“कश्मीरियत, जम्हूरियत, इंसानियत”
राजतरंगिणी: यह नारा कहने को कश्मीर की परिभाषा है परंतु वास्तविक कश्मीर क्या है? क्या आपने सोचा? उर्दू में घुले ये चंद शब्द कश्मीर को परिभाषित करने हेतु पर्याप्त नहीं हो सकते। कश्मीर की वास्तविकता को परिभाषित करने के लिए एक विस्तृत इतिहास के आंकलन, उसके अन्वेषण की आवश्यकता तो अवश्य पड़ेगी। कुछ लोग कहेंगे कि कश्मीर का क्या इतिहास, परंतु इतिहास है और बहुत विस्तृत, बहुत भव्य, और वैभव एवं शौर्य से परिपूर्ण इतिहास है।
द कश्मीर फाइल्स में यूं ही नहीं ये संवाद है,
“जहां शिव, सरस्वती, ऋषि कश्यप हुए, वो कश्मीर हमारा है,
जहां शंकराचार्य ने तप किया, वो कश्मीर हमारा है,
जहां पंचतंत्र लिखा गया, वो कश्मीर हमारा था, तू जानता ही क्या है कश्मीर के बारे में?”….
इस इतिहास को एक व्यक्ति ने ऐसे संकलित किया कि वह भारतीय इतिहास में अमर हो गया परंतु स्वतंत्र भारत में उनका नाम ऐसे मिटा दिया गया, जैसे उनका अस्तित्व कभी था ही नहीं। जिनका नाम अरस्तू, अल बरूनी, फिरदौसी, अबुल फ़ज़ल, रोमेश चंद्र मजूमदार जैसे इतिहासकारों के साथ लिया जाना चाहिए था, अधिकतम लोगों को तो उनका नाम तक स्मरण नहीं होगा। परंतु यदि महाकवि कल्हण न होते तो आज कश्मीर का वास्तविक इतिहास संकलित न होता और वही बताया जाता, जो सिकंदर बुतशिकन और उसके अघोषित वंशज हमें बताते आए हैं।
और पढ़ें: हिंदू पत्नियां सलाहकार और मार्गदर्शिका होती थीं फिर ‘मुगल’ आ गए
विलक्षण महाकवि थे कल्हण
कल्हण (1150 ई.) कश्मीर के महाराज हर्षदेव (1068-1101) के महामात्य चंपक के पुत्र और संगीत मर्मज्ञ कनक के अग्रज थे। मंखक ने श्रीकंठचरित (1128-44) (सर्ग 25, श्लो. 78-20) में कल्याण नाम के इसी कवि को प्रौढ़ता को सराहा है। कल्हण परिहासपुर में जन्मे थे। कहते हैं कि ललितादित्य ने यहां अपना निवास और चार मंदिरों का निर्माण किया। इसमें से एक भगवान विष्णु (मुक्त केशव) को समर्पित था, जिसमें 84,000 तोले सोने की प्रतिमा स्थापित करी गई। इसी तरह के एक मंदिर में चांदी की एक प्रतिमा थी। उन्होंने एक भगवान बुद्ध की तांबे की प्रतिमा बनवाई जो “आकाश को छूती थी”। मुख्य मंदिर ललितादित्य द्वारा बनाए गए मार्तंड के भव्य सूर्य मंदिर से अधिक बड़ा था।
राजा ललितादित्य के देहांत के बाद उनके पुत्र ने अपना निवास बदल दिया और परिहासपुर राजधानी का दर्जा खो बैठा। झेलम नदी परिहासपुर से पूर्वोत्तर में बहती है, जहां सिन्ध नदी शादपुर संगम में उसमें विलय होती है। पहले ज़माने में यह संगम परिहासपुर के पास होता था। नदी के मार्ग में यह बदलाव प्राकृतिक नहीं बल्कि राजा अवंतिवर्मन के काल (855–883 ईसवी) में सुय्या पंडित द्वारा किया गया, जो राजा के विख्यात वास्तुशास्त्री थे और जिनके नाम पर आधुनिक सोपोर (सुय्यापुर) का नाम पड़ा है। नदीमार्ग के बदलते ही परिहासपुर का महत्व घट गया।
