हाल ही में अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी की ताइवान यात्रा के बाद चीन ने ताइवान क्षेत्र में अपने सैन्य अभ्यास को तेज कर दिया है. यदि युद्ध होता है तो केवल चीन और ताइवान का ही नुकसान नहीं होगा बल्कि समस्त विश्व के लिए यह परेशानी बन सकता है क्योंकि ताइवान विश्व के सेमीकंडक्टर मार्केट का 50 प्रतिशत नियंत्रित करता है. चीन और ताइवान मुद्दे पर भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने एक प्रेस वार्ता में कहा, “कई अन्य देशों की तरह भारत भी इसे लेकर (ताइवान और चीन के बीच बढ़ रहा तनाव) चिंतित है. हम दोनों पक्षों से संयम बरतने, यथास्थिति को बदलने के लिए एकतरफा कार्रवाई से बचने, तनाव कम करने और क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनाए रखने के प्रयासों का आग्रह करते हैं.”
विदेश मंत्रालय (MEA) ने चीन और ताइवान से संयम बरतने का आह्वान करते हुए कहा कि भारत ताइवान के घटनाक्रम से चिंतित है. ANI की एक रिपोर्ट के अनुसार, वन चाइना पॉलिसी पर भारत की स्थिति पर एक सवाल के जवाब में बागची ने कहा, “इसमें भारत की प्रासंगिक नीतियां प्रसिद्ध और सुसंगत हैं और उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं है.”
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भारत और वन चाइना पॉलिसी
ध्यान देने वाली बात है कि आखिरी बार भारत ने ‘वन चाइना पॉलिसी’ पर आज से 17 वर्ष पहले वर्ष 2005 में बात की थी जब अपनी भारत यात्रा के दौरान, तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम, भैरों सिंह शेखावत और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की थी.
उस समय जिन मुद्दों पर बातचीत हुई उनमें सबसे अधिक ध्यान देने योग्य यह है कि भारतीय पक्ष ने तब स्वीकार किया था कि उन्होंने तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र को चीन जनवादी गणराज्य के क्षेत्र के हिस्से के रूप में मान्यता दी और तिब्बतियों को भारत में चीन विरोधी राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया. साथ ही भारतीय पक्ष ने तब यह भी स्वीकारा कि भारत यह मानने वाले पहले देशों में से एक था कि ‘एक चीन’ है और उसकी ‘एक चीन नीति’ यानी वन चाइना पॉलिसी अपरिवर्तित रहेगी. उस समय भारत ने चीन के इस पॉलिसी का समर्थन कर दिया और चीन तब से ही इसका फायदा उठाते रहा है. हालांकि, अब स्थिति बदल गई है.
India skips specific mention of 'One China'. In response to a question, MEA spokx says, 'India's relevant policies are well known and consistent. They do not require reiteration' https://t.co/TJCX4zNiSw
— Sidhant Sibal (@sidhant) August 12, 2022
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि वर्ष 2005 के संयुक्त बयान के बाद भारत ने फिर कभी ‘एक चीन’ का ज़िक्र नहीं किया. साथ ही इस समय भी जिस तरह भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने ‘एक चीन’ जैसे शब्दों को प्रेस वार्ता के दौरान बोलने से परहेज किया है उससे ऐसा प्रतीत होता दिख रहा है कि भारत चीन के इस सिद्धांत और वन चाइना पॉलिसी के अपने समर्थन को ठंडे बस्ते में डाल रहा है. ऐसा करना और कहना पूर्ण रूप से इसलिए भी गलत नहीं होगा क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह चीन भारत के लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश की सीमाओं में घुसपैठ कर भूमि अधिग्रहण करने की कोशिश कर रहा है, उसके बाद यह कैसे संभव है कि भारत उसका समर्थन करे? साथ ही, जब भी कश्मीर का मुद्दा उठता है तो चीन के शब्द पाकिस्तान के समर्थन में ही होते हैं तो जब चीन ही ”एक भारत” का समर्थन नहीं कर सकता तो वह भारत से ‘एक चीन’ पर समर्थन कब तक और कैसे ले सकेगा?
क्या है वन चाइना पॉलिसी?
ताइवान को लेकर चीन इतना बेचैन क्यों है, इसके लिए पहले चीन की वन चाइना पॉलिसी को समझना होगा. वर्ष 1949 में पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) ने वन चाइना पॉलिसी बनाई. इसमें न सिर्फ ताइवान को चीन का हिस्सा माना गया बल्कि जिन जगहों को लेकर उसके अन्य देशों के साथ टकराव थे, उन्हें भी चीन का हिस्सा मानते हुए अलग पॉलिसी बनी थी. अंतरराष्ट्रीय मंच पर चीन इन हिस्सों को प्रमुखता से अपना बताता रहा है. इस पॉलिसी के तहत मेनलैंड चीन और हांगकांग-मकाऊ जैसे दो विशेष रूप से प्रशासित क्षेत्र भी आते हैं. चीन स्वशासित ताइवान को अपना क्षेत्र होने का दावा करता है और द्वीप पर जाने वाले विदेशी राजनेताओं के खिलाफ मुखर भी रहता है लेकिन ताइवान चीन के दावे को शुरु से ही खारिज करता आया है. वहां का अपना संविधान भी है. चीन की कम्युनिस्ट सरकार ताइवान को अपने देश का हिस्सा बताती है. चीन इस द्वीप को फिर से अपने नियंत्रण में लेना चाहता है.
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