भ्रम और भ्रांति इतिहास का एक अभिन्न अंग है। ये न हो, तो फिर इतिहास को परिभाषित करना भी कठिन होगा। रामायण के बारे में कई भ्रांतियां हमें बताई जाती है, जैसे सीताजी का परित्याग, पिछड़े वर्ग के सामंत शंबूक का वध, रावण का सिद्ध एवं सौम्य योद्धा होना इत्यादि इत्यादि। परंतु क्या आपको ज्ञात है कि एक ऐसा भी सत्य है, जिससे आपको अनभिज्ञ रखा गया। यह सत्य है माता शबरी (Shabri) के बेर से जुड़ा। इस लेख में हम जानेंगे कैसे रामायण में माता शबरी ने प्रभु श्रीराम का स्वागत भी किया और उनकी सेवा भी की, परंतु जूठे बेरों से उनका अनादर नहीं किया।
अब सर्वप्रथम प्रश्न तो यही है कि माता शबरी थी कौन? ये कहां से आयीं थी? जनश्रुतियों के अनुसार, माता शबरी भील राजकुमारी थी, जिनका स्थान भगवान राम के अनन्य रामभक्तों में हैं। राजकुमारी शबरी बेहद ही होनहार और खूबसूरत थी। उनके पिता एक नगर के राजा थे। राजकुमारी शबरी के लिए नगर की बालाएं पुष्प लेकर आती थी। उनका राज्य में बड़ा आदर था।
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उनमें सेवाभाव कूट-कूटकर भरा हुआ था और जनजातीय होते हुए भी उन्होंने ऋषि मतंग का विश्वास प्राप्त किया। उन्होंने आयुपर्यंत उनकी सेवा की और जब उनका अंत समय आया, तो उन्होंने शबरी से इच्छा मांगी। शबरी ने दुखी मन से कहा, “एक पिता को मैं वहां पर छोड़कर आयी और आज आप भी मुझे छोड़कर जा रहे हैं, अब मेरा कौन ख्याल रखेगा”?
ऋषि मतंग ने कहा- “बेटी तुम्हारा ख्याल अब राम रखेंगे”
शबरी ने सरलता से पूछा – “राम कौन हैं? और मैं उन्हें कहां ढूंढूंगी?”
जिस पर मतंग ऋषि बोले- “बेटी तुम्हें उनको खोजने की आवश्यकता नहीं। वो स्वयं तुम्हारी कुटिया पर चलकर आयेंगे।”
शबरी ने मतंग ऋषि के इस वचन को पकड़ लिया कि राम आयेंगे। शबरी रोज भगवान के लिए फूल बिछाकर रखती, उनके लिए फल तोड़कर लाती और पूरे दिन भगवान श्रीराम का इंतजार करती। इंतजार करते करते शबरी बूढ़ी हो गई, लेकिन अब तक राम नहीं आये। फिर वह दिन आ ही गया जब शबरी के वर्षों का इंतज़ार खत्म होने वाला था और जिसका वाल्मीकि रामायण में अति सुन्दर वर्णन है–
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तौ दृष्ट्वा तु तदा सिद्धा समुत्थाय कृतांजलिः |
पादौ जग्राह रामस्य लक्ष्मणस्य च धीमतः || ३-७४-६
अर्थात, भगवान श्रीराम और लक्ष्मण जी इन दोनों को देखकर, योगी शबरी अपने स्थान से उठी और उन्होंने अपने हाथों से भावविभोर होकर उनके चरणस्पर्श किए।
इससे पूर्व भी वो आते जाते लोगों को मना कर रही थी कि इस पुष्पमार्ग पर भगवान चलेंगे। शबरी श्रीराम के लिए बेर तोड़कर लायी थी। उन्होंने चुन-चुनकर भगवान राम के लिए वन से फल एकत्रित किए थे। जब भगवान श्रीराम आये तो शबरी एक पत्थर के आसन के पास बैठी थी। शबरी ने पहली नजर में भगवान को पहचान लिया। शबरी ने भगवान का खूब आदर सत्कार किया। इस प्रकार शबरी के वर्षो का इंतज़ार खत्म हुआ था और उनको भगवान मिले और तद्पश्चात पवित्र अग्नि में प्रवेश कर उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ।
परंतु इस बीच कहीं भी वाल्मीकि रामायण में जूठे बेरों का उल्लेख लेशमात्र भी नहीं हुआ। फल फूल, आदर सत्कार की बात अवश्य हुई, परंतु बेर जूठे करने की बात नहीं हुई, न लक्ष्मण जी के नाक भौं सिकोड़ने का कोई उल्लेख है। तो क्या ये उत्तरार्ध के रामायण संस्करणों की देन है? संभव है, क्योंकि वाल्मीकि रामायण में तो कहीं नहीं लिखित है कि वनवास के समय राम-लक्ष्मण ने शबरी द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए जूठे बेर खाये।
विश्वास नहीं होता तो इन श्लोकों को पढ़ लीजिए –
एवम् उक्ता महाभागैः तदा अहम् पुरुषर्षभ |
मया तु विविधम् वन्यम् संचितम् पुरुषर्षभ || ३-७४-१७
तव अर्थे पुरुषव्याघ्र पम्पायाः तीर संभवम् |
अर्थात शबरी श्रीराम से कहती हैं, “हे मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम, मुझे अनेक ऋषि मुनियों द्वारा जो सुझाया गया, उसी के अनुसार आपके पंप सरोवर का शुद्ध जल और वन के फल और खाद्य सामग्री लाई हूं!”
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अब बताइए, कहां है बेर का उल्लेख? कहां है बेर को जूटे करने का वर्णन? ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि रामायण की अनेक भ्रांतियों की भांति शबरी के ‘जूटे बेर’ भी वो भ्रम है, जो वाल्मीकि जी के मूल रामायण का भाग था ही नहीं।
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