इतिहास में जय उसी की होती है जो विजयी हो। ये सत्य है, परंतु एक सत्य ये भी है कि इतिहास में कुछ ऐसे नायक भी हुए जो जय के योग्य तो हैं परंतु उनकी कीर्ति तो छोड़िए उनका उल्लेख तक नहीं किया गया। मौर्य शासन स्थापित करने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य के बारे में सब परिचित हैं, एवं उसे शिखर तक ले जाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अशोकवर्धन मौर्य अथवा सम्राट अशोक से भी कई परिचित हैं, परंतु इस बात से कौन परिचित है कि इस साम्राज्य को अक्षुण्ण रखने में एक अन्य व्यक्ति का भी हाथ था जिसकी कीर्ति कम ही गाई जाती है। इस लेख में जानेंगे कि कैसे सम्राट बिंदुसार मौर्य (Bindusara) साम्राज्य के संकटमोचक बने थे, परंतु उनका यश आधुनिक इतिहास में कम ही संकलित हुआ किया गया है।
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सम्राट बिंदुसार
मौर्य साम्राज्य की स्थापना कैसे हुई? जब आचार्य चाणक्य के मार्गदर्शन में चन्द्रगुप्त मौर्य ने नन्द वंश को अपदस्थ कर दिया। मौर्य वंश अपने शिखर पर कैसे पहुंचा? सम्राट अशोक के नेतृत्व में उसकी पहुंच भारतवर्ष से आगे चारों दिशाओं में फैलने लगी, और बौद्ध एवं जैन धर्म को बढ़ावा मिलने लगा। परंतु ठहरिए, कुछ अधूरा नहीं लग रहा आपको? है क्यों नहीं, बीच में सम्राट बिंदुसार भी तो थे!
अमित्रघात के नाम से प्रसिद्ध बिंदुसार का जन्म 340 ईसा पूर्व पाटलिपुत्र में हुआ था। इनके जन्म की कथा बड़ी अनोखी है। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य को हरसंभव संकट से बचाने हेतु आचार्य चाणक्य प्रशिक्षित करते थे, जिसके अंतर्गत वे उनके भोजन में थोड़ा थोड़ा विष मिलाते थे, ताकि वे विष को ग्रहण करने के आदी हो जाएं और यदि कभी शत्रु उन्हें विष का सेवन कराकर मारने की कोशिश भी करे तो उसका राजा पर कोई विशेष प्रभाव न पड़ सके। साथ ही उन्होंने ये आदेश दिया कि यह भोजन सम्राट के अतिरिक्त कोई अन्य न ग्रहण करें।
परंतु भाग्य का कुचक्र कहिए, एक दिन विष मिलाया हुआ खाना राजा की पत्नी दुर्धरा ने ग्रहण कर लिया, जो उस समय गर्भवती थीं। अब विष से पूरित खाना खाते ही उनकी तबियत बिगड़ने लगी, और जब आचार्य को इस बात का पता चला तो उन्होंने तुरंत रानी के गर्भ को काटकर उसमें से शिशु को बाहर निकाला और राजा के वंश की रक्षा की। यह शिशु आगे चलकर राजा बिंदुसार के रूप में विख्यात हुए, क्योंकि विष का एक तिल या बिन्दु समान अंश उनके मस्तक पर रह गया था।
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आचार्य चाणक्य को लेकर फैली बात
आचार्य चाणक्य ने ऐसा करके मौर्य साम्राज्य के वंश को खत्म होने से बचाया था लेकिन बाद में किसी ने यह गलत बात फैला दी कि रानी की मृत्यु आचार्य के कारण हुई। अंतत: बाद में जब राजा बिंदुसार को दाई से जब पूरा सत्य पता चला तो उन्होंने आचार्य के सिर पर लगा दाग हटाने के लिए उन्हें महल में वापस लौटने को कहा लेकिन आचार्य ने अस्वीकार कर दिया, और उन्होंने सन्यास ग्रहण करने की इच्छा धारण की। कोई कहते हैं कि आचार्य इसके पश्चात कभी वापस नहीं आए, ऐसे में उनके वास्तविक अंत पर अभी तक संशय है, परंतु इस बारे में फिर कभी।
अब बिंदुसार ने ऐसा क्या किया कि उनका गुणगान करना चाहिए? तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के अनुसार, बिंदुसार ने न केवल मौर्य साम्राज्य को अक्षुण्ण रखा, अपितु अपने अल्पकालिक जीवन में सम्पूर्ण भारत की एकता कायम रखी। कई विद्वानों के अनुसार बिंदुसार ने दक्षिण पर विजय प्राप्त की। ‘दिव्यावदान‘ के अनुसार तक्षशिला में राज्य के प्रति विद्रोह हुआ, जिसे शांत करने के लिए बिंदुसार ने वहां अपने लड़के अशोक को कुमारामात्य बनाकर भेजा। जब वह वहाँ पहुंचा तो लोगों ने कहा कि हम न बिंदुसार से विरोध करते हैं न राजकुमार से ही, हम केवल दुष्ट मंत्रियों के प्रति विरोध प्रदर्शित करते हैं। बिंदुसार की विजयों को पुष्ट करने अथवा खंडित करने के लिए कुछ भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। कई लोगों का मानना है कि बिंदुसार ने कुछ नहीं किया, परंतु यदि ऐसा होता तो कलिंग अथवा कुछ एक राज्यों को छोड़कर लगभग दक्षिण भारत तक उनका साम्राज्य कैसे फैलता?
