ओणम का इतिहास और राजा बलि की वो कथा जो माइथोलॉजिस्ट आपको नहीं बताते

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ओणम

वातावरण, यह शब्द मानव जीवन के लिए बहुत अधिक महत्व रखता है। व्यक्ति यदि झूठ और भ्रम के वातावरण में हो तो ऐसा भी हो सकता है कि वह उस झूठ और भ्रम को आत्मसात करने लगे क्योंकि झूठ और भ्रम फैलाने वाला इसके लिए पूरा प्रयास करेगा। सनातन धर्म और सनातन त्योहारों को लेकर ऐसे ही झूठ और भ्रम के वातावरण का निर्माण करने का प्रयास पिछले कई वर्षों से किया जाता रहा है। सबसे नवीन प्रकरण के रूप में ओणम को लेकर फैलाए जा रहे झूठ को देखा जा सकता है।

सोशल मीडिया पर ज्ञान बहादुरों की कमी नहीं है, क्रिकेट का ज्ञान हो, जीवन जीने का ज्ञान हो, राजनीति संबंधी सामान्य से लेकर उत्कृष्ट ज्ञान देना हो यहां आपको सब मिलेगा। पौराणिक कथाओं और धर्म से जुड़ा ज्ञान भी बहुत मिल जाएगा सोशल मीडिया के इस हवाई जगत में। कुछ ज्ञान बहादुर तो निराधार तथ्य को ऐसे प्रस्तुत करते हैं जैसे कि उनके जैसा ज्ञानी पृथ्वी पर तो क्या पूरे ब्रह्मांड में दूसरा कोई नहीं है। कुछ ऐसे ही ज्ञान बहादुरों ने पवित्र त्योहार ओणम के इतिहास को विकृत करने की चेष्ठा की है और इस त्योहार को धर्मनिरपेक्ष बताने का प्रयास किया है इस बात से अनभिज्ञ होकर कि उनका यह प्रयास विफल रहेगा। ओणम को धर्मनिरपेक्ष बताने वालों को यह समझना चाहिए कि स्वतंत्र भारत में आप बिना किसी विरोध के कोई भी पर्व मना सकते हैं लेकिन ओणम और सनातन धर्म के अटूट संबंध को नकार नहीं सकते हैं।

 

ओणम का सनातन धर्म से कितना गहरा नाता है इसे समझने के लिए ओणम से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण जानकारियों को जान लेना होगा, ओणम के उद्भव से जुड़ी कथा को जान लेना होगा।

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प्रारंभ करते हैं ऋषि कश्यप से

सप्तर्षियों में से एक ऋषि कश्यप पूरी पृथ्वी पर उपस्थित हर एक जीव के पूर्वज हैं, वे हम सभी के पूर्वज हैं।  यदि विष्णु पुराण और महाभारत का संदर्भ लिया जाए तो ऋषि कश्यप की कुल 13 पत्नियां हुईं जिनमें से एक का नाम दिति था। ऋषि कश्यप की पत्नी दिति सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के पुत्र दक्ष प्रजापति की पुत्री हुईं। दिति और ऋषि कश्यप के दो पुत्र हुए जो बाद में दैत्य कहलाए। उनके एक पुत्र का नाम हिरण्यकश्यप और दूसरे पुत्र का नाम हिरण्याक्ष था। दोनों भाई तीनों लोक देवलोक, भुलोक और पाताल लोक में उत्पात मचाए हुए थे, ऐसे में आगे चलकर हिरण्याक्ष भगवान विष्णु के वराह अवतार द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुआ और हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार के द्वारा अपने अंत को प्राप्त हुआ।

इन दो भाइयों ने भले ही तीनों लोकों में उत्पात मचाया हो परंतु ऐसा नहीं था कि इस वंश से जुड़ा हर एक सदस्य बुरा था। हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद हुए जो भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे। प्रह्लाद ने बाद में अपनी भक्ति और अपने जीवन में अर्जित किए गए पुण्य अपनी आगे की पीढ़ियों में स्थानांतरित कर दिया था, जिसके बाद प्रह्लाद के पोते राजा बलि एक भले राजा के रूप में परिलक्षित हुए। राजा बलि अपने समय के अति शक्तिशाली राजा थे, उनकी शक्ति का भान इससे ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने देवलोक से देवताओं को खदेड़ दिया था।

