क्या है ‘स्लम टूरिज्म’ और क्यों भारत के मलिन बस्तियों में गरीबी देखने आते हैं विदेशी? यहां समझिए

एजेंडाधारियों ने भारत के 'स्लम' की इतनी ब्रांडिंग जो कर दी है!

स्लम टूरिज्म

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स्लम टूरिज्म: लोग जब भारत में घूमने आते है उन्हें यहां सबसे ज्यादा कहां घूमने में मजा आता है? दिल्ली? आगरा? या फिर स्लम? अब आप सोच रहे होंगे कि भला स्लम घूमने में विदेशियों को मजा कैसे आएगा? अगर ऐसा सोच रहे हैं तो आप गलत हैं क्योंकि इन पश्चिमी देशों के लोगों ने ‘स्लम’ को भारत की पहचान बनाकर छोड़ा है। भारत, जो अपने आप में ही संस्कृति और विविधता से भरा हुआ देश है, उसे विदेशी अभी भी स्लम के तौर पर इंगित करते हैं। भारत में पर्यटन की कई जगहें हैं लेकिन उन्हें स्लम देखना है और अपने ब्लॉग या कैमरे में उसी की तस्वीर कैद कर, उसे ही भारत की तस्वीर बतानी है। आज के समय में भारत, दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है, देश की इकोनॉमी सबसे बेहतर स्थिति में है, हम कई देशों को पीछे छोड़ रहे हैं लेकिन पश्चिमी देशों का चश्मा अभी भी पुराना ही है। पश्चिमी देशों द्वारा भारत को आज भी उसी तराजू में तोला जाता है, जहां गरीबी का बोल-बाला है। भारत के स्लम की इतनी ब्रांडिंग हो गई है कि अब दुनिया से आने वाले पर्यटक स्लम की ओर ज्यादा आकर्षित होते दिख रहे हैं।

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स्लम टूरिज्म: फिल्मों ने इस ट्रेंड को बढ़ाया है

ऑक्सफ़ोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के मुताबिक ‘स्लमिंग’ शब्द का सबसे पहला प्रयोग 1884 में हुया था। दरअसल, एक मलिन बस्ती या स्लम किसी शहर का वह क्षेत्र होता है, जहां कि स्थिति बहुत ज्यादा बेहतर नहीं होती। एक तरह से वहां रहने वाले लोग भी स्थानीय नहीं होते हैं लेकिन माहौल ही ऐसा बना दिया गया है कि दुनिया की नजर में उन्हें वहां का स्थानीय या मूल निवासी बताया जाता है और विक्टिम कार्ड का खेल खेला जाता है। हालांकि, इस प्रकार के स्थानों की स्थिति के बारे में करीब से अध्ययन करने के लिए सर्वप्रथम लंदन में, व्हाइट चैपल या शोर्डिच जैसे मलिन बस्तियों का दौरा किया गया था।

लेकिन सवाल अब भी उठता है कि स्लम को लेकर जो लोगों की मानसिकता बन गई है क्या उसके पीछे सिर्फ पश्चिमी देशों की गलती है? ऐसा कहना बिल्कुल गलत होगा क्योंकि पिछले कई वर्षों में भारतीय सिनेमा के माध्यम से कुछ ऐसी फिल्में भी आयी है, जिनमें भारत को गरीब, भूखे और नंगों का देश दिखाया गया है। रणवीर सिंह की ‘गली बॉय’ भी उन्हीं में से एक है, जिसे ऑस्कर में भेजा गया था। ‘गली बॉय’ को ऑस्कर के लिए चुने जाने के पीछे की मंशा एकदम साफ़-साफ दिखाई देती है।

