जन्मदिन विशेष: विक्रम साराभाई की मौत आज भी रहस्य क्यों है?

जिस शख्स ने ISRO बनाया उसकी कहानी!

How Vikram Sarabhai foresaw space commercialization and why his death is still a mystery

How Vikram Sarabhai foresaw space commercialization and why his death is still a mystery

11 जनवरी 1966 और 24 जनवरी 1966, इन दोनों दिनों में क्या समानता है? इन दोनों दिन, भारत के दो विख्यात व्यक्ति, हमारे माटी को त्याग कर परलोक सिधार गए और वो भी रहस्यमयी परिस्थितियों में, भारत की माटी से मीलों दूर। परंतु कुछ ही वर्षों बाद, 30 दिसंबर 1971 को एक ऐसे ही व्यक्ति ने अपनी देह त्याग दी और परिस्थितियाँ भी कुछ भिन्न नहीं थी, परंतु न तब कोई पड़ताल हुई, न आज भी इस पर कोई चर्चा होती है। परंतु जाने अनजाने ‘रॉकेट्री’ ने आज फिर से देश के एक बहुमूल्य रत्न, विक्रम अंबालाल साराभाई के योगदान और उनके रहस्यमयी मृत्यु पर चर्चा की दिशा में कार्य प्रारंभ किया है।

विक्रम साराभाई का जन्म 12 अगस्त 1919 को एक बेहद धनाढ्य जैन परिवार में हुआ। उन्हे किसी प्रकार की कोई असुविधा नहीं थी, और वे बेहद राजसी ठाट बात से रहते थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा उनकी माता सरला साराभाई की देख-रेख में मैडम मारिया मोन्टेसरी के अंतर्गत प्रारंभ हुए पारिवारिक स्कूल में हुई। तद्पश्चात गुजरात कॉलेज से इंटरमीडिएट तक विज्ञान की शिक्षा पूरी करने के बाद वे 1937 में कैम्ब्रिज (इंग्लैंड) चले गए जहां 1940 में प्राकृतिक विज्ञान में ट्राइपोज डिग्री प्राप्त की। परंतु जीव विज्ञान से अधिक रुचि उन्हे भौतिकी यानि फिजिक्स में थी।

अतः द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ होने पर वे वे भारत लौट आए वे बेंगलुरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान यानि IISc में नौकरी करने लगे जहां वह महान वैज्ञानिक चन्द्रशेखर वेंकटरमन के निरीक्षण में ब्रह्माण्ड किरणों पर अनुसन्धान करने लगे। यहीं पर उनका परिचय एक नवयुवक से भी हुआ, जिन्होंने आगे चलकर परमाणु जगत में क्रांति ला दी, और इनका नाम था डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा। इन्ही दोनों जोशीले युवाओं के कारनामों पर आधारित है चर्चित वेब सिरीज़ ‘Rocket Boys’

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विक्रम ने अपना पहला अनुसन्धान लेख “टाइम डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ कास्मिक रेज़” भारतीय विज्ञान अकादमी की कार्यविवरणिका में प्रकाशित किया। वर्ष 1940-45 की अवधि के दौरान कॉस्मिक रेज़ पर साराभाई के अनुसंधान कार्य में बंगलौर और कश्मीर-हिमालय में उच्च स्तरीय केन्द्र के गेइजर-मूलर गणकों पर कॉस्मिक रेज़ के समय-रूपांतरणों का अध्ययन शामिल था।

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर वे कॉस्मिक रे भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अपनी डाक्ट्रेट पूरी करने के लिए कैम्ब्रिज लौट गए। 1947 में उष्णकटीबंधीय अक्षांक्ष (ट्रॉपीकल लैटीच्यूड्स) में कॉस्मिक रे पर अपने शोधग्रंथ के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में उन्हें डाक्ट्ररेट की उपाधि से सम्मानित किया गया। इसके बाद वे भारत लौट आए और यहां आ कर उन्होंने कॉस्मिक रे भौतिक विज्ञान पर अपना अनुसंधान कार्य जारी रखा। भारत में उन्होंने अंतर-भूमंडलीय अंतरिक्ष, सौर-भूमध्यरेखीय संबंध और भू-चुम्बकत्व पर अध्ययन किया।

