कुछ देखने को मिलेगा। जो आपको लज्जा से अपना मस्तक झुकाने पर विवश कर दे और जिसे देखकर आप भी सोचेंगे – क्या डॉक्टर ऐसे भी होते हैं?

परंतु अगर आप ढंग से विश्लेषण करें तो कहीं न कहीं आप भी पाएंगे कि एमआर यानि स्वास्थ्य प्रतिनिधि और किसी शेयर बाजार के कर्मचारी में कोई विशेष अंतर नहीं होता। वह प्रारंभ 10000-30000 की छोटी सी पगार पर भी कर सकता है, परंतु यदि भाग्य खुले, तो करोड़ों में खेल सकता है। अंतर केवल इतना है कि स्टॉक मार्केट में आप नैतिक होकर भी ये कार्य कर सकते हैं परंतु ये सुविधा आपको एमआर के क्षेत्र में कभी नहीं मिल सकती।

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इसका एक उदाहरण आपको अवैध दवाइयों के एक रैकेट से भी मिल सकता है। अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में 12 मई को एसटीएफ की आगरा यूनिट ने ताजगंज क्षेत्र के बाग खिन्नी महल स्थित घर में दवाओं का अवैध गोदाम पकड़ा था। मुकदमा भी दर्ज हुआ। संचालक रजरई रोड स्थित पुष्प प्लाजा निवासी सोनू अग्रवाल को जेल भेजा गया। बृहस्पतिवार को उसे रिमांड पर लेकर उसके राधेकृष्णा धाम कॉलोनी के दूसरे गोदाम से करीब 30 लाख रुपये की सैंपल और सरकारी अस्पतालों की दवाएं बरामद की गईं।

एसटीएफ के निरीक्षक हुकुम सिंह ने बताया कि आरोपी सोनू अग्रवाल के पास सैंपल की दवाएं फार्मा कंपनियों के एमआर पहुंचाते थे। उनसे कम कीमत में दवाएं लेकर वह दवाओं को दुकानों पर सप्लाई करता था। छोटे दुकानदार ग्राहकों को दवाएं बेच देते थे। इससे सभी को मुनाफा होता था। एक दवा कंपनी का जांच अधिकारी भी शामिल था। उस पर सैंपल की दवाओं के सही स्थान और मरीजों तक पहुंचने की जांच करने की जिम्मेदारी थी। मगर वो भी इस खेल में मिला हुआ था।

दवाओं पर बैच नंबर और एक्सपायरी लिखी होती है। किस बैच नंबर की दवा किस एमआर को डॉक्टर के पास पहुंचाने के लिए दी गई। इसकी जानकारी फार्मा कंपनी के पास होती है। दवाओं की 109 कंपनियों को औषधि विभाग की ओर से नोटिस दी जा रही है। इसमें दवाओं को लेकर जाने वाले एमआर की जानकारी उपलब्ध कराने के लिए कहा गया।

अब सोचिए ये काला खेल न जाने कितने वर्षों से सबकी नाक के नीचे चल रहा होगा। आयुष्मान भारत योजना, जन औषधि योजना ने भले ही युद्धस्तर पर काफी समस्याएँ कम की हैं परंतु ये लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है। इसे परिणाम तक ले जाना हम सबका कर्तव्य है और ये तभी होगा जब एमआर को नियंत्रित करने के लिए एक स्पष्ट अधिनियम को लागू किया जाए, जैसे विमुद्रीकरण को लाया गया था।

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