श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि कर्म किए जाओ, फल की चिंता मत करो! जवाहरलाल मोतीलाल नेहरू को इस बात पर तनिक चिन्तन तो करना ही चाहिए था या जो भी उनका वास्तविक नाम था। आज बिना नेहरू की धुनाई किए वास्तविक इतिहास और भारतीयों का भोजन नहीं हजम होता।
नेहरू की हठधर्मिता
इसी क्रम में कश्मीर के विलय पर हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुनः दोहराया कि कैसे नेहरू की हठधर्मिता के कारण जम्मू और कश्मीर का सम्पूर्ण विलय संभव नहीं हो सका। साथ ही उन्होंने ये भी दोहराया कि यह नेहरू के अकर्मण्यता और लालच का ही परिणाम था कि आज तक कश्मीर हिंसा के दुष्चक्र में फंसा हुआ है।
पीएम मोदी के अनुसार, “हमारे देश के गृहमंत्री, लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल ने अन्य रियासतों के विलय से संबंधित मुद्दों को चतुराई से हल किया, लेकिन ‘एक व्यक्ति’ कश्मीर मुद्दे को नहीं सुलझा सका”।
फिर क्या था, नेहरू गान दिन प्रतिदिन जपने वाले कांग्रेस के चमचों की सुलग गई, और वे आ गए अपने आका की रक्षा में। चमचा शिरोमणि और पूर्व में केंद्रीय मंत्री रह चुके जयराम रमेश कितने तिलमिलाए हुए थे, ये महोदय के ट्वीट्स से ही पता चलता है। वे कहते हैं, “प्रधानमंत्री ने फिर से सच्चे इतिहास को झुठला दिया। वो जम्मू-कश्मीर पर नेहरू को कठघरे में खड़ा करने के लिए तथ्यों को नजरअंदाज करते हैं। ये सभी तथ्य राजमहोन गांधी द्वारा लिखित सरदार पटेल की जीवनी में दर्ज हैं।’
उन्होंने कहा कि महाराजा हरि सिंह ने विलय से इनकार किया था। तब वो आजादी का सपना देख रहे थे। लेकिन जब पाकिस्तान ने हमला किया तब हरि सिंह ने भारत में विलय किया। शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में भारत के विलय का मार्ग प्रशस्त किया क्योंकि वो नेहरू के दोस्त और प्रशंसक थे। अब्दुल्ला गांधी का भी आदर करते थे। सरदार पटेल तो 13 सितंबर 1947 तक कश्मीर का पाकिस्तान में विलय के समर्थक हुआ करते थे जब जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान विलय किया था”।
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किरेन रिजिजू ने धज्जियां उड़ा दीं
परंतु जयराम को क्या पता था कि ये 2022 है, 2004 नहीं कि इन्होंने कुछ बका, और जनता ने हाथों लपक लिया। इनकी खटिया खड़ी करने हेतु केन्द्रीय विधि मंत्री एवं भाजपा के कद्दावर नेता किरेन रिजिजू ने एक के बाद एक ट्वीट्स में नेहरू की धज्जियां उड़ाते जयराम रमेश को प्रत्युत्तर में ट्वीट किया,
“जवाहर लाल नेहरू के संदिग्ध भूमिका का बचाव करने के लिए लंबे समय से कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के बारे में ऐतिहासिक झूठ बोला जा रहा है। वह ऐतिहासिक झूठ यह है कि महाराजा हरि सिंह कश्मीर का भारत में विलय के मुद्दे पर घबराए हुए थे। जयराम रमेश का झूठ उजागर करने के लिए नेहरू के बयान को ही दोहराता हूं” –
This 'historical lie', that Maharaja Hari Singh dithered on question of accession of Kashmir with India has gone on for far too long in order to protect the dubious role of J.L.Nehru. ⁰
Let me quote Nehru himself to bust the lie of @Jairam_Ramesh. 1/6⁰https://t.co/US4XUKAF8E— Kiren Rijiju (मोदी का परिवार) (@KirenRijiju) October 12, 2022
