भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के भीष्म पितामह आप किसे मानते हैं? कुछ लोगों के लिए वे ‘दादाभाई नाओरोजी’ हैं, तो कुछ के लिए ‘गोपाल कृष्ण गोखले’ हैं। परंतु अधिकतम लोगों को नहीं पता है कि जिस गुजरात से कभी मोहनदास करमचंद गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे लोग निकले थे, उसी गुजरात भूमि से एक ऐसे क्रांतिकारी निकले जो वास्तव में सांस्कृतिक रूप और सामाजिक रूप से भी क्रांतिकारी थे। परंतु स्वतंत्रता के पश्चात भारत में उन्हें उनका उचित सम्मान कभी प्राप्त नहीं हुआ। यह कथा है श्यामजी कृष्ण वर्मा (Shyamji Krishna Varma) की, जिन्होंने जात पात धर्म से ऊपर उठकर राष्ट्रसेवा में सर्वस्व समर्पित कर दिया।
श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर 1857 को गुजरात राज्य के कच्छ प्रांत के मांडवी जिले में हुआ था। वे एक निम्न वर्ग से आते थे, जिन्हें अधिक सुविधाए नहीं प्राप्त थी। परंतु वे विपरीत परिस्थितियों में भी अपने लिए कुछ न कुछ उपाय ढूंढ ही लेते थे। बॉम्बे आकर उन्होंने संस्कृत में शिक्षा एवं दीक्षा लेनी प्रारंभ की और वे इसमें इतने निपुण हो गए कि श्यामजी कृष्ण वर्मा ने काशी के पंडितों तक को शास्त्रार्थ के लिए आवाहन किया। काशी के विद्वानों ने उन्हें पंडित की उपाधि प्रदान की, जो एक गैर ब्राह्मण के लिए कहने को अद्वितीय थी। परंतु काशी की यह भी एक रीति थी, जहां जाति या जन्म से ऊपर व्यक्ति के कर्म अधिक महत्वपूर्ण थे। वामपंथी और पेरियारवादी ये पढ़कर अपनी कब्रों में अवश्य तड़प रहे होंगे।
लंदन में ‘इंडियन होम रूल सोसाइटी’ की स्थापना की
तद्पश्चात 1888 में अजमेर में वकालत के दौरान स्वराज के लिये काम करना शुरू कर दिया था। मध्य प्रदेश के रतलाम और गुजरात के जूनागढ़ में दीवान रहकर उन्होंने जनहित के काम किये। मात्र बीस वर्ष की आयु से ही वे क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे। वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित थे। 1918 के बर्लिन और इंग्लैंड में हुए विद्या सम्मेलनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था।
1897 में वे पुनः इंग्लैंड गये। 1905 में लॉर्ड कर्जन की ज्यादतियों के विरुद्ध संघर्षरत रहे। इसी वर्ष इंग्लैंड से मासिक समाचार-पत्र “द इण्डियन सोशियोलोजिस्ट” निकाला, जिसे आगे चलकर जिनेवा से भी प्रकाशित किया गया। इंग्लैंड में रहकर उन्होंने इंडिया हाउस की स्थापना की। भारत लौटने के बाद 1905 में उन्होंने क्रान्तिकारी छात्रों को लेकर इंडियन होम रूल सोसायटी की स्थापना की।
यही संस्था तत्कालीन भारतवंशी क्रांतिकारियों के लिए किसी विद्यामन्दिर से कम नहीं थी। इसी इंडिया हाउस में उद्भव हुआ दो ओजस्वी क्रांतिकारियों का- विनायक दामोदर सावरकर एवं मदनलाल ढींगरा। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में वीर सावरकर को श्यामजी कृष्णवर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए, जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से अधिक प्रभावित थे। 10 मई 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लंदन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई।
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इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। जून 1908 में इनकी पुस्तक द इण्डियन वॉर ऑफ़ इण्डिपेण्डेंस : 1857 तैयार हो गयी परंतु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लंदन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियां फ्रांस पहुंचायी गयीं।
इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतंत्रता की पहली लड़ाई बताया। मई 1909 में इन्होंने लंदन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परंतु उन्हें वहां वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। इस पुस्तक को सावरकार ने पीक वीक पेपर्स व स्काउट्स पेपर्स के नाम से भारत पहुंचाई थी।
दूसरी ओर 9 जुलाई 1909 की शाम को इंडियन नेशनल एसोसिएशन के वार्षिकोत्सव में भाग लेने के लिये भारी संख्या में भारतीय और अंग्रेज इकट्ठे हुए। जैसे ही भारत सचिव के राजनीतिक सलाहकार सर विलियम हट कर्जन वायली अपनी पत्नी के साथ हाल में घुसे, ढींगरा ने उनके चेहरे पर पांच गोलियां दागी, इसमें से चार सही निशाने पर लगीं। उसके बाद ढींगरा ने अपने पिस्तौल से स्वयं को भी गोली मारनी चाही किन्तु उन्हें पकड़ लिया गया एवं 17 अगस्त 1909 को उन्होंने वीरगति प्राप्त की।
31 मार्च 1930 को जिनेवा के एक अस्पताल में वे अपना नश्वर शरीर त्यागकर चले गये। उनका शव अंतरराष्ट्रीय कानूनों के कारण भारत नहीं लाया जा सका और वहीं उनकी अन्त्येष्टि कर दी गयी। स्वतंत्र भारत में भी उन्हें कभी भी उनके कद और उनके विचारधारा के कारण उनका उचित सम्मान नहीं मिल पाया।
अस्थि कलश लाए थे मोदी
परंतु यह सब बदला 2003 में। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 अगस्त 2003 को भारत की स्वतंत्रता के 55 वर्ष बाद स्विस सरकार से अनुरोध करके जिनेवा से श्यामजी कृष्ण वर्मा और उनकी पत्नी भानुमती की अस्थियों को भारत मंगाया। बम्बई से लेकर माण्डवी तक पूरे राजकीय सम्मान के साथ भव्य जुलूस की शक्ल में उनके अस्थि-कलशों को गुजरात लाया गया। वर्मा के जन्म स्थान में दर्शनीय क्रान्ति-तीर्थ बनाकर उसके परिसर स्थित श्यामजी कृष्ण वर्मा स्मृतिकक्ष में उनकी अस्थियों को संरक्षण प्रदान किया।
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उनके जन्म स्थान पर गुजरात सरकार द्वारा विकसित श्यामजी कृष्ण वर्मा मेमोरियल को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 13 दिसंबर 2010 को राष्ट्र को समर्पित किया गया। कच्छ जाने वाले सभी देशी विदेशी पर्यटकों के लिये माण्डवी का क्रान्ति-तीर्थ एक उल्लेखनीय पर्यटन स्थल बन चुका है। क्रान्ति-तीर्थ के श्यामजी कृष्ण वर्मा स्मृतिकक्ष में पति-पत्नी के अस्थि-कलशों को देखने दूर-दूर से पर्यटक गुजरात आते हैं। श्यामजी कृष्ण वर्मा को उनका मूल स्थान दिलाने की लड़ाई बहुत लंबी है, परंतु सही दिशा में प्रयास तो प्रारंभ हो ही चुका है।
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