अष्टावक्र से लेकर आदि शंकराचार्य तक – सनातन संस्कृति में वाद-विवाद और शास्त्रार्थ का समृद्ध इतिहास है

सनातन संस्कृति में वाद, विवाद और संवाद की प्रक्रिया बहुत पुरानी है और इसके उदाहरण हमें ऋषियों के आश्रमों, राजाओं की सभाओं और भारत की लोक संस्कृति में दिखती रही है।

Debate and discussion in Ancient India – From Ashtavakra to Adi Shankaracharya

Source- TFI

विश्वभर में मानव सभ्यताओं का विकास हुआ, इसके साथ साथ शासन-प्रशासन को चलाने के नियमों को भी निर्धारित किया गया। पहले कबीलों के द्वारा शासन व्यवस्था चलाई जाती थी, फिर राजा-महाराजाओं के द्वारा और बाद में जब आधुनकिता के दौर में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात होने लगी तो लोकतंत्र की स्थापना हुई और धीर-धीरे सरकारें चुनने की शक्ति जनता के हाथ में पहुंच गई। परन्तु लोकतंत्र के साथ आती है वाद, विवाद और संवाद की प्रक्रिया। इसके बारे में आमतौर पर यह कहा जाता है कि यह पश्चिम की देने है परन्तु पश्चिम से कई वर्षों पूर्व भारत में वाद-विवाद, शास्त्रार्थ और संवाद की प्रक्रिया हमें देखने को मिलती है।

आज इस लेख में हम भारत में वाद, विवाद और संवाद की प्रक्रिया के बारे में विस्तार से जानेंगे।

दरअसल, सनातन संस्कृति में वाद, विवाद और संवाद की प्रक्रिया बहुत पुरानी है और इसके उदाहरण हमें ऋषियों के आश्रमों, राजाओं की सभाओं और भारत की लोक संस्कृति में दिखती रही है। यही नहीं प्राचीन भारत में “अभयदान” नाम की एक प्रक्रिया भी हुआ करती थी जिसके अंतर्गत आम जन मानस अपने राजा से कड़वी से कड़वी बात और कड़वा सत्य बोल सकता था। जहां तक वाद-विवाद की बात है तो बहुत से उदाहरण त्रेतायुग में मिलते हैं जब मिथिला के राजा जनक की सभा में कई-कई बार वाद विवाद और शास्त्रार्थ का आयोजन किया जाता था। वहीं अष्टावक्र और बंदी ऋषि के बीच वाद-विवाद, मंडन मिश्र और आदिशंकराचार्य के बीच वाद-विवाद देखने के लिए मिलता है।

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अष्टावक्र और बंदी ऋषि के बीच वाद-विवाद

ऋषि उद्दालक के आश्रम में कई छात्र शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे। इन्हीं में से एक थे ऋषि कहोड़ जो बाद में राजा जनक के दरबार में बंदी ऋषि से शास्त्रार्थ करते हैं और अंत में हार जाते हैं। बंदी ऋषि से शास्त्रार्थ करने के बाद जो कोई भी हारता उसे गले में भारी पत्थर डालकर नदी में डूबना होता था, जिसके कारण जितने भी लोग उनसे शास्त्रार्थ में हारते थे उन्हें भारी पत्थर डालकर नदी में डूबना पड़ता था और इस तरह उनका अंत हो जाता था। कुछ ऐसा ही हुआ था कहोड़ ऋषि के साथ।

कहोड़ ऋषि के एक पुत्र हुए अष्टावक्र जो शारीरिक रूप से तो वक्र थे परंतु बुद्धि से बहुत तेज थे। उसे जब अपने पिता के बारे में पता चला कि उन्हें बंदी ऋषि ने शास्त्रार्थ में हराया था और वे नदी में डूबकर मृत्यू को प्राप्त कर चुके हैं तब उन्होंने बंदी ऋषि से शास्त्रार्थ करने की ठानी और वेदों का ज्ञान प्राप्त करने में जुट गए।

इस तरह अष्टावक्र ने बहुत कम आयु में ही बंदी ऋषि को शास्त्रार्थ में हरा दिया। शास्त्रार्थ में हारने के बाद बंदी ऋषि को जब दंड देने की बात आयी तो अष्टावक्र ने कहा कि आप तो जल के देवता हैं, आप तो जल में जाएंगे तो आपको तो कुछ नहीं होगा इसलिए आपने जिन लोगों को नदी में भेजा है उन्हें मुक्त कीजिए। जिसके बाद बंदी ऋषि अष्टावक्र के पिता समेत सभी को नदी से बाहर निकाल देते हैं।

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आदिशंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच का शास्त्रार्थ

आदिशंकराचार्य ने दक्षिण भारत से लेकर उत्तर भारत तक सनातन धर्म को न केवल एक सूत्र में पिरोया अपितु 12 ज्योतिर्लिंगों की स्थापना भी की। ये अपने समय के बहुत बड़े विद्वान हुए, इनसे कोई भी व्यक्ति सरलता से शास्त्रार्थ नहीं करता था, क्योंकि उसे पता था कि शंकराचार्य कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हैं। परन्तु जब आदिशंकराचार्य दक्षिण भारत से उत्तर की यात्रा पर आए तो ये उस समय के मिथिलांचल में पहुंचे। वर्तमान समय में मिथिलांचल बिहार का भाग है। यहां पर आदिशंकराचार्य ने मंडन मिश्र नाम के एक विद्वान से शास्त्रार्थ किया। आदिशंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच हुए शास्त्रार्थ के बारे में बताया जाता है कि लगभग 40 दिनों तक यह शास्त्रार्थ चला था, अंत में मंडन मिश्र को हार माननी पड़ी थी।

यदि वाद, विवाद और संवाद की प्रक्रिया के बारे में बात की जाए तो मूल रूप से भारत की ही यह देने है न कि पश्चिम की। अष्टावक्र और मंडनमिश्र तो केवल दो उदाहरण हैं वरन् हम उदाहरण खोजने लगे तो हमारे वेद पुराण वाद विवाद और संवादों से भरे हुए हैं। जिस देश में वाद, विवाद और संवाद की प्रक्रिया होती है वहीं पर अच्छी से अच्छी रचनाएं होती है।

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