“नील क्रांति का क्रेडिट भी महात्मा गांधी ने खा लिया” जबकि आंदोलन की वास्तविकता कुछ और ही है

महात्मा गांधी का चंपारण सत्याग्रह 'स्कैम' था लेकिन उसे ऐसे हाइलाइट किया गया कि लोग आज तक उसे ही सत्य मानते आ रहे हैं!

नील विद्रोह

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हमारे देश में अनेक आंदोलन हुए, जिनका दर्द आज भी भारतीयों की रगों में जिंदा है। कुछ आंदोलन ऐसे हैं, जो बिना तोप ताने और बिना बंदूक चलाए लड़े गए। उन्हीं में से एक है चंपारण की नील क्रांति। कहा जाता है इस आंदोलन से ही मोहनदास करमचंद गांधी, महात्मा गांधी बने लेकिन इसके पीछे की सच्चाई क्या है, यह हम आपको आगे बताएंगे, उससे पहले पूरे मामले को समझते हैं। वर्ष था 1917 का, बिहार के चंपारण में अंग्रेजों का किसानों पर शोषण लगातार बढ़ता जा रहा था। किसानों की कई पीढियां इस शोषण का शिकार हो रही थी। अंग्रेजों के द्वारा बेहद कम मेहनताने पर किसानों से जबरदस्ती नील की खेती कराई जाती थी। अंग्रेजों के अत्यातार की यह दास्तां यहीं खत्म नहीं होती, गोरे किसानों पर टैक्स लगा देते थे और टैक्स ना चुका पाने पर उनकी खाल उधेड़ दी जाती थी।

दरअसल, बिहार के चंपारण में अंग्रेजों ने तीनकठिया प्रणाली लागू की थी। इस प्रणाली के तहत किसान को अपनी भूमि के तीन कट्ठे प्रति बीघा, नील की खेती करना अनिवार्य कर दिया गया था। किसान जी तोड़ मेहनत करते थे लेकिन उसके बदले उन्हें कुछ नहीं मिलता था। वहीं, यदि कोई किसान नील की खेती नहीं करना चाहता था तो उसे अपने मालिक को एक बड़ी राशि “तवान” के रूप में देनी पड़ती थी, जिससे चंपारण के किसानों की स्थिती दयनीय बनी हुई थी। अंग्रेजों के इस अत्याचार से त्रस्त होकर किसानों ने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था। महात्मा गांधी, राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर 10 अप्रैल 1917 को बांकीपुर पहुंचे और 15 अप्रैल 1917 को मुजफ्फरपुर होते हुए चंपारण पहुंचे। फिर व्यापक रूप से यह आंदोलन 17 अप्रैल 1917 को ‘शुरू’ हुआ लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि महात्मा गांधी के चंपारण पहुंचने से पूर्व किसानों ने अंग्रेजों के खिलाफ आवाज नहीं उठाई थी या उनके खिलाफ आंदोलन नहीं किया था।

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लेकिन जब महात्मा गांधी इससे जुड़े तो इसे चंपारण आंदोलन का नाम दे दिया और इसे चंपारण सत्याग्रह के नाम से जाना जाने लगा। ऐसे में दिमाग में यह प्रश्न उठता है कि स्थानीय किसान, जो लंबे समय से किसानों से संघर्ष कर रहे थे उनके संघर्ष को भूलाकर इस पूरे आंदोलन को महात्मा गांधी पर कैसे मोड़ दिया गया? इस आंदोलन का श्रेय किसानों को न देकर पूर्ण रूप से महात्मा गांधी को क्यों दिया गया? क्या चंपारण में गांधी के नेतृत्व में हुए इस आंदोलन से पहले नील की खेती के विरोध में आंदोलन नहीं हुआ था? जवाब है कि उससे पहले भी आंदोलन हुआ था लेकिन गांधी के चंपारण आंदोलन को प्रचारित कर पुराने मामले पर पर्दा डाल दिया गया। चलिए इसे विस्तार से समझते हैं।