अब सम्राट अमित्रघात या बिंदुसार का इतना गुणगान क्यों नहीं होता, जितना सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य या सम्राट अशोक का होता है? क्या इसलिए कि वे अयोग्य थे, या इसलिए कि उनमें कोई विशेषज्ञता नहीं थी? ऐसा तो नहीं है, क्योंकि लगभग 49 वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त होने वाले मौर्य वंश ये शासक एक सशक्त साम्राज्य के रक्षक रहे।
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मूल कारण
तो मूल कारण क्या है? कहते हैं कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य अंत समय में अन्न जल त्यागकर आत्मार्पण की प्रक्रिया अपना रहे थे, उन्होंने जैन भिक्षुओं का सनिध्य भी प्राप्त किया था और इस तरह वो अपने शासनकाल के कुछ वर्षों बाद शांति की खोज में निकल पड़े। जिसके बाद सत्ता का नेतृत्व तब 22 वर्ष के रहे बिंदुसार को दे दिया गया जिन्होंने विशाल मगध साम्राज्य की रक्षा की। तब भी चाणक्य ही बिंदुसार के प्रधानमंत्री थे। गुप्त शासन का विस्तार करते हुए उन्होंने 16 राज्यों को जीता और तमिलनाडु तक को अपने राज्य में मिला लिया। हालांकि, दक्षिण के इतिहासकार इस सत्य से मना करते हैं।
वह बिंदुसार का ही शासनकाल था जब अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक मगध साम्राज्य का फैलाव हो चुका था। Egypt से लेकर ग्रीस तक इस साम्राज्य के प्रगाढ़ संबंध रहे। 25 वर्षों के अपने शासनकाल में कई बड़े काम किए लेकिन उन्हें भूला दिया गया। चंद्रगुप्त, बिंदुसार और अशोक, मौर्य वंश के ये 3 शीर्ष राजाओं ने 90 वर्षों तक शासन चलाया लेकिन बिंदुसार का 25 वर्ष बड़ी सरलता से भुला दिया जाता है क्योंकि वो हिंदू थे।
हुआ यह कि मौर्य काल में जैन और बौद्ध धर्म का प्रसार प्रचार हुआ जिसमें चंद्रगुप्त ने जैन धर्म को धारण किया, जिसके कारण जैन धर्मग्रंथों में उनके बारे में बहुत बताया गया और उसी तरह अशोक ने बौद्ध धर्म को धारण किया तो इस तरह से बौद्ध ग्रंथों में उनकी चर्चा हुई। जबकि बिंदुसार राजा बने तो वो सनातन धर्म में ही रहे। समकालीन जैन और बौद्धग्रंथों में तब सनातन धर्म को कुरीतियों का अड्डा कहा गया। और इस तरह पूरे षड्यंत्र के साथ बिंदुसार को भुला दिया गया।
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ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि सम्राट अमित्रघात यानी बिंदुसार ने मौर्य साम्राज्य के यश को विद्यमान रखा, और उसके कीर्ति को आगे बढ़ाया। परंतु चूंकि उन्होंने सनातन धर्म की महिमा के साथ कोई समझौता नहीं किया, इसलिए उन्हें उतना सम्मान नहीं मिला, जिसके वे योग्य थे और वे अपने पिता और अपने पुत्र के कीर्ति के बीच दबकर रह गए।
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