श्रीकृष्ण की द्वारकापुरी के निर्माण-विनाश और चल रहे जीर्णोद्धार की कहानी

द्वारकापुरी की वास्तविक कहानी यहां है!

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2022 में एक अभियान प्रारंभ हुआ जिसने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। केंद्र सरकार के अंतर्गत आने वाले पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग यानी ASI ने अपने अंडरवॉटर विंग को पुनर्स्थापित किया। यह 2001 में प्रारंभ हुआ, परंतु इसे 2011 में ‘फंड्स की कमी का बहाना’ बनाकर बंद कर दिया गया।

परंतु ऐसा क्या हुआ? आखिर जो परियोजना बंद हुई वह पुनः क्यों प्रारंभ हुई? इसका संबंध एक नगरी से है, उस नगरी से जो समुद्र में समाधि बनाए हुए हैं। ये नगरी कभी केवल एक नगरी नहीं, एक साम्राज्य थी, यहांं स्वयं नारायण के एक प्रभावशाली अवतार विराजमान थे। ये कथा है द्वारका पुरी की, जिनके संस्थापक थे परमपूज्य द्वारकाधीश श्रीकृष्ण। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे इस नगरी का अचानक विध्वंस हुआ और क्यों इस नगरी के कुछ अंशों की पुनर्स्थापना की आवश्यकता है।

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द्वारका पुरी की स्थापना कैसे हुई?

5000 साल पूर्व भगवान कृष्ण ने द्वारका नगरी बसाई थी। जिस स्थान पर उनका निजी महल और हरिगृह था, वहां आज द्वारकाधीश मंदिर है। इसलिए कृष्ण भक्तों की दृष्टि में यह एक महान तीर्थ है। वैसे भी द्वारका नगरी आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित देश के चारों धाम में से एक है। यही नहीं, द्वारका नगरी पवित्र सप्तपुरियों में से भी एक है। मंदिर का वर्तमान स्वरूप 16वीं सदी में प्राप्त हुआ।

द्वारकाधीश मंदिर के गर्भगृह में चांदी के सिंहासन पर भगवान कृष्ण की श्यामवर्णी चतुर्भुज प्रतिमा विराजमान है। यहां उन्हें ‘रणछोड़जी’ भी कहा जाता है। भगवान हाथ में शंख, चक्र, गदा और कमल लिए हुए हैं। बहुमूल्य आभूषणों और सुंदर वेशभूषा से श्रृंगार की गई प्रतिमा सभी को आकर्षित करती है। कहते हैं कि जब जरासंध ने कंस के वध के पश्चात मथुरा पर निरंतर आक्रमण किए, तो श्रीकृष्ण ने अपने नागरिकों की रक्षा हेतु मथुरा से निकलकर द्वारका क्षेत्र में पहले से स्थापित खंडहर बने नगर में एक नया नगर बसाया। ऐसा कहा जा सकता है कि भगवान कृष्ण ने अपने पूर्वजों की भूमि को फिर से रहने लायक बनाया।

लेकिन, बाद में ऐसा क्या हुआ कि द्वारका नगरी समुद्र में समा गई। किसने किया द्वारका को नष्ट? क्या प्राकृतिक आपदा से नष्ट हुई द्वारका? इन प्रश्नों के उत्तर पाने की कोशिशें अब तक जारी हैं। समुद्र में हजारों फीट नीचे द्वारका नगरी के अवशेष मिले हैं।

द्वारका पुरी के नष्ट होने के पीछे भी अनेक किवदंतियां हैं। परंतु जो सबसे प्रचलित है वो है यह मौसुल पर्व की किवदंती, जो प्रारंभ हुई गांधारी के श्राप से। गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया था कि जैसे उनके कारण उनके कुल यानी कौरवों का नाश हुआ, वैसे ही श्रीकृष्ण के कुल यानी यदुवंश का भी नाश होगा। गांधारी को बाद में अपनी भूल का आभास हुआ, परंतु श्राप तो श्राप था, लौटाया नहीं जा सकता था।

तद्पश्चात कुछ समय के बाद द्वारका पुरी में सात्यकी, कृतवर्मा जैसे योद्धा एकत्रित हुए। ये वो लोग थे जो महाभारत में विपरीत पक्षों से लड़े एवं युद्धोपरांत जीवित भी रहे। जनश्रुतियों के अनुसार, जो वार्तालाप हास्य परिहास से प्रारंभ हुआ, वह शीघ्र ही हिंसक झड़प में बदलने लगा, और यदुवंशी आपस में ही झगड़ने लगे। श्रीकृष्ण और बलराम से भी जब ये लोग नहीं संभले, तो ये उनके लिए संकेत था कि अब युग बदल रहा है और उनके जाने का समय आ चुका है। ऐसे में बलराम तीर्थ पर निकल गए और श्रीकृष्ण योगनिद्रा में लीन हो गए। उनके पांव को हिरण के मुख समान समझ एक आखेटक ने लक्ष्य पर लिया और उसी पर तीर चला दिया, जिसके कारण उन्होंने अपना देह त्याग दिया।