“शेख अब्दुल्ला के साथ समझौते के बाद 24 जुलाई 1952 को लोकसभा को संबोधित किया था। नेहरू ने कहा था कि महाराजा हरि सिंह ने कश्मीर के भारत में विलय के लिए पहली बार उनसे जुलाई 1947 में बातचीत की थी। यानी, स्वतंत्रता मिलने से एक महीने पहले। लेकिन नेहरू ने महाराजा की बातों की अनसुनी कर दी और उन्हें फटकार लगाई”।
परंतु किरेन रिजिजू महोदय इतने पर नहीं रुके। उन्होंने अनेक साक्ष्यों के साथ ट्वीट्स शेयर करते हुए लिखा,
“हमारे पास कश्मीर का अनौपचारिक प्रस्ताव आया तो हमने उसे सलाह दी कि नैशनल कॉन्फ्रेंस जैसे लोकप्रिय संगठनों और उनके नेताओं के साथ-साथ महाराजा की सरकार के साथ भी हमारे संपर्क हैं। हमने दोनों को सलाह दी कि कश्मीर का मामला सबसे हटकर है और वहां जल्दबाजी करना ठीक नहीं होगा। हमने आम सिद्धांत बनाया कि खासकर कश्मीर के लोगों की राय ली जानी चाहिए। यह विभाजन और आजादी से पहले की बात थी। हमने स्पष्ट कर दिया था कि महाराजा और उनकी सरकार ने अगर भारत में विलय की इच्छा जताई होती तो भी हम उनसे कुछ और चाहते। वो यह कि यह कदम उठाने से पहले वहां के लोगों की राय ली जाए। हम नहीं चाहते थे कि किसी चालाकी से कागज पर कुछ हासिल कर लें”।
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“इसलिए हमने जुलाई 1947 में स्पष्ट कर दिया कि जम्मू और कश्मीर पर कोई कदम उठाने में जल्दबाजी नहीं की जाए। हालांकि, वहां के कई नेता व्यक्तिगत रूप से विलय चाहते थे, लेकिन उन्हें अपने लोगों का मिजाज भी पता था, इसलिए उन्होंने कहा कि लोगों की तरफ से ही पहल होनी चाहिए ना कि महारीज की सरकार की तरफ से। तभी कोई फैसला टिकाऊ होगा। हमने उनकी बात पूरी तरह स्वीकार कर लिया। इसलिए हमने महाराजा की सरकार और लोकप्रिय नेताओं को संदेश दिया कि विलय के लिए जल्दबाजी नहीं की जाए। इसके लिए तब तक इंतजार किया जाना चाहिए जब तक कि लोगों की मंशा जानने का कोई तरीका नहीं निकाल लिया जाए।’
“मुझे याद है कि संभवतः 27 अक्टूबर को हम दिनभर माथापच्ची करने के बाद शाम को इस नतीजे पर पहुंचे कि सभी जोखिमों और खतरों बावजूद हम महाराजा की अपील ठुकरा नहीं सकते और हमें अब उनकी मदद करनी ही होगी। यह आसान नहीं था।
कुल मिलाकर…
1. महाराजा जुलाई 1947 में ही भारत में कश्मीर का विलय करना चाहते थे।
2. नेहरू ने ही हरि सिंह का आग्रह ठुकरा दिया था।
3. नेहरू ने कश्मीर के लिए कुछ ‘विशेष’ सोच रखा था और वो विलय से भी ज्यादा कुछ चाहते थे।
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किरेन रिजिजू ने उठाया प्रश्न
किरेन रिजिजू आगे पूछते हैं, “उन्होंने क्या खास सोच रखा था? वोट बैंक की राजनीति? नेहरू ने कश्मीर को अकेला अपवाद क्यों बनाया जबकि महाराजा भारत में विलय चाहते थे, फिर भी नेहरू बहुत कुछ और भी चाह रहे थे? वो बहुत कुछ ज्यादा क्या था? सच्चाई यह है कि भारत आज भी नेहरू की गलत नीतियों की कीमत चुका रहा है”।
ठहरिए, ये बातें तनिक सुनी-सुनी सी नहीं प्रतीत होती? होती कैसे नहीं, क्योंकि नेहरू के कर्मकांडों की गूंज दूर-दूर तक है। जस्टिस एस एन अग्रवाल की पुस्तक ‘Nehru’s Himalayan Blunders’ ने इनके काले करतूतों को निस्संकोच सबके समक्ष प्रदर्शित किया है, साथ ही ये भी बताया है कि कैसे महाराजा हरी सिंह डोगरा स्वयं भारत का विलय चाहते थे, परंतु उनकी बात सम्पूर्ण भारत तक पहुंचने ही नहीं दी गयी।
