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2022 में भी पीरियड्स कुछ लोगों के लिए टैबू बना हुआ है

लड़कियों के स्कूल छोड़ने का एक बड़ा कारण है महावारी

TFI Desk द्वारा TFI Desk
7 October 2022
in स्वास्थ्य
पीरियड्स
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“काश, मैं एक मर्द होती”, चीन की बेहतरीन टेनिस खिलाड़ी जेंग किनवेन (Tennis Player Zheng Qinwen) ने फ्रेंच ओपन के मैच में हारने के बाद यह बात कही थी। क्या लगता है आपको इतनी बड़ी टेनिस खिलाड़ी और दूसरी लड़कियों के लिए प्रेरणा होते हुए भी उन्होंने इस प्रकार की बात क्यों बोली? यह बोलने के पीछे उनका उद्देश्य आखिर था क्या? दरअसल, चीनी खिलाड़ी के इस टूर्नामेंट से बाहर होने के पीछे का कारण था महावारी यानी पीरियड्स के दौरान होेने वाला दर्द। दर्द इतना अधिक था कि वो ठीक से खेल नहीं पाईं थीं।

वर्तमान समय में देखा जाए तो भारत प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की ओर अग्रसर है। फिर चाहे वो आर्थिक प्रगति हो या सामाजिक हो या फिर राजनैतिक। आज देश के अधिकतर लोग हर विषय पर खुलकर चर्चा करने को तैयार रहते हैं। साथ ही हर मुद्दे को गंभीरता से समझने के भी प्रयास करते हैं। प्रगति की ओर बढ़ने के बावजूद आज भी देश में कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे है जिन पर समाज के कुछ लोग बात करने से कतराते हैं, उनमें से एक मुद्दा है माहवारी यानी पीरियड्स।

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पीरियड्स को अब तक क्यों माना जाता है टैबू?

देश में आज भी पीरियडस एक टैबू का विषय बना हुआ है, जिसके बारे में बात करने में कई लोग काफी हिचकिचाते हैं। कई लोग इस पर खुलकर बात करना पसंद नहीं करते। वहीं पीरियड्स ही वो कारण है, जिससे चलते लड़कियों को अपने जीवन में कुछ महत्वपूर्ण चीजों का त्याग तक करना पड़ता है। रिपोर्ट बताती है कि माहवारी के कारण भारत में करोड़ों लड़कियां स्कूल छोड़ती है।

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की बाल सुरक्षा के लिए कार्य करने वाली एजेंसी यूनिसेफ के द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आयी है कि भारत में 71 फीसदी किशोरियों यानी लड़कियों को माहवारी के बारे में जानकारी ही नहीं होती। उनको पहली बार माहवारी होने के बाद इसके बारे में पता चलता है और फिर उनको स्कूल भेजना बंद कर दिया जाता है। माहवारी से जुड़ी सुविधाओं और स्वच्छता को लेकर जागरूकता की कमी, साथ ही हमारे समाज में मौजूद रूढ़िवादी अंधविश्वास के कारण लड़कियों के स्कूल छोड़ने को मजबूर होना पड़ता है, जिस वजह से वे शिक्षा में भी पिछड़ जाती है।

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करोड़ों लड़कियां छोड़ती हैं पढ़ाई

वैसे तो यदि देखा जाए तो इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे देश में माहवारी को लेकर जागरूकता काफी बढ़ गई है। मुख्य तौर पर शहरी क्षेत्रों में यह देखने को मिलता है कि महिलाएं इस पर बात करने से हिचकिचाती नहीं। परंतु ग्रामीण इलाकों में स्थिति अलग है। इस प्रकार की समस्या खास तौर पर ग्रामीण इलाकों में अधिक देखने को मिलती है, जहां जागरूकता की कमी होने के कारण आज भी माहवारी जैसे गंभीर मुद्दे को एक अलग नज़र से देखा जाता है।

साल 2019 में सामाजिक संस्था दसरा के द्वारा की एक रिपोर्ट बताती है कि 2.3 करोड़ लड़कियों को हर वर्ष इसलिए स्कूल छोड़ना पड़ता है, क्योंकि माहवारी के समय स्वच्छता के लिए जरूरी सुविधाओं का अभाव है, जिसमें सैनिटरी पैड्स की उपलब्धता को लेकर और पीरियड्स के बारे में सही जानकारी न मिलना शामिल हैं। शौचालयों और साफ पानी जैसी आवश्यक सुविधाओं की कमी और माहवारी से जुड़ी शर्मिंदगी के कारण लड़कियों की जिंदगी प्रभावित होती है।

वहीं मई में जारी हुई राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) की रिपोर्ट के अनुसार 15-24 वर्ष की लगभग आधी से भी अधिक महिलाएं आज भी माहवारी के समय कपड़ों का प्रयोग करती है। जो विशेषज्ञों के अनुसार, किसी भी गंभीर संक्रमण का कारण बन सकता है।

यानी पीरियड्स को लेकर अभी भी समस्याएं तो अनेक हैं, परंतु समाधान क्या है? इस विषय पर अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों की मानें तो इस उम्र में सही और सटीक यौन शिक्षा एक अहम समाधान है। विशेषज्ञों के अनुसार यौन शिक्षा  न केवल शारीरिक प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी प्रदान करती है बल्कि ये यौन संबंधों, लैंगिक पहचान, यौनिक झुकाव और सबसे आवश्यक सहमति और सुरक्षित सेक्स के बारे में भी जागरूकता को बढ़ावा देने का कार्य करती है।

वैसे माहवारी को लेकर जागरूकता बढ़ाने के लिए भी तमाम प्रयास किए जा रहे है। कई कार्यक्रमों और अभियानों के माध्यम से ग्रामीण इलाकों की महिलाओं को इसको लेकर जागरूक किया जा रहा है। भारतीय फिल्म निर्माता गुनीत मोंगा की डॉक्यूमेंट्री ‘पीरियडः एंड ऑफ सेंटेंस’ (Period. End Of Sentence)  को साल 2019 में ऑस्कर अवार्ड मिला था। इस फिल्म में माहवारी से जुड़े सामाजिक शर्मिंदगी के मुद्दे के बारें में बात की गयी है। साथ ही फिल्म के माध्यम से यह भी अपील की गई कि इस मुद्दे पर और चर्चा होनी चाहिए।

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“चुप्पी” तोड़ने की जरूरत

आज भले ही हम साल 2022 में जी रहे हो, स्वयं को हम एक नयी सोच वाला बोलते हो लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि कुछ मामलों में आज भी हमारी सोच पिछड़ी हुई है। हम माहवारी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर खुलकर बात और जानकारी लेने या देने मे शर्मिंदगी महसूस करते है। जिस कारण हमारे समाज में इसके प्रति जागरूकता की कमी अभी भी बरकरार है।

परंतु अब समय आ गया है कि पीरियड्स पर चुप्पी को तोड़ा जाए। इसे एक सामान्य और प्राकृतिक शारीरिक प्रक्रिया की तरह देखा जाए। लड़कियां इस पर शर्म महसूस करना बंद करें और इसके साथ ही लड़के भी इसे सही ढंग से समझकर महिलाओं के साथ इस मुद्दे पर खुलकर बात करने के लिए प्रोत्साहित करें। माहवारी जैसे मुद्दे को जब गंभीरता से लिया जाएगा और इस पर सब खुलकर बात होगी, तब ही इस पर से टैबू का टैग हट पाएगा।

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