क्यों आज तक कोई भारतीय फिल्ममेकर 1946 के नौसेना विद्रोह पर कोई फिल्म न बना सका?

वो विद्रोह जिसने हिला दीं अंग्रेज सरकार की चूलें

Indian Naval Mutiny

“लाल किले से आई आवाज़,

सहगल ढिल्लों शाहनवाज़,

इनकी हो उमर दराज!”

इस नारे ने मानो पूरे राष्ट्र में विद्रोह का ऐसा बिगुल फूंक दिया जिसका आभास किसी को स्वप्न में भी नहीं था। इसका प्रभाव ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लिमेंट एटली के शब्दों में था, जब उन्होंने 1950 के दशक में भारत भ्रमण किया था।

अपनी यात्रा के दौरान कलकत्ता हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस पीवी चक्रवर्ती ने उनसे पूछा कि “आपके पास भारत त्यागने के लिए कोई विशेष कारण तो था नहीं, फिर आप भारत छोड़ने को विवश क्यों हुए?”

एटली के अनुसार, “कारण तो कई हैं, लेकिन वास्तव में ये सुभाष चंद्र बोस और उनके द्वारा तैयार की गई इंडियन नेशनल आर्मी थी, जिसके कारण हमारी फौजें कमजोर हुई और रॉयल इंडियन नेवी विद्रोह हुआ”।

जब उनसे गांधी और नेहरू द्वारा रचित ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के प्रभाव के बारे में पूछा, तो उन्होंने व्यंग्यात्मक मुस्कान बिखेरते हुए बोला, “नगण्य [MINIMAL]”।

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नौसेना विद्रोह पर कोई फिल्म क्यों नहीं बनी?

परंतु आज देश को स्वतंत्र हुए 75 से अधिक वर्ष हो चुके हैं और जिस अभूतपूर्व क्रांति के कारण अंग्रेज़ों के पाँव उखाड़ दिए गए उसे भी 76 वर्ष से अधिक हुए हैं, परंतु क्या आपको पता है कि आज तक इस क्रांति पर एक भी चलचित्र, एक भी वेब सीरीज़ तक नहीं बनी है? गांधी जैसे व्यक्ति पर नाना प्रकार के कृति निकल चुके हैं, नेहरू-गांधी परिवार का तो पूछो ही मत, यहां तक कि भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस को भी कुछ फिल्में प्राप्त हुई है, परंतु देश के असली नायकों को एक ढंग की फिल्म भी भारतीय सिनेमा नहीं दे पाई, वो भी तब, जब इसे समर्थन देने वालों में स्वयं भारतीय सिनेमा के कुछ तगड़े पुरोधा शामिल थे।

अभी कुछ ही दिनों पूर्व प्रमोद कपूर द्वारा रचित ‘1946 – लास्ट वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस : रॉयल इंडियन नेवी म्यूटिनी’ के कुछ अंश पढ़ रहे थे, तो प्रारंभ में ही पता चला कि उसे समर्थन देने वालों में अग्रणी थे कम्युनिस्ट मंडली, जिसमें सम्मिलित थे IPTA। अब ये किस चिड़िया का नाम है? IPTA माने तो इंडियन पीपल थियेटर्स एसोसिएशन जिसके सदस्यों में ख्वाजा अहमद अब्बास, पंडित रवि शंकर, सलिल चौधुरी, बलराज साहनी एवं पृथ्वीराज कपूर जैसे गणमान्य सदस्य सम्मिलित थे। जी हां, वही पृथ्वीराज कपूर जो आज बहुप्रतिष्ठित कपूर वंश के संस्थापक हैं और जिनके पृथ्वी थिएटर्स की धूम एक समय पूरे महाराष्ट्र में मचती थी।

अब बताइए इनमें किसी ने एक बार भी कभी इस नेक कार्य को सिल्वर स्क्रीन पर लाने का कष्ट उठाया? किसने सोचा कि चलिए आज नेताजी के वीर जवानों की गौरवगाथा को चित्रित करते हैं? कोई है? कोई नहीं। आज भारत के सिनेमा इतिहास में केवल एक फिल्म है, जिसने इस गौरव गाथा का उल्लेख किया है। जी हां, उल्लेख, चित्रण भी नहीं। उसका नाम है Iyobinte Pusthakam, जो मलयाली सिनेमा में 2014 में प्रदर्शित हुई थी एवं जिसमें प्रमुख पात्रों में से एक इस घटना के प्रत्यक्ष दर्शियों में से एक था।

परंतु ये भेदभाव क्यों और किसलिए? बंधुवर, हमें स्वतंत्रता ‘दे दी तूने आजादी बिना खड्ग बिना ढाल’ जैसे खोखले नारो से कभी नहीं मिली। परंतु ऐसा भी क्या हुआ जिसके पश्चात ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य इतनी जल्दी अस्त हो गया? जिसे न सम्राट विलियम डिगा पाया, न हिटलर, न हिरोहितो और न ही मुसोलिनी, उसे परास्त किया एक ऐसे क्रांतिकारी ने जिसकी सेना ने ब्रिटिश शासन को दर्पण दिखाया और यह भी दिखाया कि अकड़ में तो रावण भी नहीं टिक पाया, तो फिर ब्रिटिश साम्राज्य की क्या हस्ती?

