प्रेम माने निश्छल समर्पण, प्रेम माने त्याग
प्रेम यह तो बिल्कुल नहीं है कि वो मेरी नहीं तो किसी की नहीं
या प्रेम यह भी नहीं है कि किसी के पीछे आप स्वयं को नष्ट कर लो
परंतु जहां गोस्वामी तुलसीदास जी तनिक रुक गए, उससे मीलों आगे एक लेखक निकल गया और दुर्भाग्यवश आज उसे भारतीय साहित्य का एक आधारस्तंभ माना जाता है। जिसे अपमानित किया जाना और दुरदुराया जाना चाहिए, उसकी न केवल बुद्धिजीवियों अपितु विद्यार्थियों और फ़िल्मकारों द्वारा अनावश्यक प्रशंसा की जाती है और इसी की देन है FOSLA संघ।
FOSLA नहीं जानते? विद्यालय या कॉलेज में उन लौंडो को देख लीजिए, जिन्हें देख कर कोई कन्या तनिक भी मुस्कुरा दे या उसकी एक दृष्टि पड़ते ही वे ऐसे हिनहिनाने लगे, मानो अगला विश्व युद्ध यही जीतेंगे, तो समझ जाइए ये उसी FOSLA संघ के एक महत्वपूर्ण भाग हैं यानी फ्रस्ट्रेटेड वन साइडेड लवर्स एसोसिएशन (जिसका एक प्रमाण जॉन अब्राहम ने एक विलन रिटर्न्स में भी देने का प्रयास किया) और इस संघ के रचयिता है बंगाल साहित्य के सबसे घटिया कृति, जी हां, सबसे घटिया कृति, शरत चंद्र चट्टोपाध्याय।
चौंक गए क्या? यह वही शरत चंद्र चट्टोपाध्याय हैं, जिनकी परिणीता और देवदास को टीप टीप कर जाने कितने फिल्मकार और कलाकार अपनी जेबें और घर चमका चुके हैं, चाहे पंजाबी हो, बांग्ला हो या हिन्दुस्तानी फिल्म उद्योग हो, जिसे कुछ लोग बॉलीवुड भी कहते हैं। इस महा मनहूस आदमी का जन्म सितंबर 1876 में हुगली के देवानंदपुर जिले में हुआ था। इनका परिवार धनाढ्य था परंतु इनके जन्म के पश्चात कुछ समीकरण ऐसे बैठे कि इनके पिता अपने वित्तीय निर्णयों में भूल करने लगे और इसीलिए उनका परिवार एक समय निर्धनता के मुहाने पर आने लगा।
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कथाशिल्पी शरत चंद्र चटोपाध्याय के प्रसिद्ध पात्र देवदास, श्रीकान्त, सत्यसाची, दुर्दान्त राम आदि के चरित्र को झांके तो उनके बचपन की शरारतें सहज दिख जाएंगी। जब वो भागने लायक उम्र के हुए तो जब-तब पढ़ाई-लिखाई छोड़कर भाग निकलते थे। इसपर कोई विशेष शोर नहीं मचता था पर जब वह लौटकर आते तो उन्हें मार पड़ती थी। सौ बात की एक बात, प्रारंभ से शरत चंद्र चटोपाध्याय गंभीर स्वभाव के नहीं थे।
उसी समय उन्होंने भागलपुर की साहित्य-सभा की स्थापना की। सभा का मुखपत्र हस्तलिखित मासिकपत्र ‘छाया’ था। इन्हीं दिनों उन्होंने “बासा” (घर) नाम से एक उपन्यास लिख डाला पर यह रचना प्रकाशित नहीं हुई। उनकी कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही रह गई। मतलब शरत चंद्र बिल्कुल अपने उपन्यास के किरदारों की भांति रहे, अधूरे, अजीब, बेजान, लद्धड़ और सबसे बड़े भटके हुए नौटंकी। निस्संदेह मुंशी प्रेमचंद कोई बहुत बड़े तोप नहीं थे परंतु उन्होंने कम से कम अपनी शिक्षा तो पूरी की और विकट परिस्थितियों में भी जीवटता का प्रमाण दिया।