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बंगाल में शुरू हुआ था आंदोलन

ध्यान देने वाली बात है कि नील की खेती की शुरूआत सबसे पहले 1777 में बंगाल से हुई थी। यूरोप में ब्लू डाई की डिमांड बहुत ज्यादा थी जिसके कारण अंग्रेज किसानों से नील की खेती कराकर आर्थिक लाभ ले रहे थे लेकिन नील खेती किसानों के खेतों को बंजर बना दे रही थी। नील की खेती करने से न सिर्फ किसानों की उपजाऊ कृषि भूमि की उर्वरता नष्ट हो रही थी अपितु वे अपने लिए आवश्यक खाद्यान उत्पन करने में भी सक्षम नहीं थे। साथ ही जमींदारों द्वारा किसानों से मनमाने ढंग से फसल की वसूली करने के साथ कई तरह के नियम थोप दिए गए थे। यहां तक कि अकाल एवं अन्य प्राकृतिक आपदाओं के समय भी किसानों को किसी प्रकार की कोई रियायत नहीं दी जाती थी। इन सब में ब्रिटिश सरकार की सहायता जमींदार और साहूकार कर रहे थे। जिससे किसान गोरों के इस अत्याचार के खिलाफ आंदोलन करने पर मजबूर हो गए और यही नील की खेती के विरोध में पहला व्यापक आंदोलन था।

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ज्ञात हो कि अंगेज बागान मालिक और जमींदार दोनों ही किसानों के शोषण में शामिल थे। हालात ऐसे थे कि किसान खुद खाने के लिए चावल की खेती भी नहीं कर पाते थे। बंगाल सहित पूरे भारत में किसानों के साथ यही हाल था। ब्रिटिश सरकार किसानों को नील के बाजार भाव का 2.5% मूल्य देती थी। बंगाल में नदिया जिले के किसानों ने 1859-60 में ‘नील विद्रोह’ शुरू करके नील की खेती करना बंद कर दिया और अंग्रेजों के खिलाफ आवाज़ उठाई। नदिया जिले के गोविन्दपुर और चौगाछा गाँव में ‘बिष्णुशरण विश्वास’ और ‘दिगम्बर विश्वास’ नामक किसान नेताओं ने नील विद्रोह शुरू किया था।

नील आयोग का गठन करने पर मजबूर हुए थे अंग्रेज

नदिया जिले के बाद तेजी से यह विद्रोह बंगाल के अन्य जिलों मुर्शिदाबाद, बीरभूम, बर्दवान, खुलना, मालदा, नरैल आदि जिलों में फैला। शोषण से पीड़ित किसानों की इस एकता का यह परिणाम हुआ कि 1860 तक पूरे बंगाल में नील की खेती और उत्पादन बंद हो गया और आखिरकार 1860 में ब्रिटिश सरकार ने नील आयोग का गठन किया। नील आयोग की रिपोर्ट के आधार पर अधिसूचना निकाली गई कि किसानों को नील की खेती करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है और विवादों को कानूनी तरीके से निपटाया जाएगा।

बंगाल में हुए इस आंदोलन ने अंग्रेजों की खटिया खड़ी कर दी थी और वे कोई भी मांग पूरी करने को तैयार थे। उन्होंने किसानों की मांगों को पूरा भी किया लेकिन जब यही आंदोलन चंपारण में शुरू हुआ तो इस पूरे प्रकरण का क्रेडिट गांधी को दे दिया गया। चंपारण सत्याग्रह को ऐसे हाइलाइट किया गया और दिखाया गया कि गांधी ने किसानों के हित में आंदोलन करते हुए अंग्रेजों की नानी याद दिला दी लेकिन अब आप समझ सकते हैं कि यह पूरा का पूरा ‘स्कैम’ था और कथित इतिहासकारों ने हमें नील विद्रोह को लेकर क्या पढ़ाया यह बताने की आवश्यकता नहीं है।

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