बॉलीवुड को अब अकेले पंकज त्रिपाठी बचा सकते हैं, प्रस्तुत है उनका अकाट्य समाधान

बॉलीवुड को आंखें बंद करके पंकज त्रिपाठी के सुझाव पर काम करना चाहिए।

pankaj tripathi

गंगूबाई काठियावाड़ी – फ्लॉप, बच्चन पाण्डेय – फ्लॉप, शमशेरा – फ्लॉप, लाल सिंह चड्ढा – सुपरफ्लॉप, और ब्रह्मास्त्र – भाई रहने दो, क्या ही बात करें, बॉलीवुड पर तो मानो ऐसा ग्रहण लगा जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। इस वर्ष एक दो फिल्मों को छोड़ दें तो कोई भी फिल्म इज्जत से, छाती ठोक कर 50 करोड़ का आंकड़ा भी पार नहीं कर पा रही है और हां, हम ब्रह्मास्त्र को मनबे नहीं करते हैं।

इस लेख में जानेंगे कि कैसे पंकज त्रिपाठी ने बॉलीवुड की वर्तमान अवनति को रोकने हेतु एक सस्ता परंतु टिकाऊ और अकाट्य उपाय सुझाया, जिसका उपयोग कर हिन्दुस्तानी फिल्म उद्योग जिसे बॉलीवुड भी कहते हैं, अपना खोया गौरव पुनः प्राप्त कर सकती है।

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बॉलीवुड का भाग्य रसातल में है  

हाल ही में हम सभी को देखने को मिल रहा है कि कैसे बॉलीवुड का भाग्य इस समय रसातल में है। अगर द कश्मीर फाइल्स को हटा दें, जो विशुद्ध बॉलीवुड फिल्म है ही नहीं, बॉलीवुड के पास इस वर्ष ले देके एक ही क्लीन हिट है और वो है भूल भुलैया 2, जिसने 250 करोड़ से अधिक का वैश्विक कलेक्शन किया है। बॉलीवुड के ऐसे हाल के अनेक कारण हैं परंतु सबसे महत्वपूर्ण हैं बॉलीवुड का सनातन धर्म के प्रति घृणा, जिसे सोशल मीडिया ने समय-समय पर उजागर किया है और बॉलीवुड का खोखला प्रेम अब किसी को नहीं भा रहा है, चाहे तो रणबीर कपूर और आलिया भट्ट से ही पूछ लें।

अब इसका पंकज त्रिपाठी से क्या लेना देना? तो बंधु ने हाल ही में इस विषय पर एक व्याख्यान देते हुए भारतीय फिल्म उद्योग, विशेषकर इसकी अवस्था पर चिंता जताई और बोला कि समय आ चुका है कि लेखकों पर भी बराबर ध्यान दिया जाए। एक रेडियो चैनल से साक्षात्कार के समय पंकज त्रिपाठी ने बताया, “मैं बहुत तगड़ी कल्पना नहीं कर सकता, पर अपने विश्लेषण के आधार पर कुछ कारण बता सकता हूँ। 15 वर्षों में मैं अपने बारे में बताऊं तो मेरा सिनेमा का टेस्ट काफी अलग है। मैं इस तरह की काफी मलयाली फिल्में और बंगाली फिल्में देख सकता हूं, परंतु मुख्यधारा की हिन्दी सिनेमा में ऐसा परिवर्तन देखने को नहीं मिला है। हो सकता हैं जनता बदल गई हो, क्योंकि उन्हें OTT पर काफी सामग्री देखने को मिली। विश्व भर के कई कथाकारों से उन्हें काफी कुछ देखने को मिला, ऐसे में जब ऑडियंस का टेस्ट इम्प्रूव होगा तो निस्संदेह पूछेंगे ना आपसे कि “आप क्या दिखा रहे हो?”