स्वतंत्रता के पश्चात डॉक्टर विक्रम साराभाई ने भारत की संरचना को बढ़ावा देने पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उनके लिए राष्ट्र की संरचना और उसके लोगों का विकास सर्वोपरि था। कांग्रेस के चाटुकार आज भी इसरो और न जाने किन किन चीज़ों के लिए नेहरू जैसे अयोग्य व्यक्तियों को अकारण क्रेडिट देते रहते हैं। परंतु सत्य तो यही है कि यदि विक्रम साराभाई जैसे उद्यमी न होते, तो भारत के पास उचित इंफ्रास्ट्रक्चर के भी लाले पड़ जाते। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में बड़ी संख्या में संस्थान स्थापित करने में अपना सहयोग दिया।

चाहे वह अहमदाबाद वस्त्र उद्योग की अनुसंधान एसोसिएशन (एटीआईआरए) के गठन में अपना सहयोग प्रदान करना हो, जबकि उन्होंने वस्त्र प्रौद्योगिकी में कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया या फिर भौतिकी अनुसंधान प्रयोगशाला (पीआरएल), अहमदाबाद हो, भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद; सामुदायिक विज्ञान केन्द्र हो अहमदाबाद हो, दर्पण अकादमी फॉर परफार्मिंग आट्र्स, अहमदाबाद, विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र, तिरुवनन्तपुरम, आप बस बोलते जाइए और विक्रम साराभाई ने वो सब किया जो देश के विकास के लिए अति आवश्यक था।

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परंतु बात यहीं पर खत्म नहीं होती थी। डॉ॰  विक्रम साराभाई में एक प्रवर्तक वैज्ञानिक, भविष्य द्रष्टा, औद्योगिक प्रबंधक और देश के आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक उत्थान के लिए संस्थाओं के परिकाल्पनिक निर्माता का अद्भुत संयोजन था। उनमें अर्थशास्त्र और प्रबन्ध कौशल की अद्वितीय सूझ थी। उन्होंने किसी समस्या को कभी कम कर के नहीं आंका। डॉ॰ साराभाई ने स्वतन्त्र रूप से और अपने सहयोगियों के साथ मिलकर राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 86 अनुसन्धान लेख लिखे। कोई भी व्यक्ति बिना किसी डर या हीन भावना के डॉ॰ साराभाई से मिल सकता था, फिर चाहे संगठन में उसका कोई भी पद क्यों न रहा हो। वह बराबरी के स्तर पर उनसे बातचीत कर सकता था। इसलिए डॉक्टर विक्रम साराभाई इसरो जैसे दूरदर्शी संस्था की नींव रख पाए।

वे सदा चीजों को बेहतर और कुशल तरीके से करने के बारे में सोचते रहते थे। उन्होंने जो भी किया उसे सृजनात्मक रूप में किया। युवाओं के प्रति उनकी उद्विग्नता देखते ही बनती थी। डॉ॰ साराभाई को युवा वर्ग की क्षमताओं में अत्यधिक विश्वास था। यही कारण था कि वे उन्हें अवसर और स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए सदा तैयार रहते थे, और इसी कारण से देश को डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम, शंकरलिंगम नम्बी नारायणन जैसे रत्न मिले, वो अलग बात थी कि कुछ निकृष्ट वामपंथियों की घृणित सोच के कारण उन्हे उनका वास्तविक शौर्य और यश नहीं प्राप्त हो पाया, जो उन्हे मिलना चाहिए था।

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परंतु जिस वस्तु पर उनकी दृष्टि पड़ी, उसका अनुमान किसी को भी नहीं था, और आज इसी के कारण भारत अंतरिक्ष उद्योग में अमेरिका और रूस को कांटे की टक्कर भी दे रहा था, और पर्याप्त संसाधन न होने के बाद भी उन्हे दिन में तारे भी दिखा रहा है। जब अमेरिका और रूस में चाँद पर जाने की होड़  लगी रहती थी, तभी डॉक्टर साराभाई स्पेस उद्योग के व्यवसायीकरण के महत्व को भांप चुके थे और इस पर ‘Rocketry’ में प्रकाश भी डाला गया था। सोचिए, ऐसा व्यक्ति यदि भारत में उत्पन्न हुआ हो, तो वो पश्चिमी देशों के लिए चुनौती बनेगा कि नहीं? क्या इसका इनकी रहस्यमयी मृत्यु से कोई कनेक्शन तो नहीं? क्या केवल यह संयोग है कि देश के दो होनहार वैज्ञानिक उसी समय मृत्युलोक को प्राप्त हुए, जब परमाणु राष्ट्र बनने के मुहाने पर था – एक हवाई दुर्घटना में और एक हृदयाघात से?

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