अभिनय एक ऐसी कला है, जहां आप बहुत कुछ करके भी कोई प्रभाव नहीं डाल पाते और कुछ नहीं करके भी बहुत कुछ प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे बड़े कम लोग हैं, जो इस स्तर पर प्रभाव डाल सकते हैं कि उद्योग के बड़े से बड़े महारथी भी इनके समक्ष नगण्य प्रतीत हो। प्रसिद्ध अभिनेता संजीव कुमार भी कुछ ऐसे ही थे। इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे संजीव कुमार ने फिल्म संघर्ष में अपने चंद मिनट के अभिनय से दिलीप कुमार जैसे प्रभावशाली अभिनेता के रोल को नगण्य कर दिया था, जिसके बाद दिलीप कुमार को भी उनकी प्रशंसा करनी पड़ी थी।
दरअसल, संजीव कुमार को सबने निरंतर एक दिलजले देवदास के रूप में रूपांतरित किया है, जो मानो गुरुदत्त के बिछड़े हुए रिश्तेदार थे। परंतु सत्य का रूप एक ही है, अंतर इस बात से होता है कि आप किस पक्ष से सुनते हैं। संजीव कुमार के प्रशंसक जुटाए नहीं जाते थे, वह स्वत: बन जाते थे। किसे पता था कि सूरत से नाता रखने वाले हरिहर जेठालाल जरिवाला, जिन्हें हम संजीव कुमार के नाम से बेहतर जानते हैं, धीरे धीरे भारतीय सिनेमा के लिए एक अमिट नाम बन जाएंगे। परिपक्वता का दूसरा नाम इन्हें यूं ही नहीं बुलाया गया क्योंकि वो अपनी आयु से कुछ ज्यादा ही मैच्योर थे।
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‘हम हिंदुस्तानी’ से हुई शुरूआत
प्रतिभा की कोई कमी नहीं थी संजीव कुमार में। जिस स्कूल से आज पंकज त्रिपाठी, मनोज बाजपेयी जैसे अभिनेता निकलते थे, कहा जा सकता है कि ये उसके हेडमास्टर हुआ करते थे। अभिनय इनके बाएं हाथ का खेल था और आंखों से अभिनय करने की कला तो मानो इन्हें स्वयं देवताओं से आशीर्वाद में मिली थी। कोशिश, दस्तक, खिलौना, नया दिन नई रात जैसे फिल्म इनकी अद्भुत कला का जीता जागता प्रमाण है। संजीव कुमार शुरूआत में रंगमंच से जुड़ें परन्तु बाद में उन्होंने फ़िल्मालय के एक्टिंग स्कूल में दाखिला लिया। इसी दौरान वर्ष 1960 में उन्हें फ़िल्मालय बैनर की फ़िल्म हम हिन्दुस्तानी में एक छोटी सी भूमिका निभाने का मौका मिला। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और एक के बाद एक फ़िल्मों में अपने शानदार अभिनय से वो एक प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता बने।
मुख्य अभिनेता के रूप में संजीव कुमार को सर्वप्रथम काम 1965 में प्रदर्शित फ़िल्म निशान में मिला। परंतु 1968 तक उनके पास कोई विशेष प्रोजेक्ट नहीं आया। इसी बीच उन्होंने स्मगलर, पति-पत्नी, हुस्न और इश्क, बादल, नौनिहाल और गुनहगार जैसी कई फ़िल्मों में अभिनय किया लेकिन इनमें से कोई भी फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई। परंतु प्रतिभा को दबाया जा सकता है, सदैव के लिए कुचला नहीं जा सकता और संजीव कुमार के साथ भी यही हुआ। वर्ष 1968 में प्रदर्शित दो फिल्मों में सहायक भूमिकाओं में उन्होंने ऐसी छाप छोड़ी कि पूरे भारतीय सिनेमा उद्योग को पता चल गया कि यह कोई छोटे मोटे कलाकार नहीं हैं। उसके बाद उनकी फिल्म आई ‘शिकार’। इसमें वह पुलिस ऑफिसर की भूमिका में दिखायी दिये। अब यूं तो यह फ़िल्म पूरी तरह अभिनेता धर्मेन्द्र पर केन्द्रित थी, फिर भी संजीव कुमार, धर्मेन्द्र जैसे अभिनेता की उपस्थिति में भी अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फ़िल्म में उनके दमदार अभिनय के लिये उन्हें सहायक अभिनेता का फ़िल्मफेयर अवार्ड भी मिला।
‘संघर्ष’ ने बना दिया स्टार
परंतु जिस फिल्म ने उन्हें रातों रात एक स्टार कलाकार की पदवी दी, वह थी ‘संघर्ष’। यहां उनके समक्ष कोई और नहीं, हिन्दी फिल्म जगत के सबसे बड़े सूरमाओं में से एक ‘ट्रैजडी किंग’ दिलीप कुमार थे, परंतु यहां कुछ क्षण के लिए ही सही परंतु संजीव कुमार ने उन्हें भी अपने अभिनय से पछाड़ दिया और स्वयं यूसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार को उनके प्रतिभा की प्रशंसा करने पर विवश होना पड़ा। संघर्ष में उनके सामने हिन्दी फ़िल्म जगत के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे लेकिन संजीव कुमार ने अपनी छोटी-सी भूमिका के बावजूद दर्शकों की वाहवाही लूट ली। इसी फिल्म (संघर्ष) में जिस दृश्य में दिलीप कुमार की बांहों में दम तोड़ने का दृश्य निभाना था, उन्होंने वह इतनी कुशलता से किया कि स्वयं दिलीप कुमार भी सकते में आ गये। ऐसे में संजीव कुमार केवल अभिनेता नहीं थे, अभिनय कला के जीते जागते प्रयोगशाला थे। वर्ष 1960 से 1984 तक उन्होंने भारतीय सिनेमा की अद्वितीय सेवा की। उन्हें उनके शिष्ट व्यवहार व विशिष्ट अभिनय शैली के लिये फ़िल्मजगत में हमेशा स्मरण किया जाएगा।
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