भारत अपनी नृत्य कला, चित्रकला, हस्तशिल्प कला, मूर्तिकला, और वास्तु कला के लिए पूरे विश्व में जाना जाता हैं। विश्व की बहुत सी प्रचीन कलाओं का जन्म भारत से हुआ और फिर उसके बाद धीरे-धीरे यह पूरी दुनिया में फैलती चली गयी। फिर चाहे वो भारतीय योग हो, नृत्य हो या भारतीय संगीत। आज के इस लेख में हम भारत की एक ऐसी प्रथा के बारे में बात करने जा रहे हैं, जिसे देवदासी प्रथा के नाम से जाना जाता है और भारत के सबसे पुराने शास्त्री नृत्यों में से एक भरतनाट्यम की उत्पत्ति भी इसी प्रथा से मानी जाती है। हालांकि वर्तमान समय में इस प्रथा को एक कुरीति के रूप में देखा जाता है। आज हम जाएंगे कि कैसे (Devadasi Pratha) देवदासी प्रथा को बदनाम किया गया है?
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क्या थी देवदासी प्रथा?
इतिहासकार मानते हैं कि ‘देवदासी प्रथा’ (Devadasi Pratha) संभवत: छठी सदी में शुरू हुई। देवदासियों का प्रचलन दक्षिण भारतीय मंदिरों में अधिक है। इस प्रथा के अंतर्गत मंदिरों में पुजारियों के समकक्ष भगवान की पूजा करने के लिए बहुत कम आयु की लड़कियों को मंदिर सेवा में समर्पित कर दिया जाता था और उन्हें देवताओं के साथ विवाहित माना जाता था। इस प्रथा में पोट्टूकट्टल नामक एक समारोह आयोजित किया जाता था, जिसमें मंगलसूत्र की भांति उनके गले में एक बोट्टू यानी सोने की चेन पहनायी जाती थी, जो देवता के साथ विवाह का प्रतीक हुआ करती थी। इसी के साथ देवदासियों को नित्य सुमंगली (सदा विवाहित) कहे जाने के भी उल्लेख मिलते हैं. देवदासी के शाब्दिक अर्थ की बात की जाए तो देव का अर्थ है ‘ईश्वर’ और दासी का अर्थ है ‘भक्त’, इस प्रकार देवदासी ईश्वर की भक्त हुआ करती थीं।
देवदासी बनने के बाद सादिर अट्टम नाम की प्रक्रिया हुआ करती थी जिसमें नृत्य कला का प्रशिक्षण दिया जाता था और यह प्रशिक्षण जिन गुरुओं के द्वारा दिया जाता था उन्हें नट्टुवनार या कूथिलियार नाम से जाना जाता था। यह लोग गुरुओं की भूमिका निभाते हुए यह सुनिश्चित करते थे कि यह कला शैली पीढ़ी दर पीढ़ी बिना किसी बाधा के आगे बढ़ती रहे। कई वर्षों के प्रशिक्षण के बाद देवदासियों का पहला नृत्य प्रदर्शन हुआ करता था जिसे “अरंगेत्रम” के नाम से जाना जाता था। इसी “अरंगेत्रम” के दौरान देवदासियों को थलईकोल की उपाधि दी जाती थी। इसके अलावा उस समय के राजाओं और समाज के अन्य प्रभावशाली वर्गों के द्वारा देवदासियों को संरक्षित किया जाता था और इन देवदासियों का मुख्य काम मंदिर में होने वाले अनुष्ठान और पूजा में ईश्वर के समक्ष नृत्य करना था। इसके अलावा नृत्य प्रदर्शन के आधार पर देवदासियों को अलग-अलग नाम दिए जाते थे।
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कैसे बदनाम हुई देवदासी प्रथा?
भारत में ब्रिटिश काल का शासन शुरू होने और अंग्रेजों के आने से पूर्व देवदासियों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था और समाज में इन्हें पुजारी की भांति ही सम्मान प्राप्त था. लेकिन अंग्रेजों ने अपने राज में देवदासियों को पश्चिमी दृष्टिकोण से देखा और इन्हें वैश्याओं के समकक्ष खड़ा करते हुए राजाओं और प्रभावशाली वर्गों पर दबाव डालना चालू कर दिया कि देवदासियों के लिए किसी भी प्रकार की कोई आर्थिक सहायता न दी जाए। इसके परिणामस्वरूप जीवित रहने के लिए वेश्यावृत्ति करने तक के लिए इन्हें मजबूर होना पड़ा। वेश्यावृत्ति के पेशे में जाने के कारण समाज में देवदासियों को अपमानजनक और निम्न दर्जे का माना जाने लगा और अंतत: वर्ष 1947 में एक विधेयक पारित किया गया, जिसके अंतर्गत देवदासी प्रथा (Devadasi Pratha) को समाप्त कर दिया गया। प्रतिबंध लगने के बाद यह समुदाय पूरी तरीके से धीरे-धीरे विलुप्त होता चला गया। हालांकि इस कला शैली को पुनर्जीवित करने के भी कई प्रयास किये गये, जिसमें वकील एवं स्वतंत्रता सेनानी ई कृष्णा अय्यर कुछ अंतिम देवदासियों में से टी. बालासरस्वती औक रुक्मिणी देवी ने पुन: इस प्रथा को प्रारंभ करने की कोशिश की थी, लेकिन वे लोग इसमें पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सके।
साफ है कि देवदासी प्रथा (Devadasi Pratha) के बदनाम होने की शुरुआत अंग्रेजों के समय से हुई थी। इस प्रथा के शुरुआती दौर को बदनाम करने के लिए इसके बारे में कहा जाता है कि मंदिर के पुजारियों के द्वारा लड़किओं का शोषण किया जाता था जिसके चलते इसे समाप्त कर दिया गया परंतु यह पूर्ण सत्य नहीं है। इस प्रथा के मूल स्वरूप को नष्ट करने के लिए पूर्ण रूप से अंग्रजों को जिम्मेदार माना जाना चाहिए।
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देवदासी प्रथा से उत्पन्न हुआ भरतनाट्यम नृत्य
भारत के सबसे पुराने नृत्यों में से एक भरतनाट्यम केउद्भव का स्रोत तक देवदासी प्रथा (Devadasi Pratha) को ही माना जाता है। हालांकि देवदासी प्रथा (Devadasi Pratha) में शामिल सादिर अट्टम का भरतनाट्यम के रूप में परिवर्तन कब हुआ इसका कोई ठोस साक्ष्य तो नहीं मिलता, लेकिन भरतनाट्यम नृत्य कला में नृत्य की भंगिमाएं देवदासी प्रथा में होने वाले नृत्य से मिलती जुलती हैं।
अंत में निष्कर्ष के रूप में आपको बता दें कि आप इस प्रथा के बारे में जब भी पढ़ेंगे तो सामान्य तौर पर ज्यादातर आपको इसके नकारात्मक पक्ष के बारे में ही बताया जायेगा कि मंदिर में देवदासियों का शोषण किया जाता था। लेकिन यह पूरी तरीके से सही नहीं है। हालांकि यह भी नहीं कहा जा सकता है कि किसी भी देवदासी का शोषण नहीं हुआ होगा। जैसे कहा जाता है कि एक व्यक्ति के दुष्ट होने की वजह से पूरे समुदाय को बदनाम नहीं किया जा सकता, ठीक उसी प्रकार देवदासी प्रथा (Devadasi Pratha) में भी है।
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