मैडम कहो या फिर सर कहो- अब मैडम-सर नहीं चलेगा

बड़े बदलाव के लिए छोटा-सा कदम!

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भारत हमेशा ही अपनी संस्कृति और सभ्यता के लिए जाना जाता हैं। हालांकि कई बाहरी संस्कृतियों के प्रभाव में आकर भारतीयों ने धीरे-धीरे अपनी संस्कृतियों को पीछे छोड़ दूसरी विरासतों को अपनाना शुरू कर दिया। भारत  को आज़ाद हुए 75 वर्ष हो चुके हैं। भले ही हम सभी लिंगों को एक सामान मानने की बात करते हो, परंतु देखा जाए तो आज भी कई मामलो में हम अपनी सोच का सही तरह से विकास नहीं कर पाए हैं। स्त्री द्वेष या लिंगवाद इनमें से एक है।

वैसे तो आज स्थिति बहुत बदल चुकी है और महिलाएं भी पुरुषों के समान बराबर अधिकार पाने लग गई हैं। बड़े बड़े पदों पर आज महिलाएं बड़ी जिम्मेदारी संभालती नजर आती हैं। अभी तक आपने यही देखा और सुना होगा कि चाहे महिला सांसद, उच्च पद पर कार्यरत महिला पुलिस अधिकारी या फिर डीएम और एसपी, इन सभी को संबोधित करने के लिए अधिकतर लोग ‘मैडम सर’, ‘साहेब’ या सिर्फ ‘सर’ जैसे शब्दों का प्रयोग करते आ रहे हैं। ये प्रथा इतनी ज्यादा आम है कि जिस पर किसी का भी ध्यान नहीं जाता। हालांकि अब समय आ गया है इसमें बदलाव करने का और भारतीय संसद ने इस दिशा में ऐतिहासिक निर्णय भी लिया है।

राज्यसभा में बड़ा बदलाव

दरअसल, राज्यसभा में होने वाली कार्यवाही के दौरान अक्सर ही ‘नो सर’ शब्द कानों में सुनाई देता था, जो अक्सर सदन में जवाब देने के समय बोला जाता है। इस संबंध में शिवसेना की राज्यसभा सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने 8 सितंबर को संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी को संबोधित करते हुए एक पत्र लिखा था , जिसमें उन्होंने ‘नो सर’ जैसे लिंग वाले शब्दों के इस्तेमाल में बदलाव का अनुरोध किया था।

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साथ ही उन्होंने जोशी से सांसदों को उनकी लैंगिक पहचान के मुताबिक ही संबोधित करने के निर्देश जारी करने की बात कही थी। प्रियंका चतुर्वेदी की मांग पर राज्यसभा सचिवालय ने इस शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगाने का बड़ा निर्णय लिया है।

छोटा कदम, लेकिन बड़ा अंतर

राज्यसभा के द्वारा चतुर्वेदी की इस तरह की गंभीर चिंताओं के जवाब में सभी को लिंग निष्पक्ष शब्दों में संबोधित करने और सत्रों में समावेशीता लाने की अनुमति प्रदान कर दी गई है। राज्यसभा सचिवालय ने कहा, “राज्यसभा में परंपरा, उचित प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियमों के अनुसार सदन में होने वाली सभी कार्यवाही सभापति को संबोधित की जाती है और संसदीय प्रश्नों के उत्तर भी उस कार्यवाही का एक भाग होता है। हालांकि अब मंत्रालयों को राज्यसभा में होने वाले अगले सेशन से संसदीय प्रश्नों के जेंडर न्यूट्रल उत्तर प्रस्तुत करने के लिए सूचित कर दिया जाएगा।”

शिवसेना सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने इस बदलाव पर अपनी प्रसन्नता जाहिर करते हुए प्रतिक्रिया में कहा कि हालांकि यह सभी को एक छोटा-सा बदलाव लग सकता है, लेकिन यह महिलाओं को संसदीय प्रक्रिया के दौरान मान्य प्रतिनिधित्व मिलने का लंबा रास्ता तय करेगा।

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राज्यसभा सचिवालय के इस निर्णय पर प्रियंका चतुर्वेदी ने ट्वीट कर अपनी प्रसन्नता जाहिर की और कहा- “छोटा कदम, बड़ा अंतर। मंत्रालयों से लेकर महिला सांसदों तक के सवालों के जवाब में संसद में पुरुष प्रधान भाषा को दूर करने के लिए राज्यसभा सचिवालय को धन्यवाद। अब से जवाब मंत्रालयों की ओर से जेंडर न्यूट्रल होंगे।”

