चीन को यदि वैश्विक स्तर पर कमजोर रखना है तो पश्चिमी देशों के लिए यह आवश्यक है कि वे भारत को इंडो-पैसेफिक क्षेत्र में मजबूत करें और चीन व भारत के बीच के प्रत्येक मुद्दे पर भारत का साथ दें। अमेरिका से लेकर ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, आस्ट्रेलिया समेत कई देश लगभग इसी फॉर्मूले पर काम कर रहे हैं और अब जर्मनी भी इसी एजेंडे में शामिल हो गया है। भारत के साथ जर्मनी की सेना के संयुक्त सैन्य अभ्यास इस बात का स्पष्ट संकेत है कि चीन को लेकर जर्मनी आक्रामक है और वह इस मुद्दे पर भारत का समर्थन करता है। अब सवाल यह है कि आखिर वो कौन से कारण हैं जिसके चलते जर्मनी इंडो पैसेफिक में अपनी कूटनीति को भारत पर केंद्रित कर रहा है।
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पहले जर्मनी चीन का साथ देता था
एक वक्त था जब भारत और चीन के बीच जर्मनी दबे मुंह चीन का साथ देता था लेकिन अब स्थितियां बदलने लगी हैं और इसका वैश्विक कूटनीति पर एक बड़ा असर पड़ने वाला है। दरअसल, जर्मनी हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और भारत के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास करेगा। भारत में जर्मनी के राजदूत डॉ फ़िलिप एकरमैन ने कहा, “जर्मनी ने इंडो पैसिफिक में दिलचस्पी ली है और यह इस क्षेत्र में हमारी चिंता को दर्शाता है, हालांकि हम उम्मीद करते हैं कि ताइवान के साथ बढ़ते तनाव और ज्यादा नहीं होंगे। हम इंडो पैसिफिक में भारत के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास भी करने जा रहे हैं।”
गौरतलब है कि जर्मनी ने पिछले साल दक्षिण चीन सागर में एक बायर्न फ्रिगेट भेजा था, जिसे एशिया में चीन के क्षेत्रीय दावों के खिलाफ कड़े रुख के रूप में देखा गया था। हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में हुए बहुराष्ट्रीय सैन्य अभ्यास ‘पिच ब्लैक 2022’ में हिस्सा लेने के लिए जर्मन और भारतीय वायु सेना ने फाइटर जेट्स भेजे थे। जो यह दिखाता है कि जर्मनी का रुख लगातार भारत के प्रति नरम और चीन के प्रति आक्रोशित होता जा रहा है।
जर्मनी के राजदूत एकरमैन ने कहा कि एलएसी के पार भारत को जिस तनाव का सामना करना पड़ा वह यूक्रेन के दौर से अलग था। उन्होंने कहा कि हम सीमा के उत्तरी हिस्से में उस समस्या से अवगत हैं जिसका भारत सामना कर रहा है और स्पष्ट रूप से उस पर काबू पा सकता है। चीन भी जर्मनी के इस रुख से काफी खफा है कि आखिर भारत और चीन के बीच तनाव पर जर्मनी ने बयान क्यों दिया।
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अब सवाल यह है कि आखिर जर्मनी इस मुद्दे पर इतना आक्रामक क्यों है तो चलिए उन तीन कारणों को भी समझ लेते हैं।
पहला कारण
रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते जहां यूक्रेन से जर्मनी का व्यापार ठप हो गया है तो वहीं दूसरी तरफ इसका फायदा चीन ने उठाया है। यूक्रेनी प्रोडक्ट्स के बजाए जर्मनी में चीनी उत्पादों की अधिकता हो रही है जो चीन के लिए तो एक सहज स्थिति है लेकिन यह जर्मनी के लिए बड़ा खतरा है। ऐसे में जर्मनी नहीं चाहता कि आर्थिक रूप से उसकी चीन पर निर्भरता बढ़े या फिर वह चीन के किसी भी जाल में फंसे।
दूसरा कारण
सबको पता है कि जासूसी के मामले में रूस अन्य राष्ट्रों से कहीं आगे है लेकिन रूस यूक्रेन युद्ध के बीच चीन की जासूसी गतिविधियां पूरे यूरोप में बढ़ गयी हैं, कहा तो यह भी जाता है कि चीन की जासूसी गतिविधियां रूस के बराबर पहुंच गयी हैं। समझना होगा कि चीनी जासूस यूरोप में घूम रहे हैं जो कि यूरोप के लिए घातक साबित हो सकता है। ऐसे में आवश्यक है कि यूरोप के साथ-साथ जर्मनी को भी चीन के इन धूर्त गतिविधियों से पार पाना होगा। इसके लिए जरूरी है कि चीन से व्यापारिक निर्भरता को जर्मनी कम कर दे। ध्यान देना होगा कि चीन के सामने जर्मनी के रूप में बिजनेस का खुला मैदान है जहां वो अपने जासूसों को भी पूरी तरह से एक्टिव कर सकता है। चीन की जासूसी गतिविधियां किस हद तक बढ़ी हैं इसकी पुष्टि फाइनेंशियल टाइम्स की रिपोर्ट्स भी कर रही हैं। यह जासूसी जर्मनी के लिए एक बड़ा खतरा है जिसके चलते अब चीन के प्रति वो आक्रामक हो गया है।
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तीसरा कारण
वहीं तीसरा और सबसे बड़ा कारण है जर्मनी में चुनाव के दौरान चीन विरोधी सोच रखने वाली वहां की नेता एनालेना बेरबॉक के द्वारा की गयी घोषणा। अब जर्मनी की विदेश मंत्री के रूप में एनालेना बेरबॉक कार्यरत हैं और चीन से अपनी निर्भरता को कम करने के अपने वादे को पूरा कर रही हैं और अपनी विदेश नीति भारत सेंट्रिक रख रही हैं।
यह वे सभी महत्वपूर्ण कारण हैं जो जर्मनी को चीन से दूर करके भारत का सहयोगी बना रहे हैं। कुल मिलाकर इसमें जर्मनी का अपना स्वार्थ भी है और इससे भारत का लाभ भी होगा।
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