एक होते हैं अच्छे एक्टर, फिर आते हैं वो एक्टर जो डगमगाते हैं परंतु फिर अपने आप को किसी भांति संभाल लेते हैं और फिर आते हैं वे एक्टर, जो केवल नाम के एक्टर हैं – जिन्हें अपने दम पर फिल्म करनी हो तो प्राण निकल जाए, धरती फट जाए। आमिर खान (Aamir Khan) ऐसे ही एक अभिनेता हैं। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे आमिर खान कोई बहुत बड़े तोप नहीं हैं, वो एक ऐसे अभिनेता हैं, जो अपने दम पर एक ढंग की फिल्म नहीं निकाल सकते और जब जब उन्होंने अपने दम पर कोई फिल्म करने की कोशिश की है, उन्हें मुंह की खानी पड़ी है।
बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि हमारे कुछ अति लोकप्रिय फिल्म स्टार्स कभी बॉलीवुड को इसलिए हाथ नहीं लगाते क्योंकि खान तिकड़ी के साथ उनका अनुभव कड़वा रहा है। कभी सोचा है कि रजनीकांत ने 1995 के बाद किसी हिन्दी फिल्म को हाथ क्यों नहीं लगाया? कारण है ‘आतंक ही आतंक’, जहां उन्होंने अंतिम बार सक्रिय उपस्थिति दिखाई थी। ये बहुचर्चित फिल्म ‘गॉडफादर’ की हिन्दी रूपांतरण थी, जिसमें आमिर खान भी एक महत्वपूर्ण भूमिका में थे परंतु उन्होंने ऐसा गुड़ गोबर किया, ऐसा गुड़ गोबर किया कि रजनीकांत ने तमिल फिल्म उद्योग में ही आधिपत्य स्थापित रखना श्रेयस्कर समझा।
आमिर खान कैसे ‘मिस्टर परफेक्शनिस्ट’ बने, जानते हैं? टेकनीक सरल थी, उन्हीं फिल्मों को पकड़े, जहां अधिक परिश्रम न करनी पड़े। वो एक्टर’s एक्टर यानी विशुद्ध अभिनेता या Circumstantial एक्टर यानी परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालने वाले अभिनेता नहीं थे। दूसरे शब्दों में न तो वो केके मेनन या संजीव कुमार जैसे एक्टिंग पावरहाउस थे, जो अपने कुछ क्षणों से ही एक अमिट छाप छोड़ दे, न ही वो अजय देवगन, आर माधवन या तब्बू थे, जो विषम परिस्थितियों में भी अपने लिए कुछ न कुछ निकाल ही लेते थे। कोयले की खदान में से हीरा निकालने का परिश्रम हर किसी के बस की बात कहाँ बंधु?
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Aamir Khan की निंजा टेकनीक
अब ये कैसे संभव है? देखिए, इनका प्रारम्भिक करियर ग्राफ को अगर इग्नोर करे और अगर 2000 का प्रारम्भिक दशक देखें तो मेला और मन जैसी धड़ाधड़ फ्लॉप देने के बाद इन्हें समझ आया कि अगर कुछ करना है तो जनता की आंखों में धूल झोंकने की नई निन्जा टेकनीक अपनानी होगी। तो उन्होंने प्रारंभ किया अपना सफर और ले आए लगान। अब अगर सारा फेस वैल्यू हटा दे तो कथा क्या- कुछ गांव वाले एक दंभी अंग्रेज़ को उन्हीं के खेल में कूटने की चुनौती देते हैं और कैसे वे विजयी होते हैं, ये है पूरी कथा। सारा खेल प्रेजेंटेशन का है भैया।
अब ये दांव प्रारंभ में उतना सफल नहीं हुआ। लगान की हवा सन्नी पाजी के ‘गदर’ वाले हैंडपंप ने टाइट कर रखी थी और वर्ष 2005 में ‘मंगल पांडे’ पर आधारित फिल्म का क्या हाल हुआ, इसके बारे में विशेष शोध की कोई आवश्यकता नहीं है। परंतु जो इतने पर हार मान ले, वो आमिर खान नहीं! भाईसाब ने अपनी टेकनीक के साथ प्रयोग जारी रखा और अंत में सफलता मिली ‘रंग दे बसंती’ से। ये विशुद्ध निर्देशक प्रधान फिल्म थी, जहां इनकी रंगबाज़ी कतई न दिखी। फिर आई तारे जमीन पर, जहां उन्होंने पहले अक्षय खन्ना को चुप चाप लीड रोल से बाहर किया, फिर अमोल गुप्ते से डायरेक्टर का पद भी छीना और फिर बन गए बॉलीवुड के चहेते ‘मिस्टर परफेक्शनिस्ट’।
परंतु वो कहते हैं न कि काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ाई जा सकती, ऐसा ही हुआ आमिर खान के साथ। जनता को धीरे-धीरे उनकी यह टेकनीक समझ में आने लगी। PK और दंगल तक आते आते इनके व्यक्तित्व और विचारों का विरोध होने लगा परंतु निर्देशक प्रधान फिल्में होने के कारण इनके कलेक्शन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। परंतु ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ इस प्रभाव से नहीं बच पाई और उसे अपने बजट बचाने के लाले पड़ गए। फिर आई ठग्स ऑफ हिंदोस्तान, जिससे आमिर खान अब निर्देशक प्रधान स्टार से अब विशुद्ध सुपरस्टार बनना चाहते थे परंतु जनता ने मन बना लिया था – हो गया बेटा तुम्हारा, अब निकलो यहां से। परंतु जो अपनी गलतियों से सीखे, वो आमिर खान कहां। लेकर आ गए लाल सिंह चड्ढा, जहां उन्होंने फिर वही गलतियां दोहराई, जिसके लिए उनकी ठग्स ऑफ हिंदोस्तान में आलोचना हुई थी। आमिर खान (Aamir Khan) अपने आप को देशभक्त बताते हैं परंतु यदि ऐसा होता तो वो ‘बॉर्डर’ और ‘LOC कारगिल’ ऑफर होने के बाद भी उसे ठुकराते नहीं, आगे आप समझदार हैं।
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