ऐसा हो सकता है कुछ लोगों को यह बड़ी बात न लगती हो। कुछ भी कहकर संबोधित कर इससे भला क्या ही अंतर पड़ता है। परंतु देखा जाए तो इससे भी बहुत फर्क पड़ता है।

‘मैडम-सर’ और ‘साहब’ की संस्कृति

आपको एक वाक्य बताते हैं। बात तब की हैं जब मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में निर्मला सीतारमण रक्षा मंत्रालय का कार्यभार संभाल रही थीं। तब इस तरह की रिपोर्ट्स प्रकाशित हुईं थी कि भारत की पहली महिला रक्षा मंत्री को किस प्रकार संबोधित किया जाए? इसको लेकर सैनिक भी असमंजस में थे। ऐसे में सीतारमण को कई अलग-अलग शब्दों से संबोधित कर दिया गया था, जिनमें सबसे ज्यादा प्रयोग होने वाला शब्द ‘सर’ था। जवानों ने इस पर पूछा कि उन्हें क्या कहकर संबोधित करना चाहिए? जिस पर सीतारमण ने अपना जवाब दिया था कि “आप मुझे रक्षा मंत्री कहकर संबोधित कर सकते हैं।”

इस बात को और भी विस्तार से समझने के लिए अभी हाल की घटना को भी देख सकते हैं। हुआ कुछ यूं था कि दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान जस्टिस रेखा पल्ली एक वकील पर बहुत नाराज़ हो गई थी, क्योंकि वकील बार-बार जस्टिस को ‘सर’ कहकर संबोधित करते रहे। इस पर उन्होंने कहा- “मैं ‘सर’ नहीं हूं। मुझे आशा है कि आप इस बात को समझ सकते है।” इसके बाद वकील ने इसके उत्तर में कहा- “क्षमा करें, आप जिस कुर्सी पर विराजमान हैं ये उसकी वजह से ही है।” वकील के इस बात पर जस्टिस पल्ली भड़क गई और उन्होंने बड़े ही तीखे शब्दों में कहा कि अगर अभी भी आपको ऐसा लगता है कि यह कुर्सी सिर्फ साहबों के लिए है तो ये और भी बुरा है। यदि युवा सदस्य ही इस तरह का भेद करना बंद नहीं कर देते तो हम भविष्य के लिए क्या आशा करें?

वहीं यूपी पुलिस एसआईटी डीजी रेणुका मिश्रा ने इसको लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ अपने अनुभव साझा किए थे। उन्होंने बताया कि उन्हें भी सर, साहब, मैडम-सर के रूप में संबोधित किया गया है। उन्होंने कहा- “लोग उनको कभी देवी, कभी मां, कभी बहन बना देते हैं, जबकि पुरुष अधिकारियों के साथ ऐसा कभी भी नहीं होता है। उन्हें सब जूनियर भैया या भाईसाहब नहीं कहते हैं।”

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एमपी पुलिस के आईजी नर्मदापुरम में कार्यरत दीपिका सूरी ने इस पर कहा था कि “अगर सीनियर हैं तो सर हैं।   अगर आईजी मैडम है तो आईजी की पत्नी, लेकिन जब आईजी साहब हैं तो सिर्फ आईजी साहब हैं। उसके साथ केवल उनकी पोस्ट का जिक्र किया जाता है।”

बिहार की पहली महिला आईपीएस अधिकारी मंजरी जरुहर ने भी मैडम सर’ शीर्षक को लेकर एक किताब लिखी है जो एक महिला पुलिस अधिकारी के रूप में उनके संघर्ष के विषय में बताती है।

यह सबकुछ गहरे लिंगवाद और सामाजिक भेदभाव को दर्शाता है। इस पर सभी को गहराई से सोचने की आवश्कता है। वहीं संसद कार्यालय द्वारा लिए गए इस निर्णय को सकारात्मक रूप से लिया जाना चाहिए। इस फैसले को भारत के निम्नतम कार्यालयों और समाज में भी लागू होने की आवश्कता है, जिससे समाज को एक नयी दिशा मिले। राज्यसभा द्वारा लिया गया यह निर्णय हमारे भारत देश के लिए एक नयी पहल साबित हो सकती है।

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