बंगाल का पतन हो चुका है!
बंगाल किसी योग्य नहीं!
बंगाल की संस्कृति विनाश की ओर अग्रसर है!
बंगाल में अब पहले जैसे लड़ाके नहीं!
ऐसे नाना प्रकार के कथन और तथ्य आपने कहीं न कहीं अवश्य देखे, पढ़े और सुने होंगे। यह बंगाल के नैतिक पतन का सूचक है, जो सिद्ध करता है कि किस प्रकार से आज बंगाल भारत में अपनी धाक और अपनी प्रतिष्ठा खोता जा रहा है। परंतु एक समय ऐसा भी था जब बंगाल में ऐसा कुछ भी नहीं था। यूं ही नहीं कहा जाता था कि “व्हाट बंगाल थिंक टुडे, इंडिया थिंक्स टुमॉरो” यानी जो बंगाल आज सोचता है, वह भारत बाद में सोचता है। सन् 1857 के क्रांति की नींव भी कलकत्ता के बैरकपुर छावनी में ही तो पड़ी थी।
टीएफआई प्रीमियम में आपका स्वागत है। यह कथा है बंगाल के उन वीरों की जिनके कार्यों को आज तक सबसे छिपाकर रखा गया। इनमें से अधिकतर की आयु सुनकर आप चकित हो जाएंगे कि ये इतनी कम आयु के होकर इतने साहसी कैसे थे। परंतु आप भूल जाते हैं कि यह वही बंगाल हैं, जहां कभी सम्राट शशांक भी शासन करते थे और जिन्होंने हर्षवर्धन जैसे दंभी शासकों को भी दिन में तारे दिखाए थे। यह कथा है बंगाल बॉयज की जिन्होंने क्रांति और स्वतंत्रता की एक नई परिभाषा रच दी थी।
इसकी उत्पत्ति हुई थी 19वीं शताब्दी में जब भगिनी निवेदिता के सानिध्य में दीक्षा प्राप्त करते हुए एक अधिवक्ता बैरिस्टर प्रमथनाथ मित्र ने युवाओं हेतु एक व्यायामशाला खोलने का निर्णय लिया। इसी विचार से उन्होंने विप्लवी दल के गठन का संकल्प लिया। २४ मार्च १९०२ को वो सतीशचन्द्र बसु द्वारा स्थापित भारत अनुशीलन समिति के अधिकर्ता निर्वाचित हुए। प्रमथनाथ इस समिति का आर्थिक दायित्व संभाल रहे थे। वो अनुशीलन समिति की ढाका शाखा के भी निदेशक निर्वाचित हुए थे। ढाका अनुशीलन समिति के पुलिनबिहारी दास इनकी प्रेरणा से ही विप्लवी बने थे।
१९०६ ई में प्रमथनाथ मित्र “निखिल बङ्ग बैप्लबिक समिति” के तथा कलकाता के सुबोध मलिक के घर से चलने वाली “निखिल बङ्ग बिप्लबी सम्मेलन” के सभापति थे। वो बंगालियों के शारीरिक व्यायाम पर बहुत बल देते थे। उसके बाद वो श्री अरबिंदो के संपर्क में आये और जिसके बाद उनके मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ विद्रोह की भावना और भी प्रबल हो गयी। महर्षि अरबिंदो की प्रेरणा से उन्होंने ‘युगांतर’ नामक गुप्त संगठन बनाई। यह संस्था नौजवानों में बहुत मशहूर थी। युगांतर की कमान यतींद्रनाथ मुखर्जी यानी बाघा जतिन ने स्वयं संभाली।
1905 में बंगाल विभाजन के बाद देश में उथल-पुथल शुरू हो चुकी थी। अंग्रेजों के खिलाफ़ जनता का आक्रोश जितना बढ़ रहा था ब्रिटिश हुकूमत का उत्पीड़न भी उतना ही तीव्र होता जा रहा था। ऐसे में बाघा जतिन ने ‘आमरा मोरबो, जगत जागबे’ का नारा दिया, जिसका मतलब था कि ‘जब हम मरेंगे तभी देश जागेगा!’ उनके इस साहसी कदम से प्रेरित होकर बहुत से युवा युगांतर पार्टी में शामिल हो गये।
