“तो तुम जाना चाहते हो?”
“जी सर?”
“देश स्वतंत्र हो रहा है, और तुम जॉब से स्वतंत्र होना चाहता हो?”
“सर, 30 वर्षों से नौकरी पर रहा हूँ। कभी सोचा नहीं था कि मेरे जीते जी देश स्वतंत्र होगा परंतु अब लगता है कि मुझे अब नौकरी त्याग देनी चाहिए।”
“देखो, यह थकने और हारने का समय नहीं। तुम्हें पता है कि जिस हाल में अंग्रेज आए थे, उसी हाल में छोड़कर जा रहे हैं? कितने प्रांत और रियासत इस देश में होंगे?”
“सर, कुछ 564 या 565!”
“इनमें से अधिकतम एक स्वतंत्र राष्ट्र बनने का ख्वाब देख रहे हैं। ये अंग्रेजों का दास बनना स्वीकार करेंगे पर हमारे साथ आँख भी नहीं मिलाएंगे। इन्हें हम भारत का भाग्यविधाता नहीं बनने दे सकते! कश्मीर से कन्याकुमारी तक, अगर इस राष्ट्र को एक करना है तो हमें साथ मिलकर कार्य करना होगा”!
ये संवाद था एक गृह मंत्री और उसके अनुचर के बीच, जो प्रारंभ में रिटायरमेंट की सोच रहे थे। परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया और उन्होंने इस व्यक्ति का आयुपर्यंत साथ दिया। यदि ये नहीं होते तो सरदार पटेल 565 प्रांतों को जोड़कर वर्तमान भारत को स्थापित नहीं कर पाते। इन दोनों ने मिलकर कश्मीर को भी लगभग एक कर दिया था, यदि अधीरता में नेहरू ने गुड़ गोबर न किया होता। यह कथा है उस संकल्प की, जिसे सरदार पटेल और वीपी मेनन ने मिलकर पूरा किया – राष्ट्र के एकीकरण का!
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सरदार पटेल के राइटहैंड थे वीपी मेनन
सरदार पटेल के बारे में हम सभी अधिकतम परिचित हैं परंतु उनके दाहिने हाथ, वीपी मेनन से उतने नहीं हैं। इनका जन्म केरल के मलबार क्षेत्र में हुआ था। उनके पिता चुनंगाड़ शंकर मेनन एक विद्यालय के प्रधानाचार्य थे। बचपन में अपनी पढ़ाई का बोझ घरवालों के ऊपर से हठाने के लिए वो घर से भाग गए। पहले रेलवे में कोयला झोंका, फिर खनिक और बेंगलोर तंबाकू कंपनी में मुंशी का काम करने के बाद भारतीय प्रशासन सेवा में नीचली स्तर से अपनी जीविका शुरू कर दी। अपने मेहनत के सहारे मेनन ने अंग्रेज सरकार में सबसे उच्च प्रशासन सेवक का पद अलंकृत किया। भारत के संविधान के मामले में मेनन पंडित थे और स्वतंत्रता से ठीक पूर्व वो लॉर्ड माउंटबेटन के विशेष सलाहकारों में से एक थे।
स्वतंत्रता के पश्चात वीपी मेनन सरदार पटेल के अधीन राज्य मंत्रालय के सचिव बनाए गए। पटेल के साथ मेनन का काफी गहरा संबंध था। पटेल मेनन की राजनीतिक कुशलता और कार्य-प्राप्ति से प्रभावित थे, जिसके कारण मेनन को वही प्रतिष्ठा मिली जिसकी एक प्रशासक अपने से वरिष्ट व्यक्ति से उम्मीद करता है। मेनन, पटेल से करीब रहकर 565 राज्यों का भारत से जोडने के काम में उनका हाथ बंटाया। इनकी कार्यकुशलता जूनागढ़ के विषय पर ही देखने को मिलेगा। इस प्रांत पर बबाई पश्तून समुदाय का शासन था, जिसके अंतिम शासक थे नवाबज़ादा सर मोहम्मद महाबत खान तृतीय ‘खानजी’। ये शासक अपने आप में बड़ा अनोखा लेकिन बड़ा सनकी भी था।
