गुमनाम नायक: रानी दुर्गावती की कहानी, जिन्होंने मुगलों की गिरफ्त की बजाय स्वयं का बलिदान कर दिया

इस कहानी को हर भारतीय को जानना चाहिए!

Raani Durgawati

Source- TFIPOST.in

हम अपना इतिहास उठाकर देखेंगे तो इसे वीरगाथाओं से भरा पाएंगे। ऐसे ना जाने कितने वीरे थे, जिन्होंने देश के लिए लड़ते-लड़ते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। केवल वीर ही नहीं ऐसी कई वीरंगनाएं भी रही, जिन्होंने देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। रानी लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, रानी चेनम्मा जैसी ढेरों वीरांगनाओं ने युद्ध में अपने शौर्य का परचम लहराया। परंतु दुर्भाग्य की बात यह रही कि हम अपने वीरांगनाओं के योगदान की आज बात तक नहीं करते। ऐसा इसलिए क्योंकि हम इनकी कहानियों से आज तक अनजान हैं। इन वीरांगनाओं की वीरगाथाओं से हमें दूर ही रखा गया।

आज हम आपके लिए ऐसी ही एक वीरंगना रानी दुर्गावती की कहानी लेकर आए हैं, जिसके बारे में जानकर आपका ह्दय प्रफुल्लित हो उठेगा और आप गर्व करेंगे कि हमारे देश में ऐसी भी वीरांगनाएं रही, जो वास्तव में नारी शक्ति को मिसाल बनाती हैं। रानी दुर्गावती उन महानतम वीरांगनाओं में से एक थीं, जिन्होंने अपनी मातृभूमि और आत्मसम्मान हेतु अपने प्राणों का बलिदान दे दिया, परंतु वे किसी के आगे झुकी नहीं। रानी ने अपने जीवनकाल में कई युद्ध लड़े। वे अपनी आखिरी सांस तक मुगलों से लड़ती रही, परंतु उन्होंने कभी भी हार नहीं मानी।

कालिंजर के राजा कीर्ति सिंह चंदेल के घर रानी दुर्गावती का जन्म चंदेल 5 अक्टूबर 1524 में हुआ था। दुर्गाष्टमी के दिन जन्म लेने के कारण ही उनका नाम दुर्गावती रखा गया। वे अपने पिता की इकलौती संतान थीं। वे उसी चंदेल वंश से संबंध रखती थी, जिन्होंने मोहम्मद ग़ज़नवी को रोका था। बचपन से ही दुर्गावती वीरांगना थी। उन्होंने बचपन से ही युद्धकलाओं जैसे घुड़सवारी, तीरंदाजी, तलवारबाजी में निपुणता हासिल कर ली थी। तीर और बंदूक से वो सटीक निशाना लगाने में भी वे माहिर थीं।

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रानी दुर्गावती ने बड़ी चतुराई से मात दी

दुर्गावती जब 18 साल की थी, तो वर्ष 1542 में गोंड राजवंश के राजा संग्राम शाह के सबसे बड़े सुपुत्र दलपत शाह से उनका विवाह करा दिया गया। वर्ष 1545 में रानी दुर्गावती ने वीर नारायण को जन्म दिया। 1550 में दुर्भाग्यवश उनके दलपत शाह की असामयिक मृत्यु हो गई, जिसके बाद रानी दुर्गावती ने गोंडवाना की बागडोर अपने हाथों में ली।

रानी दुर्गावती ने तीन बार मुगल शासकों का युद्ध में बड़ी ही बहादुरी से सामना किया। मालवा के सुल्तान बाजबहादुर ने वर्ष 1556 में गोंडवाना पर हमला किया, जहां उसे रानी दुर्गावती के हाथों मुंह की खानी पड़ी। रानी ने हमले का चतुराई से जवाब दिया। युद्ध में रानी की सेना बड़ी ही बहादुरी से लड़ी, जिस कारण बाजबहादुर को हार का सामना करना पड़ा और रानी दुर्गावती विजयी हुईं। वर्ष 1562 में अकबर ने मालवा पर आक्रमण कर बाजबहादुर को परास्त कर दिया और वहां अपना कब्जा जमा लिया।

