क्या होता है यज्ञोपवीत संस्कार का महत्व, क्यों होता है प्रत्येक सनातनी के लिए अनिवार्य?

हिन्दू धर्म के 16 संस्कारों में से एक ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत जनेऊ पहनी जाती है जिसे ही ‘यज्ञोपवीत संस्कार’ कहते हैं। यह केवल एक धागा नहीं है बल्कि इसके साथ विशेष मान्यताएं भी जुड़ी हैं।

The importance of Yagyopavit Sanskar

Source- TFI

Yagyopavit Sanskar: सनातन संस्कृति में जन्म से लेकर मृत्यु तक एक व्यवस्थित प्रक्रिया के अंतर्गत एक व्यक्ति का जीवन व्यतीत होता है। जैसे गर्भधारण से लेकर पैदा होने तक और उसके बाद बड़े होने से लेकर मृत्यु तक सभी चीजों के लिए अलग-अलग 16 संस्कारों की व्यवस्था की गई है। इन्हीं 16 संस्कारों में से एक हैं यज्ञोपवीत संस्कार। यज्ञोपवीत को उपनयन, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध, ब्रह्मसूत्र आदि नामों से भी जाना जाता है और किसी भी सनातनी के जीवन में यज्ञोपवीत का अलग ही महत्व होता है। आज इस लेख में हम यज्ञोपवीत (Yagyopavit Sanskar) के महत्व के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।

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क्या होता है यज्ञोपवीत संस्कार (Yagyopavit Sanskar)?

यज्ञोपवीत (Yagyopavit Sanskar) या उपनयन संस्कार का अर्थ होता है पास या सन्निकट ले जाना अर्थात् ब्रह्म या ज्ञान के पास ले जाना। ज्ञान प्राप्ति की शुरुआत करने से पहले ही उपनयन संस्कार की प्रक्रिया होती है। इस संस्कार के अतंर्गत मंत्रों का उच्चारण कर एक पवित्र धागा बनाया जाता है जिसे संस्कार में मुंडन और स्नान के बाद ही धारण किया जा सकता है। इस धागे को जनेऊ के नाम से जाना जाता है और इसे सूत के तीन धागों से बनाया जाता है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता हैं। अर्थात् इसे गले में इस प्रकार डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।

जनेऊ में ये तीन सूत्र त्रिमूर्ति- ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। साथ ही ये तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के भी प्रतीक होते हैं। देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण को भी जनेऊ के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इसी के साथ यज्ञोपवीत संस्कार का आरंभ गायत्री मंत्र से किया जाता हैं।

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जनेऊ धारण के नियमों का पालन

जनेऊ धारण करने के बाद व्यक्ति को अपने जीवन में नियमों का पालन करना पड़ता है। उसे अपनी दैनिक जीवन के कार्यों को भी जनेऊ को ध्यान में रखते हुए ही करना होता है। जैसे- मल, मूत्र का त्याग करने के दौरान जनेऊ को दायने कान पर बांधना होता है ताकि यह अपवित्र न हो और उसके बाद स्वच्छ हाथों से ही उसे स्पर्श करना होता है। इसके अलावा एक बार पहनने के बाद अपवित्र, मैला या टूटने पर ही उसे बदला जाता है और स्नान करने के दौरान जनेऊ को शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता है।

बालक की 8 वर्ष की आयु होने पर यज्ञोपवीत संस्कार कराया जा सकता है। परन्तु वर्तमान समय में लोगों की जीवनशैली में परिवर्तन होने के कारण बचपन में नहीं अपितु विवाह के दौरान यज्ञोपवीत संस्कार (Yagyopavit Sanskar) कराया जाता है। सनातन धर्म में आज भी बिना जनेऊ संस्कार के विवाह पूर्ण नहीं माना जाता है।

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जनेऊ का महत्व

जनेऊ को अगर सामान्य मानवीय दृष्टि से देखा जाए तो सिर्फ यह एक धागा है परन्तु इसे धर्म और शिक्षा की दृष्टि से देखा जाए तो इसे बनाने के पीछे पूरा गणित और विज्ञान छिपा हुआ है। जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है और इस लंबाई को रखने के पीछे 64 कलाओं और 32 विद्याओं का सीखना है। 32 विद्याओं की बात की जाए तो इसमें चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक सम्मिलित होते हैं। इसके अलावा 64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि आती हैं।

वहीं क्योंकि जनेऊ के हृदय के पास से गुजरता है, इसलिए ऐसा माना जाता है कि यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है। वहीं जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति सफाई से जुड़े नियमों से भी बंध जाता हैं। जनेऊ से पवित्रता का अहसास भी होता है, जो व्यक्ति के मन को बुरे कार्यों से बचाती है।

यज्ञोपवीत संस्कार (Yagyopavit Sanskar) के मूल रूप को अगर देखा जाए तो हमें यह देखने को मिलता है कि जीवन के सबसे पहले चरण शिक्षा की शुरुआत है यज्ञोपवीत। आज के समय में हम इसकी तुलना विद्यालय जाने की शुरुआत से कर सकते हैं। जिस प्रकार आज हम विद्यालय में अपने गुरुओं से शिक्षा प्राप्त करने से  प्रवेश प्रक्रिया पूरी करते हैं ठीक उसी प्रकार गुरूकुल में प्रवेश करने से पहले यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता था। इसका उद्देश्य छात्र जीवन में व्यक्ति को नियमों का पालन करना और दृढ़निश्चयी बनाना होता था।

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