तो फिर ऐसा क्या हुआ, जिसके कारण ऐसा अजीबोगरीब नवाब पाकिस्तान से जुड़ने का ख्वाब देखने लगा? इसका कारण था उसका नया दीवान, शाहनवाज़ भुट्टो। शाहनवाज़ भुट्टो कट्टरपंथी इस्लाम का जीता जागता प्रतीक था, जिसने एक सिन्धी हिन्दू कन्या लद्दन बाई से विवाह कर उसका इस्लाम में धर्मपरिवर्तन भी कराया। ये वही शाहनवाज़ भुट्टो हैं, जिसके बेटे जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपनी सनक में लेफ्टिनेंट जनरल टिक्का खान के जरिए पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) पर बेहिसाब अत्याचार ढ़ाए और जिसकी पौत्री बेनज़ीर भुट्टो ने कश्मीर में लाखों हिंदुओं के नरसंहार की नींव रखी।
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उसने पहले जूनागढ़ के तत्कालीन दीवान, खान बहादुर अब्दुल कादिर मुहम्मद हुसैन को पदच्युत किया, जो मात्र एक सशक्त और स्वतंत्र काठियावाड़ के ख्वाब देख रहे थे। शाहनवाज़ भुट्टो के उकसाने पर ही जूनागढ़ के नवाब ने सितंबर 1947 में पाकिस्तान से जुड़ने का हास्यास्पद निर्णय लिया था। ये इसलिए हास्यास्पद था क्योंकि जूनागढ़ भौगोलिक ही नहीं अपितु सामरिक दृष्टि से भी पाकिस्तान से मीलों दूर था। उसका सबसे निकट तट, वेरावल, जहां पवित्र सोमनाथ मंदिर स्थित है, वो भी कराची से लगभग 557 किलोमीटर दूर है लेकिन उस सनकी नवाब के जिहाद के ख्वाब जो न कराए। ऐसे में भुट्टो जितना उकसाते गए, नवाब उतना ही पाकिस्तान में जूनागढ़ को मिलाने के ख्वाब देखते गए।
जूनागढ़ का भारत में विलय
लेकिन जब पानी सर के ऊपर से निकलने लगा तो सरदार पटेल और वीपी मेनन समझ गए कि सैन्य कार्रवाई ही जूनागढ़ की स्वतंत्रता का एकमात्र विकल्प है। नवाब मोहम्मद खान तुरंत स्थिति भांप गए और लगभग आधी से अधिक संपत्ति और अपनी कई बीवियों एवं कुत्तों सहित कराची भाग गए लेकिन एक पत्नी और कुछ कुत्ते तब भी पीछे छूट गए। परंतु शाहनवाज़ भुट्टो और उनका अत्याचारी शासन तब भी डटा रहा लेकिन जब साथी राज्यों ने सहायता देने से मना कर दिया और सेना एवं जूनागढ़ की जनता ने सशस्त्र विद्रोह में सहयोग दिया तो शाहनवाज़ भुट्टो के पास भारत को जूनागढ़ सौंपने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। 8 नवंबर को सेना ने जूनागढ़ में प्रवेश किया और 9 नवंबर को जूनागढ़ राज्य स्वतंत्र हुआ।
सरदार पटेल जनमत संग्रह के पक्ष में नहीं थे परंतु वीपी मेनन ने उन्हें इस प्रक्रिया के लिए मना लिया। जब 1948 में जनमत संग्रह हुआ तो मात्र 91 लोगों ने पाकिस्तान के लिए मत दिया और बाकी सब ने भारत में विलय को समर्थन दिया। जूनागढ़ की स्वतंत्रता आधिकारिक रूप से 9 नवंबर को होती है पर नींव तो 8 नवंबर को ही पड़ चुकी थी और इसी ने सरदार पटेल के ‘लौहपुरुष’ की छवि को स्थापित करने में सहायता भी की। अभी तो हमने हैदराबाद, जोधपुर जैसे महत्वपूर्ण संधियों पर तो प्रकाश भी नहीं डाला है, अन्यथा एक सम्पूर्ण उपन्यास लिखना पड़ सकता है।
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