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जल्द ही युगांतर के चर्चे भारत के बाहर भी होने लगे। अन्य देशों में रह रहे क्रांतिकारी भी इस पार्टी से जुड़ने लगे। अब यह क्रांति बस भारत तक ही सिमित नहीं थी बल्कि पूरे विश्व में अलग-अलग देशों में रह रहे भारतीयों को जोड़ चुकी थी। बाघा जतिन ने सशस्त्र तरीके से ‘पूर्ण स्वराज’ प्राप्त करने में भी कोई हिचक नहीं दिखाई। इस सशस्त्र आंदोलन का सर्वप्रथम असर 1908 में दिखा, जब एक निर्दयी अंग्रेज जज किंग्सफोर्ड का वध करने की व्यवस्था की गई परंतु योजना पूरी तरह सफल नहीं हुई और दो अंग्रेज स्त्रियां मारी गई। साम्राज्यवादियों की कार्रवाई में युवा क्रांतिकारी खुदीराम बसु पकड़े गए और उनके साथी प्रफुल्ल कुमार चाकी ने अपने प्राण त्याग दिए।
वहीं, बरिन कुमार घोष, हेमचन्द्र कानूनगो, उल्लासकर दत्ता इत्यादि जैसे अनेक क्रांतिकारियों को हिरासत में लिया गया क्योंकि नरेन्द्रनाथ गोस्वामी ने उसी समय विश्वासघात करते हुए अंग्रेज़ों को उनके सभी ठिकानों की सूचना दे दी थी। परंतु न बंगाली क्रांतिकारियों का जोश ठंडा हुआ और न ही वे अपने इस अपमान को भूल पाए। उन्होंने ऐसे विश्वसाघाती को दंड देने का निर्णय लिया। बहुत कम लोगों को ये बात पता होगी परंतु अंग्रेज़ों की सबसे सुरक्षित कारागारों में से एक कलकत्ता के अलीपुर सेंट्रल जेल के विशेष यूरोपियन वॉर्ड से नरेंद्र गोस्वामी को जब कोर्ट ले जाया जा रहा था तो उसे मार्ग में ही कनाइलाल दत्ता और सत्येन्द्रनाथ बसु ने सभी को चकित करते हुए गोलियों से भून दिया! ऐसा था हमारे वीर क्रांतिवीरों का साहस! क्वेंटिन टैरेंटिनो के प्रसिद्ध ‘Inglourious Basterds’ का वास्तविक स्वरूप हमारे भारत में उस समय विद्यमान था, जहां क्रांतिकारी अपने हिसाब से नियम तय करते थे और किसी भी साम्राज्यवादी और कुलद्रोही को ठोक सकते थे तथा वे चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते थे।
इन्हीं वीरों में शिरोमणि थे जतीन्द्र नाथ मुखर्जी, जिन्हें लोग ‘बाघा जतिन’ भी कहते थे और जो संयोगवश गिरफ्तार नहीं हुए थे। उन्होंने गुप्त तरीके से देशभर के क्रांतिकारियों को जोड़ना शुरू किया। वो बंगाल, बिहार, उड़ीसा और संयुक्त प्रांत के विभिन्न शहरों में क्रांतिकारियों से संपर्क स्थापित करने में लग गये। यूं समझ लीजिए कि जो कार्य HRA के लिए चंद्रशेखर आज़ाद करते थे, वही कार्य युगांतर के लिए यतींद्रनाथ मुखर्जी करते थे। दोनों के विचार भी अधिक भिन्न नहीं थे और वो अंतिम श्वास तक देश की स्वाधीनता के लिए लड़ते रहे।
क्या आपको पता है कि रास बिहारी बसु, यतींद्रनाथ मुखर्जी से प्रभावित होकर क्रांति आंदोलन में जुड़े थे? 27 जनवरी,1910 को पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया था लेकिन उनके खिलाफ़ कोई ठोस प्रमाण न मिलने के कारण कुछ दिनों के बाद उन्हें छोड़ दिया गया। जेल से अपनी रिहाई के बाद बाघा जतिन ने राजनीतिक विचारों और विचारधाराओं के एक नए युग की शुरूआत की। उनकी भूमिका इतनी प्रभावशाली रही कि क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने बनारस से कलकत्ता स्थानांतरित होकर यतींद्रनाथ मुखर्जी के नेतृत्व में काम करना शुरू कर दिया था।