वर्ष 2009 में, ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ को डैनी बॉयल के द्वारा ऑस्कर में नामांकित किया गया था, जिसमें भारत को एक बहुत ही गरीब, पिछड़े देश के रूप में दिखाया गया था। इसके बावजूद, फिल्म को ऑस्कर में सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ निर्देशक सहित 8 पुरस्कार मिले, जिसमें ध्वनि मिश्रण के लिए एआर रहमान और रेसुल पुकुट्टी को मिले 2 पुरस्कार भी शामिल हैं। कहा जाता है कि डैनी बॉयल, मीरा नायर के द्वारा निर्देशित 1988 की फिल्म ‘सलाम बॉम्बे’ से प्रेरित थे, जिसे कान फिल्म समारोह में कई पुरस्कार भी मिले थे। ऐसी अनेक फिल्में की गई हैं, जिसमें भारत की स्थिति को बद से बदतर दिखाया गया है और स्लम की ओर लोगों के झुकाव का यह एक बड़ा कारण रहा है।

भारत में गरीबी देखने आते हैं लोग

ज्ञात हो कि एशिया की सबसे बड़ी मलिन बस्ती मुंबई की धारावी वर्ष 2019 में भारत आने वाले यात्रियों के लिए पसंदीदा पर्यटक अनुभव का केंद्र बन गयी थी, जिसने ‘ताजमहल’ को भी पीछे छोड़ दिया था। अब आप समझ सकते हैं कि विदेशियों के दिमाग में भारत की क्या स्थिति है और वो आज भी भारत को लेकर क्या सोचते हैं!  इसके अलावा भारत की राजधानी के बीचों-बीच 553 एकड़ की झुग्गी बस्ती में दस लाख से अधिक लोग रहते हैं लेकिन अगर इसमें स्थानीय लोगों की तलाश की जाए, उनकी संख्या नगण्य होगी। यह कहा जा सकता है कि ऐसी बस्तियों में 99 फीसदी लोग बाहर के ही होते हैं या तो वे अन्य राज्यों से आजीविका की तलाश में उस शहर में पहुंचते हैं और कम खर्च के कारण वैसी जगहों पर बस जाते हैं या लोगों की इस भीड़ में वे घुसपैठिए शामिल होते हैं, जो अन्य देशों से चोरी-छिपे भारत में घुसकर यहां अपना डेरा जमा लेते हैं।

इसके अलावा कई भारतीय कंपनियों के द्वारा पर्यटन की पेशकश ही गरीबी को दिखाकर की जाती है। वैसे देखा जाए तो पश्चिमी लोग अक्सर उन गाइडों के नेतृत्व में होते हैं, जो इसी तरह की गरीबी वाले मौहौल में पले-बढ़े हैं या फिर वर्तमान में रहते हैं। ऐसे में विदेशियों को उतनी ही जानकारी मिल पाती है जितना उन्हें बताया जाए। बाकी बचा हुआ काम ‘एजेंडाधारी’ फिल्में और विदेशियों के ब्लॉग तो कर ही देते हैं।

बताते चलें कि पश्चिमी लोग आज भी भारत में गरीबी ही देखने आते हैं, उन्हें यहां की चमक, यहां का विकास, यहां का विस्तृत इतिहास देखने में कोई उत्सुकता नहीं होती, जो काफी निंदनीय है। इसके अलावा विदेशी ब्लॉगर्स, ऐसे स्लम को रिकॉर्ड करते हैं और उसे ऑनलाइन माध्यम से लोगों तक पहुंचाकर, सहानुभूति हासिल कर पैसे कमाते हैं। भारत में पर्यटन का विस्तार काफी ज्यादा बड़ा है। यहां पर एडवेंचर पर्यटन, स्पोर्ट्स पर्यटन, नेचर पर्यटन आदि मौजूद है लेकिन विदेशियों की महिमा और हमारे फिल्मकारों के कुत्सित प्रयास से अब इसी में एक और नाम जुड़ गया है, जो है- स्लम टूरिज्म, यह सुनने में अच्छा नहीं लगता है लेकिन यही सच्चाई है। सरकार को भी स्लम टूरिज्म पर ध्यान देते हुए, इसके लिए कोई तरकीब निकालने पर विचार करना चाहिए।

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