अकबर की नजरें अब गोंडवाना पर पड़ने लगी थी। वो गोंडवाना को हथियाना चाहता था। अकबर ने अपने सेनापति आसफ खान को गोंडवाना पर आक्रमण करने का आदेश दिया। एक विशाल सेना लेकर आसफ खान आक्रमण करने के लिए पहुंच गया। जहां एक तरफ आसफ खान की सेना आधुनिक अस्त्र-शस्त्र से प्रशिक्षत थी। तो वहीं दूसरी ओर रानी दुर्गावती की सेना छोटी होने के साथ ही पुराने परंपरागत हथियार से तैयार की हुई थी। बावजूद इसके रानी दुर्गावती ने बड़ी ही चतुराई से आसफ खान की सेना को मात दी। रानी ने अपनी सेना को नरई नाला घाटी की तरफ कूच करने का आदेश दिया।

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वीरांगना रानी दुर्गावती ने स्वयं के प्राणों की बलि देना सही समझा

जैसे ही मुगल सेना ने घाटी में प्रवेश किया रानी की सेना ने उस पर धावा बोल दिया। युद्ध के दौरान रानी की सेना के फौजदार अर्जुन सिंह मारे गए, जिसके बाद स्वयं रानी दुर्गावती युद्ध का नेतृत्व करने के लिए मैदान में उतर आईं। शाम होते होते रानी के सैनिकों ने मुगलों को खेदड़ने में कामयाबी हासिल की और इस लड़ाई में जीत रानी दुर्गावती की हुई। युद्ध में 3,000 मुगल सैनिक मारे गए, जबकि रानी की सेना को भी काफी क्षति पहुंची। परंतु आसफ खान अपनी हार को स्वीकार नहीं कर पाया और इससे तिलमिला उठा।

इसके बाद आसफ खान ने अगले ही दिन फिर विशाल सेना इकट्ठा की और बड़ी तोपों के साथ दोबारा रानी दुर्गावती पर हमला बोल दिया। इस बार रानी दुर्गावती अपने प्रिय सफेद हाथी सरमन पर सवार होकर युद्ध के मैदान में उतर आई। इस दौरान उनके साथ रानी के राजकुमार वीरनारायण भी थे। युद्ध के दौरान वीरनारायण घायल हो गए, जिसके बाद रानी ने उन्हें सुरक्षित स्थान पर भिजवा दिया। इसी दौरान रानी दुर्गावती तीर लगने की वजह से घायल हो गयी।

रानी को एक तीर उनके कान के पास आकर और दूसरा गर्दन के पास आकर लग गया। उन्होंने इन तीरों को बाहर निकाला, परंतु लहुलूहान होने की वजह से वे अचेत हो गई थीं। जब उन्हें होश आया, तो रानी ने देखा कि मुगलों की सेना उन पर भारी पड़ रही है। तब उनके सेनापतियों ने रानी दुर्गावती को सुरक्षित स्थान पर जाने की सलाह दी। परंतु युद्ध के मैदान से भागी नहीं। साथ ही उन्होंने यह भी सौगंध खा ली थी कि वे स्वयं को शत्रुओं के हाथों नहीं लगने देगी।

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रानी को जब यह आभास हो गया कि अब उनका जीत पाना संभव नहीं, तो उन्होंने अपने वजीर आधार सिंह को उनकी जान लेने को कहा। परंतु जब आधार सिंह ने ऐसा करने से इनकार कर दिया, तो रानी ने तलवार निकालकर अपने सीने में भोंक ली और अपने प्राणों की बलि दे दी। रानी के इरादे स्पष्ट थे कि वे ना तो युद्ध के मैदान से भागेगीं और ना ही दुश्मनों के हाथों मृत्यु पाएगी। 24 जून 1564 को रानी दुर्गावती वीरगति को प्राप्त हुई थी। वीरांगना रानी दुर्गावती की शौर्य से भरी इस वीरागाथा से हर भारतीय को परिचित होना चाहिए।

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