दिल्ली में जार्ज पंचम के १२ दिसंबर १९११ को होने वाले दिल्ली दरबार के बाद जब वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की दिल्ली में सवारी निकाली जा रही थी तो उसकी शोभायात्रा पर वायसराय लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाने में रासबिहारी की प्रमुख भूमिका रही थी। अमरेन्द्र चटर्जी के एक शिष्य बसन्त कुमार विश्वास ने वेश बदलकर उन पर बम फेंका परंतु उनका निशाना चूक गया। इसके बाद ब्रिटिश पुलिस रासबिहारी बोस के पीछे लग गयी परंतु उन्होंने चतुराई से देहरादून की ट्रेन पकड़ ली और ऑफिस में इस तरह काम करने लगे जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। ये तो कुछ भी नहीं है, अगले दिन ही बसु ने देहरादून के नागरिकों की एक सभा बुलायी, जिसमें उन्होंने वायसराय पर हुए हमले की निंदा भी की। इस प्रकार उन पर इस षड्यंत्र और कांड का प्रमुख सरगना होने का किंचित मात्र भी संदेह किसी को नहीं हुआ।
इस आंख मिचौली के खेल पर ‘बाघा जतिन’ की वीरगति के पश्चात कुछ वर्षों तक विराम लगा परंतु वह तूफान से पूर्व की शांति थी। उसके पश्चात 1928 के कांग्रेस अधिवेशन में जो हुआ उससे पता चल गया कि बंगाल क्रांति का पर्याय क्यों है। जब कांग्रेस हाईकमान के नेता बंगाल पहुंचें तो वे आश्चर्यचकित रह गए। सेवादल की सादी वर्दी के स्थान पर कांग्रेस के स्वयंसेवक सैनिक वर्दी में उनका स्वागत हेतु तैयार थे, जिनकी अगुआई स्वयं सुभाष चंद्र बोस कर रहे थे, जिन्होंने एक आर्मी जनरल जैसी वर्दी पहन रखी थी। इस क्रांति दल का नाम था ‘Bengal Volunteers’ जिसमें मेजर सत्या गुप्ता और मेजर यतीन्द्रनाथ दास जैसे स्वयंसेवक प्रमुख थे।
यतीन्द्रनाथ दास? ये नाम सुना सुना सा नहीं लग रहा? जी हां, ये वही यतीन्द्रनाथ दास हैं जिन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों को केन्द्रीय विधान परिषद में अत्याचारी प्रावधानों के विरुद्ध प्रदर्शन के लिए आवश्यक बम बनाने की ट्रेनिंग दी थी और जिन्होंने जेल के कैदियों के अधिकारों हेतु अंतिम श्वास तक लड़ाई लड़ी। परंतु कथा तो यहां से मात्र प्रारंभ होती है। भगत सिंह ने जो चिंगारी सुलगाई, उसे ज्वाला में भड़काते हुए Bengal Volunteers ने क्रांति को एक नया रूप दिया, जिसकी नींव चट्टोग्राम यानी चटगांव (Chittagong) में पड़ी थी। एक आम से दिखने वाले स्कूल अध्यापक सूर्य कुमार सेन, जिन्हें लोग प्रेम से मास्टर दा बुलाते थे, उन्होंने आयरलैंड की प्रसिद्ध ईस्टर क्रांति से प्रेरित होकर भारत में ऐसी ही एक क्रांति लाने का प्रयास किया। आप उनकी जिजीविषा का अनुमान इसी बात से लगा सकते हैं कि उनके दल का सबसे युवा सदस्य मात्र 13 वर्ष का एक विद्यार्थी था!
