भारत और चीन के बीच का सीमा विवाद आए दिन चर्चा में बना रहता है। हाल ही में तवांग में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच झड़प की खबरें सामने आई थी, जिसमें भारत के शूरवीरों ने ‘नन्हे मुन्हे’ चीनी सैनिकों को जमकर धोया। परन्तु सीमा विवाद जब भी जोर पकड़ता है तब अपने साथ कई सारे प्रश्नों की एक लहर लेकर आता है, जैसे- भारत के साथ चीन का सीमा विवाद कब प्रारंभ हुआ ? क्यों प्रारंभ हुआ और आखिरकार इसके लिए कौन जिम्मेदार है? इस लेख में हम इन सभी प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करेंगे और जानेंगे कि आखिरकार भारत, चीन सीमा विवाद शुरू कैसे हुआ और वह कौन सा गलत फैसला था, जिसके कारण भारत के कुछ इलाके चीन के कब्जे में चले गए।
भारत चीन सीमा विवाद – यहां समझिए पूरी कहानी
दरअसल, भारत चीन सीमा विवाद की अगर तह में जाए तो हमें 30 दिसंबर 1949, एक ऐसी तिथि के रूप में दिखाई देती है, जहां एक तय प्लान के अंतर्गत इस विवाद की नींव रखी गई। अब आप सोच रहे होंगे कि 30 दिसंबर 1949 को ऐसा क्या हुआ कि भारत के लिए चीन सीमा विवाद एक नासूर बन कर रह गया। ज्ञात हो कि 30 दिसंबर 1949 से ठीक दो महीने पहले चीन में 1 अक्टूबर 1949 को कम्युनिस्ट नेता माओ जिदोंग के द्वारा पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का गठन किया गया।
परन्तु इसके बाद चीन को एक देश या यूं कहें कि एक तानाशाही सरकार चलाने के लिए पूरे विश्व की मान्यता चाहिए थी और यहीं पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू मात खा गए। उन्होंने 30 दिसबंर 1949 को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को न केवल चीन के नेतृत्व कर्ता के रुप में मान्यता दी बल्कि 1 अप्रैल 1950 को नए शासन के साथ राजनयिक संबंध भी स्थापित किए। इस प्रकार भारत, म्यांमार के बाद दूसरा गैर कम्युनिस्ट देश बना, जिसने चीन में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की संप्रभुता को स्वीकार किया था।
1949 में चीन में सरकार बनाने के बाद पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना एक ओर जहां भारत की ओर मित्रता का हाथ बड़ा रहा था वहीं दूसरी ओर तिब्बत पर कब्जा करने का प्रयास कर रहा था, जिसमें वह वर्ष 1951 में सफल भी हुआ। परन्तु नेहरू अभी भी उसकी चाल को समझ नहीं पाए और हिंदी-चीनी भाई भाई का नारा बुलंद करते रहे। असल में चीन मीठे जहर के तरह अपना काम कर रहा था।
पटेल ने पहले ही चेताया था
स्वीडिश पत्रकार बर्टिल लिंटनर ने अपनी क़िताब ‘चाइनाज इंडिया वॉर’ में लिखा है कि तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल उस समय के कुछ चुनिंदा नेताओं में से थे, जिन्होंने चीन की चालाकी को समझ लिया था। इसलिए उन्होंने अपनी मृत्यु से एक महीने पूर्व नेहरू को पत्र लिखते हुए कहा, “तिब्बत के चीन में मिलाये जाने के बाद वह हमारे दरवाज़े तक पहुंच गया है। इसके नतीजे को हमें समझने की ज़रूरत है। पूरे इतिहास में उत्तर-पूर्वी सीमा को लेकर हम शायद ही कभी परेशान हुए हैं। उत्तर में हिमालय सभी ख़तरों के सामने हमारे लिए रक्षा कवच के रूप में खड़ा रहा है। तिब्बत हमारा पड़ोसी था और उससे कभी कोई परेशानी नहीं हुई। पहले चीनी विभाजित थे। उनकी अपनी घरेलू समस्याएं थीं और उन्होंने हमें कभी परेशान नहीं किया लेकिन अब हालात बदल गये हैं।”