वास्तव में कल्हण एक विलक्षण महाकवि थे। उनकी “सरस्वती’ रागद्वेष से अलेप रहकर “भूतार्थ चित्रण’ के साथ ही साथ “रम्यनिर्माण’ में भी निपुण थी, तभी तो बीते हुए काल को “प्रत्यक्ष’ बनाने में उन्हें सरस सफलता मिली। “दुष्ट वैदुष्य’ से बचने का उन्होंने सुरुचिपूर्ण प्रयत्न किया और “कविकर्म’ के सहज गौरव को प्रणाम करते हुए उन्होंने अपनी प्रतिभा का सचेत उपयोग किया।
राजतरंगिणी में वर्णित है कश्मीर का इतिहास
सच तो यह है कि कल्हण ने “इतिहास” (इति+हास) को काव्य की विषय वस्तु बनाकर भारतीय साहित्य को एक नई विधा प्रदान की और राष्ट्रजीवन के व्यापक विस्तार के साथ-साथ मानव प्रकृति की गहराइयों को भी छू लिया। शांत रस के असीम पारावार में श्रृंगार, वीर, रौद्र, अद्भुत, वीभत्स और करुण आदि सभी रस हिलोरें लेते दिखाए गए हैं और बीच-बीच में हास्य और व्यंग के जो छीटे उड़ते रहते हैं वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। क्षेमेंद्र के बाद कल्हण ने ही तो सामयिक समाज पर व्यंग्य कसकर संस्कृत साहित्य की एक भारी कमी को पूरा करने में योगदान दिया।
कल्हण न होते तो इतिहास को उस वीर का आभास न होता, जिसने दुष्ट, क्रूर और रक्तपिपासु अरबी आक्रान्ताओं को न केवल रोका अपितु उन्हीं की शैली में सबक सिखाया और उन्हें गढ़ों में घुसकर उन्हें मारा। इन्हीं के कारण संसार को वीर शिरोमणि सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड़ के शौर्य से परिचय हुआ। राजतरंगिणी, कल्हण द्वारा रचित एक संस्कृत ग्रन्थ है। ‘राजतरंगिणी’ का शाब्दिक अर्थ है – राजाओं की नदी, जिसका भावार्थ है – ‘राजाओं का इतिहास या समय-प्रवाह’। यह कविता के रूप में है। इसमें कश्मीर का इतिहास वर्णित है जो महाभारत काल से आरम्भ होता है। राजतरंगिणी का इतिहास सप्तर्षि संवत् के माध्यम से लिखा गया। इसकी रचना काल सन ११४७ से ११४९ तक बताया जाता है। इस पुस्तक के अनुसार कश्मीर का नाम “कश्यपमेरु” था, जो ब्रह्मा के पुत्र ऋषि मरीचि के पुत्र थे।
राजतरंगिणी के प्रथम तरंग में बताया गया है कि सबसे पहले कश्मीर में पांडवों के सबसे छोटे भाई सहदेव ने राज्य की स्थापना की थी और उस समय कश्मीर में केवल वैदिक धर्म ही प्रचलित था। फिर सन् 273 ईसा पूर्व कश्मीर में बौद्ध धर्म का आगमन हुआ। १९वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में औरेल स्टीन (Aurel Stein) ने पण्डित गोविन्द कौल के सहयोग से राजतरंगिणी का अंग्रेजी अनुवाद कराया। राजतरंगिणी एक निष्पक्ष और निर्भय ऐतिहासिक कृति है। स्वयं कल्हण ने राजतरंगिणी में कहा है कि एक सच्चे इतिहास लेखक की वाणी को न्यायाधीश के समान राग-द्वेष-विनिर्मुक्त होना चाहिए, तभी उसकी प्रशंसा हो सकती है-
श्लाध्यः स एव गुणवान् रागद्वेषबहिष्कृता।
भूतार्थकथने यस्य स्थेयस्येव सरस्वती॥ (राजतरंगिणी, १/७)
राजतरंगिणी में आठ तरंग (अर्थात्, अध्याय) और संस्कृत में कुल ७८२६ श्लोक हैं। इस पुस्तक के प्रथम तीन अध्याय कश्मीर की पीढ़ी-दर-पीढ़ी से आ रही मौखिक परंपराओं का चित्रण है। अगले तीन अध्याय भी इतिवृत्तात्मक ही हैं। केवल अंतिम दो अध्याय कल्हण की व्यक्तिगत जानकारी एवं ग्रंथावलोकन पर आधारित हैं।
कल्हण की इस पुस्तिका के तीन घोषित उद्देश्य हैं-
- पुराने राजवंशों की जानकारी देना;