18 अप्रैल 1930 को मात्र कुछ विद्यालय के छात्रों के साथ इस साधारण से अध्यापक ने वो कर दिया जो बड़े से बड़े नेता नहीं सोच सके। उन्होंने एक पूरे के पूरे नगर को ब्रिटिश शासन से लगभग एक सप्ताह तक मुक्त रखा, वो भी तब, जब ब्रिटिश साम्राज्य का वैभव अपने चरम पर था। इस क्रांतिकारी अध्यापक का प्रभाव ऐसा था कि अंग्रेज़ उनकी छाया तक नहीं पड़ने देना चाहते थे। उन्हें जब मृत्युदंड दिया गया तो उन्हें जो यातना दी गई, उसे देख तो मुगल और तुर्क भी एक बार को सयाने प्रतीत होंगे! परंतु उनके बलिदान व्यर्थ नहीं गए। सूर्य कुमार सेन के साथ विश्वासघात करने वाले नेत्र सेन को मास्टर दा के अनुयायी, किरण सेन ने ऐसा प्रत्युत्तर दिया कि कोई सोच भी नहीं सकता। मृत्युदंड से केवल तीन दिन पूर्व 9 जनवरी को नेत्र सेन के घर में घुसकर किरण सेन ने अपने मित्र सहित नेत्र सेन का सर धड़ से अलग कर दिया, मानो देवाधिदेव महादेव ने दुष्टों के विनाश हेतु अपने भक्त को स्वयं आशीर्वाद दिया हो।
उसी समय एक और क्रांतिकारी का उद्भव हुआ, जिनका नाम था- बिनोय कृष्ण बसु। ये चले तो थे डॉक्टर बनने परंतु धर्म और नीति ने उन्हें किसी और ही मार्ग पर ला दिया। वो ‘Bengal Volunteers’ के सदस्य तो थे ही और अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने चटगांव संग्राम को बढ़ावा भी दिया। बिनोय कृष्ण उन चंद क्रांतिकारियों में थे जिन्हें कोई नहीं पकड़ पाया परंतु उनके मन में कुछ और ही था। शीघ्र ही बिनोय ने एक स्थानीय इकाई ढाका में प्रारंभ करते हुए शुरू उसका नाम बंगाल वॉलेंटियर्स एसोसिएशन ढाका रखा था। बाद में बंगाल वॉलेंटियर्स ज्यादा क्रांतिकारी विचारधारा वाली बन गयी और बंगाल में पुलिस अत्याचार के विरुद्ध (खासकर कारावास में राजनीतिक बंदियों के साथ अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध) “ऑपरेशन फ्रीडम” नामक योजना बनायीं।
अगस्त १९३० में इस क्रांतिकारी संगठन ने इंस्पेक्टर जनरल लोमैन के हत्या की योजना बनायीं, जो भारतीय कैदियों के प्रति अपनी क्रूरता के लिए कुख्यात थे। वो एक बीमार वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को देखने जाने वाले थे। २९ अगस्त १९३० को सुरक्षा घेरा लांघते हुए बिनोय (जो साधारण बंगाली वस्त्र पहने हुए थे ) ने ताबड़तोड़ गोली बरसाई और लोमेन ने वहीं दम तोड़ दिया एवं पुलिस सुपरिटेंडेंट हॉडसन बुरी तरह से घायल हो गए।
बिनोय कृष्ण चंद भी अजब प्राणी थे। उनकी पहचान कभी भी गोपनीय नहीं थी। एक कॉलेज मैगज़ीन से उनका चित्र लेकर चारो और लगा दिया गया। अंग्रेज़ सरकार ने बिनोय पर १०००० रूपए का इनाम रखा। परंतु उन्होंने उसी का लाभ उठाया और अंग्रेजों को सार्वजनिक चुनौती देने का निर्णय किया। अब उनका अगला लक्ष्य था आईजी एनएस सिम्पसन, जो लोमैन से भी अधिक खूंखार एवं अधिक रक्तपिपासु था। 8 दिसंबर 1930 को बिनोय, बादल गुप्ता एवं दिनेश गुप्ता के साथ राइटर्स बिल्डिंग चल पड़े, जो ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का एक महत्वपूर्ण गढ़ था।