यहां देवताओं के बारे में जब चर्चा आती है तो इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि दैत्यों और देवताओं के बीच युद्ध के बारे में तो बहुत बार सुनने को मिलता है लेकिन यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि दैत्यों और देवताओं के बीत पारिवारिक संबंध हैं। दक्ष प्रजापति की सबसे बड़ी पुत्री का नाम था अदिति जो ऋषि कश्यप की पत्नियों में से एक थीं, ऋषि कश्यप और अदिति के 12 पुत्र हुए जिन्हें आदित्य के रूप में जाना गया। इनके नाम विवस्वान, आर्यमन, तवष्ट, सावित्र, भग, धात, मित्र, वरुण, अम्सा, पूषन, इंद्र और विष्णु हैं। भगवान इंद्र और भगवान विष्णु के अपने-अपने प्रमुख स्थान हैं, जहां विष्णु जी वैकुंठ धाम में विराजमान हैं तो  वहीं इंद्र देवों और स्वर्ग के राजा हैं।

देवराज यानी देवताओं के राजा होने की अवधारणा को समझना होगा। देवताओं के राजा होने का अर्थ यह है कि आपको उन सभी क्षमताओं में योग्य होना होगा जैसी योग्यता अपने-अपने कार्य के लिए सभी देवताओं के पास है। उदाहरण के रूप में यदि वरुण देव जल प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए जाने जाते हैं तो देवताओं के राजा इंद्र को इस कार्य में वरुण देव से अधिक योग्य होना होगा। जल, वायु, वर्षा, अग्नि ऐसे हर विभाग के अलग-अलग देवता हैं। यह ऐसे ही है जैसे कि देश को चलाने के लिए मंत्रिमंडल का गठन किया गया हो और उन मंत्रियों के अपने-अपने विभाग हों जिनका एक प्रधानमंत्री भी है। मंत्रियों के स्थान पर देवताओं को समझ लीजिए और प्रधानमंत्री के स्थान पर देवराज इंद्र को रख लीजिए। इस पूरी व्यवस्था से संसार का संचालन हो रहा है वैसे ही जैसे देश एक व्यवस्था के तहत चलता है। हर मन्वन्तर के बाद देवराज इन्द्र भी परिवर्तित हो जाते हैं।

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महापराक्रमी राजा बलि

अब लौटते हैं राजा बलि की ओर जिनसे देवराज इंद्र को बहुत अधिक भय था। यहां तक कि जब राजा बलि लोकों पर विजय प्राप्त करने में व्यस्त थे तब इंद्र को उनकी गद्दी से हाथ धो बैठने का डर होने लगा था। राजा बलि अत्यंत शक्तिशाली थे, उन्होंने अपनी योग्यता के बल पर तीनों लोकों को जीत लिया। ऐसे में देवताओं ने स्वयं के रक्षण के लिए अलग-अलग स्थानों पर छुप जाना ही सही समझा। उन्होंने त्रिदेवों अर्थात् भगवान ब्रह्मा, भगवान विष्णु और भगवान शिव से आश्रय मांगा। अब देवराज इंद्र पृथ्वीवासियों के दैनिक जीवन में व्यवस्था और अराजकता के बीच संतुलन बनाने के प्रभारी हैं तो स्वाभाविक रूप से उनके गद्दी से हट जाने से सांसारिक लोगों के सामने संकट उत्पन्न हो गया।

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि राजा बलि ने तो तीनों लोकों को जीत लिया और देवताओं को देवलोक से खदेड़ दिया ऐसे में उन्होंने जो किया उसके लिए उन्हें केवल और केवल दंड दे देना ही विकल्प नहीं था। तीनों लोकों को जीत लेने वाले राजा बलि ने अपने जीवन में बहुत सम्मान अर्जित किया था। वो एक उत्कृष्ट और पराक्रमी राजा तो थे ही इसके साथ-साथ उनका परिचय एक महादानी के रूप में बहुत गर्व से दिया जाता था। राजा बलि अपनी वार्षिक धनोपार्जन का 25 प्रतिशत अपनी प्रजा को दान करते थे। शास्त्रों के बारे में ज्ञान रखने वाले ब्राह्मणों की प्रशंसा और सम्मान करने में वो कभी पीछे नहीं रहते थे। शत्रुओं के लिए कठोर और याचक के लिए सर्वस्व त्याग देने वाले राजा बलि के लिए दंड का निर्धारण करना कोई विकल्प ही नहीं था।