उसी समय बिभूतिभूषण भट्ट के घर से शरत चंद्र चटोपाध्याय ने एक साहित्यसभा का संचालन किया जिसके फलस्वरूप उन्होंने बड़ी दीदी, देवदास, चन्द्रनाथ, शुभदा इत्यादि उपन्यास एवं अनुपमा का प्रेम, आलो ओ छाया, बोझा, हरिचरण इत्यादि गल्प की रचना की। उसी समय उन्होंने बनेली एस्टेट में कुछ दिनों तक नौकरी की। किन्तु वर्ष 1900 में पिता से नाराजगी के कारण वो संन्यासी वेष में घर छोड़कर चले गए। तभी उनके पिता की मृत्यु भी हो गयी और उन्होने भागलपुर वापस आकर पिता का श्राद्ध किया और उसके बाद 1902 में अपने मामा लालमोहन गंगोपाध्याय के पास कलकत्ता आ पहुंचे, जो कलकत्ता उच्च न्यायालय के वकील थे। उनके ही घर रहकर वो हिन्दी पुस्तकों का अंग्रेजी अनुवाद करने लगे जिसके लिए उन्हें तीस रूपए प्रतिमाह मिलते थे। उसी समय उन्होंने ‘मन्दिर’ नाम का एक गल्प लिखकर ‘कुन्तलीन’ नामक प्रतियोगिता में भेजा, जिसमें वो विजयी घोषित हुए। उनकी मृत्यु हुई या यूं कहिए भारत को घटिया साहित्य के इस बोझ से तब मुक्ति मिली, जब 16 जनवरी 1938 को वो पृथ्वी लोक से सिधारे।
शरत चंद्र चटोपाध्याय को भारतीय साहित्य के क्षेत्र में उच्च स्थान दिया जाता है परंतु उनका वास्तव में वही स्थान है, जो सआदत हसन मंटो का है यानी मुंह से मूंगफली नहीं टूटी पर बातें उंगली से नारियल तोड़ने की करते। कहने को शरत चंद्र के उपन्यासों के कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुए हैं लेकिन उनके एक भी उपन्यास में न कोई रोचक तथ्य है और न ही कोई ऐसा बिन्दु, जो दर्शक को अपने जीवन या अपनी संस्कृति से जोड़े रखे। उल्टे इस व्यक्ति ने देश को वोक संस्कृति से तब इन्ट्रोड्यूस कराया, जब लोग शायद इसे जानते भी नहीं होंगे। मैं शायद थोड़ा फेंक रहा होऊंगा परंतु हो सकता है कि कहीं न कहीं तेलुगु फिल्म ‘श्याम सिंघा रॉय’ इसी महान आत्मा पर आधारित है!
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‘चरित्रहीन’ को जब उन्होंने लिखा, तब उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा था क्योंकि उसमें उस समय की मान्यताओं और परंपराओं को चुनौती दी गयी थी। उन्होंने सुन्दरता की जगह कुरूपता को अधिक प्रमुखता दी और इसी कारण उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक लगती हैं। कहा जाता है कि उनके पुरुष पात्रों से उनकी नायिकाएं अधिक बलिष्ठ हैं। शरत चंद्र चटोपाध्याय की जनप्रियता उनकी कलात्मक रचना और नपे तुले शब्दों या जीवन से ओतप्रोत घटनावलियों के कारण नहीं है बल्कि उनके उपन्यासों में नारी जिस प्रकार परंपरागत बन्धनों से छटपटाती दृष्टिगोचर होती है, जिस प्रकार पुरुष और स्त्री के सम्बन्धों को एक नए आधार पर स्थापित करने के लिए पक्ष प्रस्तुत किया गया है, उसी से शरत चंद्र को जनप्रियता मिली।
उनकी रचना कहने को हृदय को बहुत अधिक स्पर्श करती है, जबकि वास्तव में वह केवल लोगों को सर खुजाने और बाल नोचने पर विवश करती है। भई, मुंशी प्रेमचंद कोई बहुत लेजेंडरी कहानियां नहीं लिखते थे परंतु वो इतनी सरल शब्दावली में ऐसे अपनी कहानियों को रचते थे कि कोई भी खाते पीते उसे पढ़ सकता है। उनके कथा के मानसरोवर में विविधता का सागर था।
कहा जाता है कि शरत बाबू ने समाज द्वारा अनसुनी रह गई वंचितों की पीड़ा और आर्तनाद को परखा और यह जाना कि जाति, वंश और धर्म आदि के नाम पर एक बड़े वर्ग को मनुष्य की श्रेणी से ही अपदस्थ किया जा रहा है। लेकिन अगर ऐसा होता तो वो राष्ट्र के सबसे लोकप्रिय हिन्दी साहित्यकार बनते, केवल बंगाल और चंद बुद्धिजीवियों के नहीं। ये बात कुछ लोगों के लिए ‘शब्द बयां’ समान होंगी परंतु सत्य किसी के लिए काजू कतली रहा ही कब था?
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