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क्रांतिकारियों ने यह निश्चय किया कि वे सिर्फ कर्नल सिम्पसन को ही नहीं मारेंगे बल्कि सेक्रेटेरिएट बिल्डिंग (राइटर्स बिल्डिंग) पर धावा बोल कर वे ब्रिटिश अधिकारियो के मन में भय भी डाल देंगे। ८ दिसंबर, १९३० को यूरोपीय वस्त्र पहने बादल गुप्ता और दिनेश गुप्ता के साथ मिलकर बिनोय राइटर्स बिल्डिंग के अंदर घुसे और कर्नल सिम्पसन की गोली मार कर हत्या कर दी। इस पर ब्रिटिश पुलिस ने भी गोलियां चलानी शुरू कर दी और उसके बाद इन तीन क्रांतिकारियों और पुलिस के बीच खूब गोलीबारी हुई। कुछ पुलिस अफसर जैसे ट्वीनेम, नेल्सन और प्रेन्टिस इस गोलीबारी में बुरी तरह से घायल हुए।
लेकिन जल्द ही पुलिस ने उन्हें चारो तरफ से घेर लिया। वे पुलिस के हिरासत में नहीं आना चाहते थे इसलिए बादल ने पोटैशियम साइनाइड ले लिया तथा बिनोय और दिनेश ने खुद को गोली मार दी। बिनोय को हॉस्पिटल ले जाया गया, जहां १३ दिसंबर १९३० को उनकी मृत्यु हो गयी। बिनोय, बादल और दिनेश के इस निस्वार्थ बलिदान ने कई और क्रांतिकारियों को प्रेरणा दी। भारत की आज़ादी के बाद कोलकाता के डलहौजी स्क्वायर का नाम बदल कर बिनोय बादल दिनेश बाग़ कर दिया गया।
ध्यान देने वाली बात है कि यह संग्राम ऐसे ही नहीं चला था। उन्हें सर्वाधिक संरक्षण दो भ्राता देते थे और ये कोई और नहीं कलकत्ता के सुप्रसिद्ध बोस भ्राता थे – शरत चंद्र बोस एवं उनके कनिष्ठ भ्राता सुभाष चंद्र बोस। अपने युवावस्था में तो सुभाष चंद्र ने अपने ही प्रोफेसर को बुरी तरह पीटा था क्योंकि वह साम्राज्यवाद के नशे में चूर होकर भारतीय संस्कृति को सार्वजनिक तौर पर अपमानित कर रहा था। इसके कारण उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रेज़िडेंसी कॉलेज से निष्कासित भी किया गया, जिसके बाद उन्होंने स्कॉटिश मिशन चर्च कॉलेज से शिक्षा पूर्ण की।
परंतु सुभाष चंद्र बोस की अग्निपरीक्षा हुई 1940 में, जब उन्हें साम्राज्यवादियों का विरोध करते हुए हिरासत में लिया गया। भूख हड़ताल के कारण उनकी अवस्था बद से बदतर हो गई, जिसके पीछे उन्हें हाउस अरेस्ट में रखा गया परंतु वे अंग्रेज़ों की आंखों में धूल झोंकते हुए भाग निकले और इसके पश्चात क्रांति की ऐसी लहर उठी जिसे रोकना ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के लिए लगभग असंभव था। परंतु इस क्रांति को स्वतंत्र भारत में कोई मोल नहीं मिला और शनै शनै कई क्रांतिकारी अपने आदर्शों से भी विमुख हुए और जो बंगाल कभी क्रांति और धर्म का प्रतीक था, वो विनाश का पर्याय बन गया!
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