ऐसा कैसे हुआ? एक कारण तो स्वयं नेहरू थे और दूसरे थे उन्हीं के ‘विश्वासपात्र’, सदर-ए-रियासत [प्रधानमंत्री], रामचन्द्र काक। इस विषय पर TFI पोस्ट ने भी काफी गहन विश्लेषण किया था, और समय-समय पर इस गठजोड़ पर प्रकाश भी डाला है।
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अंतिम निर्णय लेने से पहले…
1945-1947 के दौरान काक के पास ब्रिटिश राज से सत्ता के हस्तांतरण का कठिन काम था। किन्तु, क्या आप जानते हैं की वो काक ही थे जिन्होंने जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को रोक कर रखा। इतना ही नहीं उन्होंने राज्य में उठ रही लोकतंत्र की मांग और भारत में विलय के आन्दोलन को भी रोकने की कोशिश की। उन्हों राज्य के विलय के लिए ब्रिटिश दबाव को भी दूर किया। वो राजशाही और कश्मीर के स्वतंत्रता के प्रखर समर्थक और भारत में विलय के मुखर विरोधी थे। यद्यपि उनका ज्यादा झुकाव जिन्ना और पाकिस्तान के तरफ था। उन्होंने अंतिम निर्णय लेने से पहले महाराजा को कम से कम एक वर्ष तक स्वतंत्र रहने की सलाह दी। किन्तु, जम्मू कश्मीर में उनकी लोकप्रियता की वजह से अगस्त 1947 में भारत और पाकिस्तान की स्वतंत्रता से कुछ समय पहले उन्हें प्रधानमंत्री के पद से बर्खास्त कर दिया गया था।
जून 1947 में भारत के विभाजन के निर्णय के बाद, कश्मीर विलय पर निर्णय अटक गया। लॉर्ड माउंटबेटन ने जून (19-23 जून) में कश्मीर का दौरा किया और संवैधानिक राजतंत्र के निरंतरता की गारंटी देते हुए निर्णय लेने के लिए महाराजा के साथ-साथ काक को भी राजी किया। काक द्वारा “सही विकल्प” के बारे में पूछे जाने पर, काक की अंतिम स्थिति यह थी कि “चूंकि कश्मीर पाकिस्तान में शामिल नहीं होगा, यह भारत में शामिल नहीं हो सकता। उन्होंने महाराजा को सलाह दी कि कश्मीर को स्वतंत्र रहना चाहिए। कम से कम एक वर्ष, जब तक विलय के मुद्दे पर विचार किया जा सके।
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मुस्लिम लीग के नेताओं से मुलाकात
काक ने जुलाई में नई दिल्ली में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं से मुलाकात की। जिन्ना ने उनसे कहा कि अगर कश्मीर बाद में नहीं बल्कि तुरंत मिल जाता है तो कश्मीर का बेहतर शर्तों के साथ विलय कराया जायेगा। काक ने भारत के लिए रियासतों के प्रभारी सचिव वी. पी. मेनन से भी मुलाकात की और सुरक्षा की मांग की। स्टेट फोर्सेज के चीफ ऑफ स्टाफ जनरल हेनरी स्कॉट ने अपनी आखिरी रिपोर्ट में कहा था कि काक स्वतंत्रता के पक्षधर थे लेकिन पाकिस्तान के साथ घनिष्ठ संबंध रखते थे। 1 अगस्त 1947 को, जब गांधी ने कश्मीर का दौरा किया और काक को बताया कि वह लोगों के बीच कितने अलोकप्रिय थे तब, काक ने इस्तीफा देने की पेशकश की थी। काक को स्वतंत्र कश्मीर के विचार का शिल्पी कहा जा सकता है। हालाँकि, काक अगर चाहते तो कश्मीर के हीरो बन सकते थे लेकिन अदूरदृष्टि और स्वार्थ के कारण उन्होंने खलनायक बनने की ठानी।
ऐसे में किरेन रिजिजू ने उस बात को स्पष्ट किया है जिसपर लोग चर्चा करने से भी कतराते थे, क्योंकि उन्हे असभ्य, अशिष्ट कहलाने का खतरा रहता था। परंतु अब और नहीं, अब समय आ चुका है दूध का दूध और पानी का पानी करने का, और किरेन रिजिजू के धुलाई भरे ट्वीट इस दिशा में प्रथम कदम है।
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