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विद्रोह की पूरी कहानी

लाल किले के मुकदमे से ब्रिटिश साम्राज्य के पतन का प्रारंभ हुआ। तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस या तो भूमिगत हो चुके थे या फिर उनका कोई अता पता नहीं था। तत्कालीन ब्रिटिश इंडियन आर्मी प्रमुख जनरल क्लाउड औचिनलेक ने भारतीय वाइसरॉय लॉर्ड वॉवेल को आश्वस्त किया कि भगोड़ी फौज के विरुद्ध ऐसे आरोप लगे हैं कि भारत में उनके दास कभी भी इन ‘कायरों’ के साथ अपने आप को संबोधित नहीं करेंगे। लेकिन जनरल औचिनलेक यह भूल गए कि इंग्लैंड और भारत की जनता में आकाश पाताल का अंतर है। जरुरी नहीं कि जो इंग्लैंड की जनता के लिए देशद्रोही हो, वो भारत के लिए भी हो। धीरे-धीरे इंडियन नेशनल आर्मी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की शौर्य गाथा भी देश के कोने-कोने में फैलने लगी और प्रमुख अफसरों पर जब मुकदमा चलता, तो पूरे देश में गूंजता-

“लाल किले से आई आवाज, सहगल, ढिल्लों, शाहनवाज़,

इनकी हो उमर दराज!”

लाल किले में इंडियन नेशनल आर्मी के अफसरों विशेषकर मेजर जनरल शाह नवाज़ खान, कर्नल प्रेम कुमार सहगल और लेफ्टिनेंट कर्नल गुरबक्श सिंह ढिल्लों के विरुद्ध प्रारंभ हुए मुकदमे का असर ठीक उल्टा पड़ा और मुकदमा खत्म होते-होते तत्कालीन सैन्य प्रमुख जनरल क्लाउड औचिनलेक को भी आभास हो चुका था कि अब स्थिति पहले जैसी नहीं रही। उन्होंने ब्रिटिश शासन को स्पष्ट चेतावनी दी कि उक्त अफसरों में किसी को भी दंडित करने का दुष्परिणाम बहुत भयानक होगा।

जनरल औचिनलेक की भविष्यवाणी एकदम सत्य सिद्ध हुई। 18 फरवरी 1946 को बॉम्बे के निकट नौसैनिक ट्रेनिंग स्कूल HMIS Talwar पर वो हुआ, जिसकी कल्पना किसी ब्रिटिश साम्राज्यवादी ने नहीं की थी। अनेकों गैर कमीशन नाविकों ने घटिया खानपान और रहन-सहन को लेकर हड़ताल कर दी। यद्यपि यह मुम्बई में आरंभ हुआ किन्तु कराची से लेकर कोलकाता तक इसे पूरे ब्रिटिश भारत में इसे भरपूर समर्थन मिला। कुल मिलाकर 78 जलयानों, 20 स्थलीय ठिकानों एवं 20,000 नाविकों ने इसमें भाग लिया।

Navy revolt

विद्रोह की स्वत: स्फूर्त शुरुआत नौसेना के सिगनल्स प्रशिक्षण पोत ‘आईएनएस तलवार’ से हुई। नाविकों द्वारा खराब खाने की शिकायत करने पर अंग्रेज कमान अफसरों ने नस्ली अपमान और प्रतिशोध का रवैया अपनाया। इस पर 18 फ़रवरी को नाविकों ने भूख हड़ताल कर दी। हड़ताल अगले ही दिन कैसल, फोर्ट बैरकों और बम्बई बंदरगाह के 22 जहाजों तक फैल गयी। 19 फ़रवरी को एक हड़ताल कमेटी का चुनाव किया गया। नाविकों की मांगों में बेहतर खाने और गोरे और भारतीय नौसैनिकों के लिए समान वेतन के साथ ही आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों और सभी राजनीतिक बन्दियों की रिहाई तथा इंडोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाये जाने की मांग भी शामिल हो गयी। विद्रोही बेड़े के मस्तूलों पर कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के झण्डे एक साथ फहरा दिये गये। 20 फ़रवरी को विद्रोह को कुचलने के लिए सैनिक टुकड़ियां बम्बई लायी गयीं। नौसैनिकों ने अपनी कार्रवाइयों के तालमेल के लिए पांच सदस्यीय कार्यकारिणी चुनी। लेकिन शान्तिपूर्ण हड़ताल और पूर्ण विद्रोह के बीच चुनाव की दुविधा उनमें अभी बनी हुई थी, जो काफी नुकसानदेह साबित हुई। 20 फ़रवरी को उन्होंने अपने-अपने जहाजों पर लौटने के आदेश का पालन किया, जहां सेना के गार्डों ने उन्हें घेर लिया। अगले दिन कैसल बैरकों में नाविकों द्वारा घेरा तोड़ने की कोशिश करने पर लड़ाई शुरू हो गयी जिसमें किसी भी पक्ष का पलड़ा भारी नहीं रहा और दोपहर बाद चार बजे युद्ध विराम घोषित कर दिया गया। एडमिरल गाडफ्रे अब बमबारी करके नौसेना को नष्ट करने की धमकी दे रहा था। इसी समय लोगों की भीड़ गेटवे ऑफ इंडिया पर नौसैनिकों के लिए खाना और अन्य मदद लेकर उमड़ पड़ी।