राजा बलि ने देवताओं को अपने पराक्रम से हराकर देवलोक जीता था, ऐसे में देवताओं के लिए यह चुनौती थी कि वे अपने स्थान को गरिमा के साथ ही प्राप्त करें, वे अपने हारे हुए स्थान को अपने पराक्रम से ही जीते और इसी में उनका सम्मान बना रहता। हालांकि, देवताओं के लिए एक अवसर निकल ही आया। राजा बलि ने यज्ञ करने का निश्चय किया, यह उनका 99वां यज्ञ था और अपने पिछले सभी यज्ञों में उन्होंने एक ही सिद्धांत का पालन किया था। यह सिद्धांत है गोब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मण हिताय च|यानी गाय और ब्राह्मण पूजा के पात्र हैं और इस सिद्धांत का पालन करने वाला व्यक्ति बिना किसी संकोच के गाय और ब्राह्मण की इच्छा अनुसार उन्हें कुछ भी दे देगा।

निश्चय ही राजा बलि अपने 99वें यज्ञ में भी इसी सिद्धांत का पालन करते और इससे देवराज इंद्र को बहुत समस्या थी, यदि राजा बलि ने 99वां यज्ञ पूरा कर लिया होता तो अगले देवराज वहीं बन जाते। राजा बलि के पास पूरी क्षमता थी जिससे वो देवराज का पद धारण कर सकें लेकिन कमी थी तो 100 यज्ञ पूरे करने की जिसे शतक्रतु कहते हैं, जो एक पात्रता मानदंड है। शतक्रतु यानी जिसने 100 यज्ञ पूरे कर लिए हों।

देवराज इंद्र बैकुंठ धाम भगवान विष्णु के पास गए जहां उन्हें इस समस्या के एक हल पर ध्यान गया। पूरी योजना के साथ तय हुआ कि भगवान विष्णु वामन अवतार लेंगे जो कि एक ब्राह्मण होंगे। वामन अवतार भगवान विष्णु का पांचवां अवतार है जो अपने पहले के अवतारों की अपेक्षा छोटा है या कह सकते हैं कि भगवान का यह अवतार बौना है।

यज्ञ हो रहा था और राजा बलि दान देने के लिए बैठे थे और योजनाबद्ध रूप से उनके द्वार पर भगवान वामन पहुंच गए। भगवान वामन ने राजा बलि के सामने दक्षिणा की इच्छा रखी। राजा बलि भी दान देने के लिए सज्ज थे, इस पर बौने ब्राह्मण वामन ने राजा बलि से कहा कि उन्हें केवल तीन पग भूमि की इच्छा है, उन्होंने राजा बलि से दान में यही देने के लिए कहा। राजा बलि ने दानवीर होने की अपनी प्रतिष्ठा को देखते हुए इसे एक बहुत छोटा अनुरोध माना। इतना छोटा दान देना उनके लिए अपमानजनक भी था तब जब वो तीनों लोकों को जीत चुके थे। राजा बलि ने ब्राह्मण देवता के सामने दान स्वरूप भूमि, बहुत सारी गाय देने की बात कही लेकिन वामन भगवान तो अपनी पूरी योजना के साथ आए थे, अतः राजा बलि की इस बात को उन्होंने अस्वीकार कर दिया।

अंततः राजा बलि ने वामन भगवान के इच्छा के अनुसार उन्हें दान में तीन पग भूमि देना स्वीकार किया। अब वामन भगवान ने अपने पग से भूमि नापना प्रारंभ किया और अपने पहले पग में वामन भगवान पूरे स्वर्ग को नाप गए, दूसरे पग में पूरी पृथ्वी उनके नियंत्रण में आ गयी, वहीं तीसरे पग के लिए भूमि ही नहीं बची। वामन भगवान ने राजा बलि से तीसरा पग रखने का स्थान मांगा लेकिन दानवीर राजा बलि ने अपना शीश वामन भगवान के आगे कर दिया और कहा, भगवान आप अपना तीसरा पग मेरे सिर पर रख दीजिए। वामन भगवान ऐसा ही करते हैं और अब स्वर्ग और पृथ्वी लोग दान कर चुके राजा बलि पाताल लोक में स्थायी रूप से वास करने लगे।