- पाठकों का मनोरंजन करना,
- अतीत से शिक्षा लेना।
स्पष्ट है पुस्तक के मूल उद्देश्य इतिहास से इतर हैं। ए एल वैषम के अनुसार कल्हण के राजतरंगिणी में तथ्यों पर ध्यान कम और नैतिकता से संबंध अधिक है। परंतु इतना जरूर कहना होगा कि राजतरंगिणी भारतीय इतिहास-लेखन का प्रस्थान-बिन्दु है। राजतरंगिणी में वर्णित कश्मीर के राजाओं की सूची नीचे दी गयी है। कोष्टक में पहले ‘तरंग संख्या और फिर श्लोक संख्या लिखी गयी है। राजतरंगिणी में “कलि” संवत एवं “लौकिक” संवत का प्रयोग किया गया है।
कल्हण ने अपने पूर्ववर्ती “सूरियों’ के 11 ग्रंथों और “नीलमत’ (पुराण) के अतिरिक्त उसने प्राचीन राजाओं के “प्रतिष्ठा शासन”, “वास्तु शासन”, “प्रशस्तिपट्ट”, “शास्त्र” (लेख आदि), भग्नावशेष, सिक्के और लोकश्रुति आदि पुरातात्विक साधनों से यथेष्ट लाभ उठाने का गवेषणात्मक प्रयास किया है और सबसे बड़ी बात यह कि अपने युग की अवस्थाओं और व्यवस्थाओं का निकट से अध्ययन करते हुए भी वह अपनी टीका टिप्पणी में बेलाग हैं। और तो और, अपने आश्रयदाता महाराज जयसिंह के गुण-दोष-चित्रण में भी उन्होंने अनुपम तटस्थता का परिचय दिया है। उन्हीं के शब्दों में “पूर्वापरानुसंधान” और “अनीर्ष्य (अर्थात् ईर्ष्या शून्य) विवेक” के बिना गुणदोष का निर्णय समीचीन नहीं हो सकता।
संभवत: इसीलिए कल्हण ने केवल राजनीतिक रूपरेखा न खींचकर सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश की झलकियाँ भी प्रस्तुत की हैं और चरित्र चित्रण में सरस विवेक से काम लिया है। मातृगुप्त और प्रवरसेन, नरेन्द्रप्रभा और प्रतापादित्य तथा अनंगलेखा, खंख और दुर्लभ वर्धन (तरंग 3) अथवा चंद्रापीड और चमार (तरंग 4) के प्रसंगों में मानव मनोविज्ञान के मनोरम चित्र झिलमिलाते हैं। इसके अतिरिक्त बाढ़, आग, अकाल और महामारी आदि विभीषिकाओं तथा धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उपद्रवों में मानव स्वभाव की उज्वल प्रगतियों और कुत्सित प्रवृत्तियों के साभिप्राय संकेत भी मिलते हैं।
कल्हण का दृष्ठिकोण बहुत उदार था। माहेश्वर (ब्राह्मण) होते हुए भी उन्होंने बौद्ध दर्शन की उदात्त परंपराओं को सराहा है और पाखंडी (शैव) तांत्रिकों को आड़े हाथों लिया। सच्चे देशभक्त की तरह उन्होंने अपने देशवासियों की बुराइयों पर से पर्दा सरका दिया और देशकाल की सीमाओं से ऊपर उठकर, सत्य, शिव और सुंदर का अभिनंदन तथा प्रतिपादन किया है। समूचे प्राचीन भारतीय इतिहास में जो एक मात्र वैज्ञानिक इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयत्न हुआ है वह है कल्हण की राजतरंगिणी। अपनी कुछ समस्याओं के बाद भी कल्हण का दृष्टिकोण एक दूरदर्शी इतिहासकार जैसा है – निर्भीक, स्पष्ट और मुखर। इसलिए कल्हण की इस रचना को कदापि मिस नहीं करना चाहिए।
और पढ़ें: डाकू रत्नाकर के आदिकवि वाल्मीकि जी बनने की कथा
TFI का समर्थन करें:
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ‘राइट’ विचारधारा को मजबूती देने के लिए TFI-STORE.COM से बेहतरीन गुणवत्ता के वस्त्र क्रय कर हमारा समर्थन करें.