प्रदर्शनकारियों पर बर्बर हमला

विद्रोह की खबर फैलते ही कराची, कलकत्ता, मद्रास और विशाखापत्तनम के भारतीय नौसैनिक तथा दिल्ली, ठाणे और पुणे स्थित कोस्ट गार्ड भी हड़ताल में शामिल हो गये। 22 फ़रवरी हड़ताल का चरम बिन्दु था, जब 78 जहाज, 20 तटीय प्रतिष्ठान और 20,000 नौसैनिक इसमें शामिल हो चुके थे। इसी दिन कम्युनिस्ट पार्टी के आह्नान पर बम्बई में आम हड़ताल हुई। नौसैनिकों के समर्थन में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे मजदूर प्रदर्शनकारियों पर सेना और पुलिस की टुकड़ियों ने बर्बर हमला किया, जिसमें करीब तीन सौ लोग मारे गये और 1700 घायल हुए। इसी दिन सुबह, कराची में भारी लड़ाई के बाद ही ‘हिन्दुस्तान’ जहाज से आत्मसमर्पण कराया जा सका। अंग्रेजों के लिए हालात संगीन थे, क्योंकि ठीक इसी समय बम्बई के वायुसेना के पायलट और हवाई अड्डे के कर्मचारी भी नस्ली भेदभाव के विरुद्ध हड़ताल पर थे तथा कलकत्ता और दूसरे कई हवाई अड्डों के पायलटों ने भी उनके समर्थन में हड़ताल कर दी थी। कैण्टोनमेण्ट क्षेत्रों से सेना के भीतर भी असन्तोष खदबदाने और विद्रोह की सम्भावना की ख़ुफिया रिपोर्टों ने अंग्रेजों को भयाक्रान्त कर दिया था।

जब HMIS Talwar के कमांडर ने उनकी मांगों को सुनने के बजाए उन्हें अभद्र भाषा में उलाहने देने प्रारंभ किए, तो भारतीयों का क्रोध सातवें आसमान के पार निकल गया। उन्होंने जहाज पर धावा बोलते हुए ब्रिटिश पताका हटाई और कांग्रेसी तिरंगा लहरा दिया। यही नहीं, जो भी अंग्रेज़ अफसर विरोध करता या तो उसे गोलियों से भून देते या फिर उसे जहाज से नीचे समुद्र में फिंकवा देते। इसे ही बाद में रॉयल इंडियन नेवी विद्रोह के बॉम्बे विद्रोह के नाम से जाना गया।

अब स्वयं कल्पना कीजिए, इसका अंश मात्र भी अगर दिखा दिया जाए यदि सिल्वर स्क्रीन या OTT पर, तो? क्या आपको पता है कि इन विद्रोहियों को अप्रत्यक्ष समर्थन देने वाले अफसरों में से एक, सौरेन्द्र नाथ कोहली बाद में चलकर हमारे नौसेना के अध्यक्ष भी बने थे? इसी घटना के प्रत्यक्षदर्शी एक और अफसर थे सरदारीलाल मथरादास नंदा, जो बाद में चलकर नौसेनाध्यक्ष बने। अब ये अलग बात थी कि वे पूरे प्रकरण के समय तटस्थ रहे, परंतु 1971 के विजय में उनकी एक महत्वपूर्ण भूमिका थी।

परंतु ये हमारे देश का दुर्भाग्य है कि इनकी शौर्य गाथा कभी भी सिल्वर स्क्रीन या OTT पर निश्चल भाव से नहीं दिखाई जा सकी। यदि ऐसा होता, तो गांधी और नेहरू और उनके चाटुकार इतने वर्षों से जो अपनी दुकान चला रहे थे, वो कदापि न चला पाते, क्योंकि देश को भी ज्ञात रहता कि देश को स्वतंत्रता कुछ बावले नाविकों और सैनिकों ने दिलाई थी, अहिंसा के खोखले वादों ने।

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