परंतु वे इतने पर नहीं रुके। उन्होंने आगे बताया, “पहले विकल्प भी काफी कम थे। एक फिल्म आती थी और सारे स्क्रीन बटोर ले जाती थी तो ऑडियंस वहीं जाती थी। अब ऐसा नहीं है। लोग साउथ की बात करते हैं, पर मैं एक रिपोर्ट पढ़ रहा था कि वहां 100 फिल्में बनी और 3-4 फिल्में चली। परंतु हिन्दी में जिस किस्म का कई बार मेनस्ट्रीम सिनेमा में काम होता है, कॉन्टेन्ट पर, लेखन पर, मुझे हमेशा चिंता होती है” –

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दमदार पटकथा और प्रभावशाली अभिनय

अब कालीन भैया जब कोई बात इतने महत्व के साथ रेखांकित करें तो समझ जाइए कि कहीं न कहीं, कुछ न कुछ तो बहुत ही अधिक गड़बड़ है। वे गलत भी नहीं है। जो व्यक्ति स्वयं दमदार पटकथाओं के बल पर और प्रभावशाली अभिनय को अपना हथियार बना कर दर्शकों का चहेता बने, वह कला की हत्या का विरोध नहीं करेगा तो क्या करेगा? मिर्जापुर के अखंडानन्द त्रिपाठी यानी कालीन भैया हों, गैंग्स ऑफ वासेपुर के सुल्तान कुरैशी हों या फिर लूडो के ‘सत्तू भाई’ हों, पंकज त्रिपाठी की दमदार एक्टिंग और दमदार स्क्रिप्ट्स के बारे में आपको समझ में आ जाएगा।

वैसे दमदार स्क्रिप्ट्स से स्मरण हुआ, पता है एक समय स्क्रिप्टराइटर्स को भारतीय सिनेमा में ही नहीं, देश विदेश में भी भरपूर भाव दिया जाता था। वैधानिक चेतावनी, सलीम जावेद के प्रशंसक कृपया इस वीडियो से दूर रहें, हम इनको लेखक मनबे नहीं करते। जनहित में जारी।

आपको क्या लगता है, ये अपने कल्लू मामा, यानी सौरभ शुक्ला लाइमलाइट में कैसे आए? अपने हंसमुख स्वभाव या अपने डील डौल के लिए? नहीं बबुआ, उस एक स्क्रिप्ट के लिए जिसने पूरे बॉलीवुड को हिला के रख दिया। करण जौहर ने सिस्टम खरीदा होगा, पर सौगंध है मेरे बाटा की चप्पल की, अगर सत्या के गीतों पर किसी पार्टी या शादी में नाचे नहीं हो।

सौरभ शुक्ला छोड़िए, नीरज वोरा का नाम सुना? नहीं सुना, तो हो क्यों भैया इस लोक में? ‘डेढ़ सौ रुपया देगा” “मस्त जोक मारा” “उठा ले रे बाबा”, “माल किधर है”, ये सब आज केवल संवाद नहीं, कालजयी मीम्स हैं और लेखक केवल एक– नीरज वोरा। इसी व्यक्ति ने रंगीला भी लिखी, हेरा फेरी भी लिखी, खट्टा मीठा भी रची, हंगामा भी रची, चुप चुप के भी रची और हाँ, गोलमाल के ओरिजिनल और सबसे फनिएस्ट वर्जन के रचयिता भी यही हैं।

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विक्रमकुडु से लेकर RRR तक

अब बात दमदार स्क्रीनराइटर की हो और इस व्यक्ति का उल्लेख न हो, ऐसा हो सकता है क्या? वी विजयेन्द्र प्रसाद अपने आप में विविधता की प्रतिमूर्ति हैं, जिन्होंने विक्रमकुडु से लेकर RRR तक भारतीय सिनेमा को काफी कुछ दिया है। मणिकर्णिका जैसी फिल्में भी इन्हीं के कलम से रची गई थी और यही व्यक्ति जे जयललिता के जीवन पर आधारित ‘थलाईवी’ तक रचे हैं, जो दर्शकों को काफी भाई थी।

लगता है कि RRR की अपार सफलता के पश्चात वी विजयेंद्र प्रसाद का मन अभी भरा नहीं है। उन्होंने एक भव्य प्रोजेक्ट बनाने का निर्णय किया है और सोचिए ये प्रोजेक्ट किसपर आधारित होगा? दरअसल, यह प्रोजेक्ट है एक फिल्म और एक वेब सीरीज़, वो भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यशैली, उसके इतिहास एवं वर्तमान भारत के नीति निर्माण में उसके योगदान पर आधारित। जी हां, यही सत्य है!

जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इतिहास से मिटाने का प्रयास किया गया, जिनके योगदानों को अनदेखा किया गया, उन्हें अब वी विजयेंद्र प्रसाद अपनी कलम की शक्ति से पुनः जागृत करेंगे। परंतु यही एकमात्र बात नहीं, जिसके कारण विजयेंद्र प्रसाद वामपंथियों के रातों की नींद उड़ा रहे हैं। अश्विन गंगराजू के निर्देशन में 1770 नामक एक बहुभाषीय फिल्म भी प्रदर्शित होने जा रही है, जिसका मोशन पोस्टर हाल ही में प्रदर्शित हुआ है।

परंतु हम भूल रहे हैं कि ये वही वी विजयेन्द्र प्रसाद है, जिन्होंने RRR में स्वतंत्रता आंदोलन के समय नेहरू और गांधी के योगदानों को न सम्मिलित के पीछे एक दमदार और अकाट्य तर्क भी दिया था कि कि वे उन लोगों से कोई नाता नहीं रखना चाहते थे जिनके कारण इस देश का सरेआम अपमान हुआ और ये देश खंड-खंड हुआ।

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वी विजयेन्द्र प्रसाद के साक्षात्कार की क्लिप

एक साक्षात्कार की क्लिप कई दिनों से सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है जिसमें वी विजयेन्द्र प्रसाद ने गांधी और नेहरू को भारत की दुर्दशा के लिए दोषी बताते हुए कहा है कि “जब अंग्रेज़ भारत छोड़कर जाने वाले थे, उस समय 17 PCC (प्रदेश कांग्रेस कमेटी) थी। गांधी तब स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख थे तो अंग्रेज़ों ने उन्हें कांग्रेस पार्टी से प्रधानमंत्री बनाने के लिए एक प्रमुख व्यक्ति चुनने को कहा। गांधी ने उन 17 पीसीसी को बुलाया और किसी एक को प्रधानमंत्री के रूप में चुनने के लिए कहा।”

तब गांधी ने कहा था कि “प्रधानमंत्री बनने के लिए खादी पहनना काफी नहीं है, शिक्षा जरूरी है, विदेशी राष्ट्रों से बात करना जरूरी है, इसलिए मेरी पसंद नेहरू हैं।” गांधी ने 17 पीसीसी से अपनी पसंद के व्यक्ति का नाम लिखने को कहा, पर आपको पता है परिणाम क्या था? 15 कमेटियों ने सरदार पटेल को चुना, 1 वोट खाली गया और 1 ने आचार्य जेबी कृपलानी को वोट दिया। नेहरू को एक भी वोट नहीं गया। अगर गांधी को लोकतंत्र का तनिक भी सम्मान होता तो वह निर्विरोध सरदार पटेल को देश का प्रधानमंत्री बनने देते। किन्तु उन्होंने पटेल से शपथ दिलवाई कि वे नेहरू को ही प्रधानमंत्री बनवाएंगे और वे उनके रहते कभी इस पद पर दावा नहीं करेंगे –

और ये कौन भूल सकता है?

“कुरुक्षेत्रम लो रावण संहारम,

युद्धम योक्का मेरुपुलो सीता स्वयंवरम”

अब इसकी तुलना कीजिए, “लाइट में जो रोशनी है”, बताइए किसमें अधिक दम है? किसमें अधिक आकर्षण है? 430 करोड़ व्यय कर एक ऐसी कथा बनाई गई, जिसमें न कथा है, न संस्कृति, और धर्म और इतिहास तो आप छोड़ ही, और वहीं जिस संवाद की चर्चा अभी की, वो एक ऐसे फिल्म से आई, जिसे 1960 और 1980 के दशक में सेट किया गया, तीन भाषाओं में फिल्माया गया और जनता की मांग पर एक अतिरिक्त भाषा में बाद में प्रदर्शित भी किया गया? सबकी कीमत – 30 करोड़ रुपये। फिल्म का नाम – सीता रामम। तो पंकज त्रिपाठी ने एक स्पष्ट समस्या बताई, और समाधान भी बड़ा सरल दिया है, बस बॉलीवुड वाले ढंग से इसे आत्मसात करें।

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