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कलयुग का प्रारंभ

यहीं से कलयुग का प्रारंभ हुआ और समुद्र में मौसुल समान शक्तियों के कारण उठी लहरों ने शीघ्र ही द्वारका नगरी को लील लिया। बहुत समय से जाने-माने शोधकर्ताओं ने पुराणों में वर्णित द्वारिका के रहस्य का पता लगाने का प्रयास किया, लेकिन वैज्ञानिक द्वारा तथ्यों पर आधारित कोई भी अध्ययन कार्य अभी तक पूरा नहीं किया गया है। 2005 में द्वारका के रहस्यों से पर्दा उठाने के लिए अभियान शुरू किया गया था। इस अभियान में भारतीय नौसेना ने भी मदद की। अभियान के दौरान समुद्र की गहराई में कटे-छटे पत्थर मिले और यहां से लगभग 200 अन्य नमूने भी एकत्र किए गए, लेकिन आज तक यह तय नहीं हो पाया कि यह वही नगरी है अथवा नहीं जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने बसाया था। आज भी यहां वैज्ञानिक स्कूबा डायविंग के जरिए समुद्र की गहराइयों में छुपे इस रहस्य को सुलझाने में लगे हैं।

कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ पर राज उन्होंने द्वारका में किया। यहीं बैठकर उन्होंने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। पांडवों को सहारा दिया। धर्म की जीत कराई और शिशुपाल, दुर्योधन जैसे अधर्मियों को मिटाया। द्वारका उस जमाने में राजधानी बन गई थीं। बड़े-बड़े राजा यहां आते थे और बहुत से मुद्दों पर भगवान कृष्ण की सलाह लेते थे। इस स्थान का धार्मिक महत्व तो है ही, रहस्य भी कम नहीं हैं। कहा जाता है कि कृष्ण की मृत्यु के साथ उनकी बसायी हुई यह नगरी समुद्र में डूब गई। आज भी यहां उस नगरी के अवशेष मौजूद हैं।

द हिन्दू की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1963 में सबसे पहले द्वारका नगरी का उत्खनन डेक्कन कॉलेज पुणे, डिपार्टमेंट ऑफ़ आर्कियोलॉजी और गुजरात सरकार ने मिलकर किया था। इस दौरान करीब 3 हजार साल पुराने बर्तन मिले थे। इसके तकरीबन एक दशक बाद आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की अंडर वॉटर आर्कियोलॉजी विंग को समंदर में कुछ ताम्बे के सिक्के और ग्रेनाइट स्ट्रक्चर भी मिले।

द्वारका पुरी के निकट गुजराती तट पर बसे द्वारका धाम पर रणछोड़ जी मंदिर बसा है। यहां गोमती के दक्षिण में पांच कुएं हैं। निष्पाप कुण्ड में नहाने के बाद यात्री इन पांच कुओं के पानी से कुल्ले करते हैं। तब रणछोड़जी के मंदिर की ओर जाते है। रास्ते में कितने ही छोटे मंदिर पड़ते हैं-कृष्णजी, गोमती माता और महालक्ष्मी के मंदिर रणछोड़जी का मंदिर द्वारका का सबसे बड़ा और सबसे बढ़िया मंदिर है। सामने ही कृष्ण भगवान की चार फुट ऊंची मूर्ति है। यह चांदी के सिंहासन पर विराजमान है। मूर्ति काले पत्थर की बनी है। हीरे-मोती इसमें चमचमाते हैं।

सोने की ग्यारह मालाएं गले में हैं। भगवान मूल्यवान पीले वस्त्र पहने हैं। भगवान के सिर पर सोने का मुकुट है। लोग भगवान की परिक्रमा करते हैं और उन पर फूल और तुलसी दल चढ़ाते हैं। चौखटों पर चांदी के पत्तर मढ़े हैं। मंदिर की छत में बढ़िया-बढ़िया मूल्यवान झाड़-फानूस लटक रहे हैं। एक तरफ ऊपर की ओर जाने के लिए सीढ़िया हैं। पहली मंजिल में अम्बादेवी की मूर्ति है-ऐसी सात मंजिलें हैं और कुल मिलाकर यह मंदिर एक सौ चालीस फुट ऊंचा है। इसकी चोटी आसमान से बातें करती हैं।

आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदा मठ

इसी द्वारका पुरी में आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदा मठ भी है, जिसे आदि गुरू शंकराचार्य ने बनवाया था। उन्होंने पूरे देश के चार कोनों में चार मठ बनाये थे। उनमें एक यह शारदा-मठ भी है। परंपरागत रूप से आज भी शंकराचार्य मठ के अधिपति हैं। भारत में सनातन धर्म के अनुयायी शंकराचार्य का सम्मान किया जाता है। रणछोड़जी के मंदिर से द्वारका शहर की परिक्रमा शुरू होती है। पहले सीधे गोमती के किनारे जाते हैं। गोमती के नौ घाटों पर बहुत से मंदिर हैं, सांवलियाजी का मंदिर, गोवर्धननाथजी का मंदिर, महाप्रभुजी की बैठक।

आगे वासुदेव घाट पर हनुमानजी का मंदिर है। आखिर में संगम घाट आता है। यहां गोमती समुद्र से मिलती है। इस संगम पर संगम-नारायणजी का बहुत बड़ा मंदिर है।

एक समय था, जब राम सेतु को लोग मानने से भी मना कर देते थे और उसे नष्ट करने हेतु एड़ी चोटी का जोर लगाने को तैयार थे। परंतु अब ऐसा नहीं है। अब शीघ्र देश की सभी सांस्कृतिक विरासतों को पुनर्स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए जा रहे हैं। तो फिर श्रीकृष्ण की द्वारका नगरी क्यों पीछे रहे?

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