‘कुछ तो सोचो मुसलमान हो , काफिरों को ना घर में बैठाओ’ गाने वाले नुसरत फतेह अली खान का सच जान लीजिए

प्यारे हिंदुओं! आपके नुसरत फतेह अली खान साहब आपसे कुछ कहना चाहते हैं!

राहत फतेह अली खान

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कितने भोले और नादान हैं हम सनातनी, इतिहास ने अनंत उदाहरण दिए, तराइन से पानीपत तक परंतु न तब कुछ सीखा न आज कुछ सीखना चाह रहे हैं। वर्षों पहले भी एक चलचित्र सरफ़रोश में गुलफाम हसन के माध्यम से चेतावनी मिली कि सीमा के उस पार से कलाकार के नाम पर चंदन पर लिपटे भुजंग समान लोग इस देश में पधारते हैं जो खाएंगे यहां का पर गाएंगे सदैव उन्हीं का जो इस देश का और मानवता का अहित चाहेंगे। इस लेख में हम परिचित होंगे प्रख्तात संगीतकार नुसरत फतेह अली खान के उस स्वरूप से, जिसे देखकर आप भी कंपायमान हो उठेंगे और उससे परिचित होकर आप भी सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि आखिर इतनी घृणा किसी में कैसे हो सकती है?

हाल ही में नुसरत फतेह अली खान का एक वर्षों पुराना गीत सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा है। इसके दो बोल ही आपके रक्त में उबाल लाने के लिए पर्याप्त होंगे, “कुछ तो सोचो, मुसलमान हो तुम, काफिरों को न घर में बैठाओ”

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ये वही नुसरत फतेह अली खान हैं, जिनका परिवार जालंधर में बसा हुआ था और जिनके गीतों पर आज भी देश के युवा गुनगुनाते हुए दिखाई देते हैं, चाहे वह ‘मेरे रश्के कमर’ हो, ‘तेरे बिन नहीं लगदा’ हो, ‘नित खैर मंगा’ हो, ‘मेरा पिया घर आया’ हो या ‘दूल्हे का सेहरा’ हो। और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सोचते हैं कि अरे नहीं नहीं, नुसरत साब ने कहा है तो सही ही होगा। ऐसे में इन्हीं मौलानाओं की जुबानी आपको स्पष्ट बता दें कि काफिर का स्पष्ट मतलब होता है जो अल्लाह को न माने यानी गैर मुसलमान, चाहे वह हिन्दू हो, सिख हो, बौद्ध हो, पारसी हो, या फिर ईसाई।

नुसरत फतेह अली खान के इस गीत के मुख्य बोल कुछ इस प्रकार हैं

“कुछ तो सोचो मुसलमान हो तुम,

काफिरों को न घर में बैठाओ,

लूट लेंगे ये ईमां हमारा,

इनके चेहरे से गेसू हटाओ!”

ये कुछ कुछ जाना पहचाना सा नहीं लगता? अरे इसी नीति पर सदियों पूर्व अलाउद्दीन खिलजी के खासमखास राजदरबारी अमीर खुसरो ने वो गीत लिखा, जिसे आज भी कई भोले हिन्दू गुनगुनाते हैं और मदमस्त होकर गाते भी हैं। कसम खाइए कि आपने कभी ‘छाप तिलक’ गीत को सुना नहीं होगा या नहीं गाया होगा। सब खुसरो मियां की ही तो देन है जबकि वे खुलेआम काफिर यानी कि गैर मुस्लिमों का उपहास उड़ाते थे और उन्हीं के पदचिन्हों पर चल रहे थे नुसरत फतेह अली खान।

परंतु नुसरत फतेह अली खान का रिकॉर्ड काफी पुराना रहा है जिसके लिए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की भी विशेष कृपा रही है परंतु उनके बारे में बाद में। नुसरत फतेह अली खान पर जो भारतीय फिल्म इंडस्ट्री विशेष कृपा बरसाती थी, वह न केवल उनसे मोटी रकम वसूलते थे बल्कि वो इतने कृतघ्न थे कि बॉलीवुड के कुकर्मों के पीछे सम्पूर्ण भारत को अपमानित भी करते थे। विश्वास नहीं होता तो इस क्लिप को ही देखिए –

https://twitter.com/taimoorze/status/860888654759284737

इस क्लिप में नुसरत फतेह अली खान का एजेंडा स्पष्ट था कि भारतीय संगीत उद्योग केवल कॉपी करने के लिए ही बना है। यानी गलती बॉलीवुड की पर दोष सम्पूर्ण भारत के संगीतज्ञों और बाकी संगीतकारों को। परंतु आपको क्या लगता है, ये ऐसा पहली बार हुआ है? हम तो राहत फतेह अली खान से लेकर अली ज़फ़र तक के फैन रहे हैं, जिन्होंने खाया भारत का परंतु निष्ठा सदैव पाकिस्तान और उसके कट्टरपंथी विचारधारा के प्रति दिखाई। और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, उन्हें कैसे भूल सकते हैं? उनके क्रांतिकारी गीत ‘हम देखेंगे’ को आज भी JNU की वामपंथी बिरादरी गुनगुनाती है परंतु वास्तविक गीत के बोल पर ध्यान दें तो आप भी समझेंगे क्या जहर है ये गीत।

“जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उठेगा अन-अल-हक़ का नारा”..

ये अनल-हक क्रांति का नारा है या कट्टरपंथ को भड़काने का नारा? अब आप स्वयं बताइए, ये क्रांति का गीत है या इस्लाम का महिमामंडन करने वाला गीत है? अगर फैज़ अहमद फैज़ वास्तव में क्रांतिकारी थे जैसे वो आयुपर्यंत दावा ठोंकते थे तो उन्होंने भारत के विभाजन का विरोध क्यों नहीं किया? उन्होंने पाकिस्तान में ही रहना क्यों पसंद किया? वो कहते हैं न, हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और। ऐसे में नुसरत फतेह अली खान के इस वायरल क्लिप ने इस बात को पुनः सिद्ध किया है कि कुछ लोगों की प्रकृति कभी नहीं बदलती, बस हम ही लोग नादान है जो ऐसे लोगों को आदर्श मान लेते हैं और इन्हे सर आँखों पर बिठा लेते हैं!

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