देवी लक्ष्मी का प्रकरण

चूँकि राजा बलि का मन स्वच्छ था, वो पराक्रमी थे, जो भी अर्जित किया था धर्म के पथ पर चलकर और अपने पराक्रम से अर्जित किया था। उसका मन कितना स्वच्छ था यह उनके पाताल गमन से ही आंका जा सकता है। राजा बलि ने सबकुछ दान कर दिया था जीता हुआ स्वर्ग भी, अत: भगवान विष्णु ने वरदान मांगने को कहा जिस पर राजा बलि ने भगवान को अपने साथ पाताल लोक में वास करने को कहा। वरदान से बंधे भगवान  विष्णु राजा बलि के साथ पाताल लोक गए। परंतु इससे देवी लक्ष्मी को समस्या हुई, यदि भगवान विष्णु पाताल लोक में वास करेंगे तो बैकुंठ धाम जो उनका स्थान है वह तो रिक्त रहेगा, वो स्वयं भी अकेली रह जाएंगी। देवी लक्ष्मी अकेले नहीं रहना चाहती थीं और इसलिए वो भगवान विष्णु को लौटा लाने के लिए पाताल लोक पहुंची लेकिन अपने दिए हुए वरदान में बंधे भगवान विष्णु को पाताल लोक से लौटा लाना इतना भी आसान नहीं था।

देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को उन्हें लौटा देने के लिए राजा बलि से बहुत अनुनय विनय किया लेकिन राजा बलि नहीं माने। अतः एक रास्ता निकाला गया, राजा बलि के हाथ में देवी लक्ष्मी ने रक्षा सूत्र (राखी) बांधते हुए मंत्रोच्चारण किया ‘येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल:’

इस रक्षा सूत्र के माध्यम से देवी लक्ष्मी और राजा बलि दोनों भाई-बहन हो गए और देवी लक्ष्मी ने उपहार के रूप में राजा बलि से भगवान विष्णु को मांग लिया। अब राजा बलि के सामने नहीं कहने का कोई रास्ता ही नहीं था, उन्होंने बहन बन चुकीं देवी लक्ष्मी को उपहार स्वरूप भगवान विष्णु को उन्हें लौटा दिया। इस पूरे घटनाक्रम के बाद देवी लक्ष्मी के साथ भगवान विष्णु अपने बैकुंठ धाम लौट आए।

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ओणम की उत्पत्ति

अब ओणम की व्युत्पत्ति पर बात कर लेते हैं जिसे निरर्थक रूप से धर्मनिरपेक्ष पर्व बताने के लिए कुछ लोग अति उतावलेपन की अवस्था में हैं। ओणम पृथ्वी पर वामन अवतार के आने की प्रसन्नता में मनाया जाता है। ओणम शब्द संस्कृत शब्द श्रोण से उत्पन्न हुआ है। श्रोण/श्रवण भगवान विष्णु का जन्म नक्षत्र है। श्रीमद् भागवत पुराण में विष्णु की जन्म तिथि को श्रवण द्वादशी के रूप में दर्शाया गया है। श्रवण द्वादशी ओणम की सटीक तिथि है।

बीते कुछ वर्षों पर ध्यान दीजिए, कैसे सनातन पर्व ओणम के बारे में भ्रांतियां फैलायी गयीं कि यह धर्मनिरपेक्ष त्योहार है। यहां तक कि ओणम को द्रविड़ बनाम आर्यन विवाद के रूप में भी प्रस्तुत करने तक का प्रयास किया गया। राजा बलि को द्रविड़ कहा गया और भगवान वामन को आर्य राजा के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह समझना कठिन नहीं है कि ऐसे प्रयास केवल और केवल सनातन धर्म को बुरा दिखाने के लिए किया गया। हालांकि आपको अपनी बुद्धि का प्रदर्शन करते हुए ऐसे किसी भी ज्ञान को किसी गहरे कुएं में फेंक देना चाहिए। वहीं ऐसे एजेंडे तभी विफल होंगे जब बुद्धिजिवियों द्वारा आगे आकर इन एजेंडों को खंडित किया जाएगा।

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