इसी के साथ बर्टिल लिंटनर ने यह भी लिखा है कि “नेहरू नए-नए बने कम्युनिस्ट शासित चीन को समझने में नाकाम रहे। उन्हें लगता रहा कि दोनों देशों के बीच दोस्ती ही रास्ता है। नेहरू का मानना था कि भारत और चीन दोनों उत्पीड़न के ख़िलाफ़ जीत हासिल कर खड़े हुए हैं और दोनों मुल्कों को एशिया, अफ़्रीका में आज़ाद हुए नये देशों के साथ मिलकर काम करना चाहिए।” परन्तु चीन इस प्रकार से कभी नहीं सोचता था, उसकी नीति सदैव ही विस्तारवाद की रही है। अपनी सीमाओं का विस्तार करने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है और जा भी रहा है।
नेहरू भाई-भाई करते रह गए चीन ने युद्ध छेड़ दिया
यानी यह स्पष्ट है कि तिब्बत पर कब्जा करने और सरदार वल्लभ भाई पटेल द्वारा आगाह करने के बावजूद पं नेहरू अपने मद में चूर रहें। वह धूर्त चीन के चालों को समझने में नाकाम रहे। वे अभी भी सोच रहे थे कि चीन, भारत के साथ मित्रता करना चाहता है जिसके कारण वो अक्टूबर 1954 में चीन के दौरे पर भी गए और जून 1954 से जनवरी 1957 के बीच चीन के पहले प्रधानमंत्री चाउ एन लाई भी 4 बार भारत के दौरे पर आए। परन्तु इसके बाद भी भारत को क्या मिला, 1962 का युद्ध और सीमाओं का अधिग्रहण।
ज्ञात हो कि 20 अक्टूबर 1962 को जब युद्ध शुरू हुआ तो चीन, लद्दाख के चुशूल के रेजांग ला के साथ-साथ तिब्बत से लगने वाले तवांग और अरुणाचल प्रदेश में घुस गया और कई इलाकों पर कब्जा भी जमा लिया। हालांकि, 20 नवंबर 1962 को उसने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी और तवांग एवं अरुणाचल प्रदेश से बाहर निकल गया। लेकिन उसने लद्दाख में अपने द्वारा कब्जा की गई भूमि पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। आज के समय में वहीं क्षेत्र अक्साई चिन के नाम से जाना जाता है और यह लद्दाख का उत्तरी पूर्वी हिस्सा है, जिस पर चीन ने अवैध कब्जा जमा रखा है।
ऐसे में यह स्पष्ट है कि 30 दिसंबर 1949 को लिया गया फैसला और चीन-चीन का राग अलापने वाले नेहरू का दृष्टिकोण कहीं से भी तर्कसंगत नहीं था और अगर हम तब ही संभल गए होते या थोड़ी दूरदर्शिता दिखाई होती, तो आज चीन ऐसी हिमाकत करने की कोशिश भी नहीं कर पाता। अगर नेहरू ने पटेल की बात मान ली होती, तब भी ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं हुई होती।
इसके अलावा अगर 1962 के युद्ध के बाद भी सरकारों ने नॉर्थ ईस्ट को गंभीरता से लिया होता, उसे बेहतर करने के प्रयास किए होते, उसे मजबूत किया होता, सीमावर्ती इलाकों पर अधिक ध्यान दिया होता, सेना को मजबूत किया होता तो ऐसी स्थिति कतई नहीं होती। यदि 30 दिसंबर 1949 के नेहरू के फैसले के बारे में संक्षेप में कहा जाए तो यह एक ऐसा फैसला था, जिसके बाद चीन को अपनी मनमानी करने के लिए हरी झंडी मिल चुकी थी और आज भारत तो नेहरू की इस गलती का खामियाजा भुगत ही रहा है, साथ ही पूरी दुनिया भी चीन से परेशान हो चुकी है।
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