प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘इस्लाम’ और ‘ईसाई धर्म’ की ‘शुद्धता’ को बचाने में लगे हैं

इस्लाम और ईसाई धर्म में जब जातीय व्यवस्था नहीं होती तो उन्हें अनुसूचित जाति के दायरे में लाना उचित नही है. अगर ऐसे दलितों को आरक्षण का लाभ मिला तो वास्तविक अनुसूचित जाति के लोगों का इससे नुकसान होगा और साथ ही इससे धर्म परिवर्तन को भी बढ़ावा मिलेगा.

Modi Government on reservation

Source- TFI

Modi Government on reservation- देश में आरक्षण का मुद्दा चर्चा का विषय बना हुआ है। जिसमें सवाल यह है कि धर्म परिवर्तन कर ‘इस्लाम’ या ‘ईसाई’ धर्म अपना चुके अनुसूचित जाति के लोगों को आरक्षण मिलना चाहिए या नही? अनुसूचित जाति की सूची में ‘दलित ईसाइयों’ और ‘दलित मुसलमानों’ को शामिल करने के मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई भी चल रही है। दरअसल, देश का बुद्धिजीवी वर्ग हमेशा से यह मांग करता आया है कि मुस्लिम और ईसाई धर्म अपना चुके अनुसूचित जाति के लोगों को भी आरक्षण दिया जाना चाहिए लेकिन बुद्धिजीवियों के इस मांग का जमकर विरोध भी होता आया है।

अगस्त 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से इस मामले पर अपना रूख स्पष्ट करने को कहा था। अब इस मामले पर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की बेंच के समक्ष हलफनामा दायर किया है, जिसमें सरकार ने दलित ईसाइयों और दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति से बाहर करने को सही ठहराया गया है। साथ ही सरकार ने यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि ‘इस्लाम’ और ‘ईसाई धर्म’ की शुद्धता से कोई खिलवाड़ न हो।

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सरकार ने क्या तर्क दिया है?

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में 70-पेजों का हलफनामा दायर किया है, जिसमें तर्क दिया गया है कि अनुसूचित जाति की सूची से ईसाई और मुस्लिम दलितों को बाहर करना भेदभावपूर्ण नही था। वर्तमान में, केवल हिंदू, सिख और बौद्ध धर्मों के दलितों को अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। कोर्ट में दाखिल हलफनामे में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने दलील दी कि दलित ईसाई और दलित मुस्लिम उन लाभों का दावा नहीं कर सकते जिनकी अनुसूचित जातियां हकदार हैं। मंत्रालय ने कहा कि संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 में कोई भी असंवैधानिकता नहीं है।

आरक्षण (Modi Government on reservation) को लेकर दायर हलफनामे में मंत्रालय का यह भी कहना है कि अनुसूचित जातियों की पहचान एक विशिष्ट सामाजिक कलंक के आसपास केंद्रित है, जो संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 में चिह्नित समुदायों तक सीमित है। दलित ईसाइयों और दलित मुस्लिमों को एससी की सूची से इसलिए बाहर रखा गया है क्योंकि छुआछूत की उत्पीड़नकारी व्यवस्था कुछ हिंदू जातियों के आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन का कारण बनी, जो ईसाई या इस्लामी समाज में प्रचलित नहीं थी।

यही कारण है कि अनुसूचित जाति के लोग इस्लाम और ईसाई जैसे धर्म अपनाते रहे हैं ताकि उन्हें छुआछूत की उत्पीड़नकारी व्यवस्था से निजात मिल सके। मंत्रालय ने जस्टिस रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट पर सहमति व्यक्त करने से भी इनकार कर दिया जिसने दलित ईसाइयों और दलित मुस्लिमों को एससी सूची में शामिल करने की सिफारिश की थी। ज्ञात हो कि यह हलफनामा गैरसरकारी संगठन ‘सेंटर फार पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन’ की याचिका के जवाब में दाखिल किया गया है। इस याचिका में इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने वाले दलित समुदायों को आरक्षण और अन्य लाभ प्रदान करने की मांग की गई है।

आपको बता दें कि सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की ओर से दायर हलफनामे में सरकार ने हिंदू धर्म, सिख धर्म और बौद्ध धर्म का पालन करने वाली अनुसूचित जातियों और अन्य धर्मों का पालन करने वाली अनुसूचित जातियों के लिए कहा कि एक क्षेत्र में ‘स्थानीय योगदान’ और ‘विदेशी योगदान’ के बीच स्पष्ट अंतर है। यानी सरकार ने सीधे-सीधे शब्दों में तो नहीं लेकिन ‘इस्लाम’ और ‘ईसाई धर्म’ को उनके मूल का दर्शन करा दिया है।

इनमें नहीं होता कोई जातीय आधार

आपको बता दें कि धर्मांतरण के बाद आरक्षण (Modi Government on reservation) देने को लेकर संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 का नियम कहता है कि हिंदू, सिख धर्म या बौद्ध धर्म के अलावा किसी अन्य धर्म को मानने वाले व्यक्ति को अनुसूचित जाति में शामिल नहीं किया जा सकता। जिससे साफ है कि हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म के अनुसूचित जाति के लोगों आरक्षण मिलेगा लेकिन जो भी इस्लाम और ईसाई धर्म में कनवर्ट हो गए है, उन्हें कोई लाभ नहीं मिलेगा।

इसके अलावा ईसाई और मुस्लिम धर्म के लिए यह भी कहा जाता है कि उनके धर्म में कोई जातीय आधार नही होता है और उनमें कोई पिछड़ा नही होता है। इसके बावजूद धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग उठती है, जो शर्मनाक है। इससे यह भी साबित होता है उनके लिए समानता की बात करना ‘ढोंग’ समान है और धर्मांतरित लोगों के आरक्षण की मांग के पीछे उनका कोई षड्यंत्र छिपा है।

सरकार ने इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस के.जी. बालकृष्णन की अगुवाई वाली एक कमेटी का गठन भी किया है। जिसे 2 वर्षो का समय दिया गया है। ये कमेटी अध्ययन करेगी की धर्मांतरण कर इस्लाम या ईसाई धर्म के लोगों को आरक्षण दिया जाना चाहिए या नहीं? लेकिन सरकार का यही कहना है कि मुस्लिम और ईसाई धर्म में जब जातीय व्यवस्था नहीं होती तो उन्हें अनुसूचित जाति के दायरे में लाना उचित नही है। क्योंकि मुस्लिम और ईसाई धर्म में शामिल होने के बाद दलितों को आरक्षण का लाभ मिला तो वास्तविक अनुसूचित जाति के लोगों का इससे नुकसान होगा और साथ ही इससे धर्म परिवर्तन को भी बढ़ावा मिलेगा।

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