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कैसे एक षड्यंत्र के तहत भारत को जाति के आधार पर बांटा गया? एक एक कड़ी समझिए

'जाति' एक स्पेनिश शब्द "कास्टा" की व्युत्पत्ति है, जो मुख्य रूप से समुदायों को संदर्भित करता. लेकिन अंग्रेजों ने जाति व्यवस्था को इतना दूषित कर दिया कि आज तक स्थिति में बहुत अधिक सुधार नहीं हो पाया है.

TFI Desk द्वारा TFI Desk
16 December 2022
in मत
Caste in India

Source- TFI

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कौन जात हो, आपने यह प्रश्र कई बार सुना होगा। किसी भी मुद्दे को जाति से जोड़कर सवर्णों की गलती निकालना वामपंथियों की आदत है। सटीक शब्दों में कहा जाए तो यह एक ऐसी बीमारी बन गई है, जो कि भारत को कदम-कदम पर बदनाम करने और उसकी सामाजिक व्यवस्था को लेकर उसे वैश्विक स्तर पर कठघरे में खड़ा करने का काम करती है। भले ही इसे लेकर विभिन्न तरह के दुष्प्रचार गढ़े जाते हों किन्तु धर्म, जाति और विकास तीनों ही वर्तमान भारत की सच्चाई है। जब से देश में मोदी सरकार आई है तब से वामपंथी गिरोह प्रत्येक मुद्दे पर जाति और धर्म को ढूंढ लेता है, इसका सबसे प्रासंगिक उदाहरण दिल्ली एयरपोर्ट पर हुई भीड़-भाड़ को लेकर की गई इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्टिंग है।

इंडियन एक्सप्रेस की कुंठा देखिए

हाल ही में दिल्ली एयरपोर्ट के टर्मिनल 3 की तुलना एक बस स्टैंड से की गई क्योंकि वहां बिल्कुल बस स्टैंड की तरह ही भीड़-भाड हो गई। नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने खुद घटनास्थल का दौरा करने का फैसला किया, जिससे स्थिति को समझा जा सके। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्टर को इसमें भी जाति का एंगल मिल गया। लेखक याशी ने लिखा कि लोगों को गड़बड़ी की शिकायत करना बंद कर देना चाहिए। याशी ने गड़बड़ी को लेकर बताया कि दिल्ली एयरपोर्ट के T3 पर जातिगत विशेषाधिकार लोगों को नुकसान पहुंचा रहा है।

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इंडियन एक्सप्रेस की पत्रकार याशी का सुझाव है कि केवल सवर्ण श्रेणी के लोग ही इस समस्या का सामना कर रहे हैं। उन्होंने तर्क दिया कि प्रमुख जातियों को हवाईअड्डों की हलचल से खुद को बचाने के लिए रिश्वत देने की आदत है। यह आधुनिक समय में उनके लिए आसानी से उपलब्ध नहीं है और इसके लिए वे स्पष्ट रूप से चिढ़ महसूस करते हैं। याशी ने यह दिखाने की कोशिश की है कि सवर्णों की इस बात से परेशानी है कि दिल्ली एयरपोर्ट पर भीड़ है क्योंकि वे कभी उम्मीद ही नहीं करते थे कि अन्य जाति वर्ग भी हवाई यात्रा कर सकता है। बेहद अजीब बात यह है कि अपने लेख में लेखिका ने किसी प्रकार के कोई साक्ष्य दिए ही नहीं हैं। याशी ने तर्क के बजाए भावनाओं पर जोर दिया है। दुर्भाग्य से पिछली कुछ शताब्दियों में भारत में जातिवाद के इर्द-गिर्द इसी तरह की कई अवधारणाएं गढ़ी गई हैं।

और पढ़ें: “मुस्लिम तुम्हें कितना भी पीटें, तुम पलटवार मत करो” आइए, हिंदुत्व पर गांधी के ‘योगदान’ को समझें

पश्चिम की देन है यह व्यवस्था

एक जाति व्यवस्था के रूप में भारतीय वर्ण व्यवस्था के नामकरण का पता बाइबिल के एक प्रसिद्ध कथन में लगाया जा सकता है। जिसमें कहा गया, “जिसके पास संसाधन हैं, उसे और दिए जाएंगे और उसके पास बहुतायत चीजें होगी परन्तु जिसके पास नहीं है, उस से वह भी ले लिया जाएगा, जो उसके पास है।” इसमें एक असमान आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था की गंध है। हाल के दिनों में पश्चिम ने असमानता के बारे में चिल्लाना शुरू कर दिया है। कुछ दशक पहले जब उपभोक्तावाद पश्चिमी देशों की प्रमुख नीति नहीं बनी थी, तब पश्चिमी देश भी बाइबिल के इसी कथन को ही समाज में असमानता को व्यवस्थित करने वाला मानते थे और इसके अनुसार ही वे भी असमानता को विस्तार देते थे।

यहां तक ​​कि जब उन्होंने उपनिवेशीकरण के लिए अपनी यात्राएं शुरू की तो पश्चिमी समाज का अधिकांश हिस्सा उस नुस्खे पर ही आधारित था। एक तरह से यह भूगोल में दबदबे वाले समूह के लिए अच्छा था। नस्ल पर आधारित बातें कहकर पश्चिमी देशों ने लोगों को बांटना शुरू किया। सीधे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि वे ही जाति के आधार पर लोगों के बीच खटास लाने का कार्य करते रहे। यहां तक ​​कि ‘जाति’ भी एक स्पेनिश शब्द “कास्टा” की व्युत्पत्ति है।

जब यूरोपीय भारत में उतरे तो वे भूगोल के बारे में मंत्रमुग्ध और भ्रमित दोनों थे। अखंड भारत निश्चित रूप से सबसे बड़ा भौगोलिक ब्लॉक था, जिस पर वे कब्जा करना चाहते थे। भारत में छोटे और बड़े राज्यों की अत्यधिक विकासशीलता और विविधता के कारण सैन्य अधिग्रहण कभी भी एक विकल्प नहीं था। सौभाग्य से उनके लिए भारत में इस्लामिक जिन्न आकार ले चुका था। 1498 ई. से 1700 ई. के बीच उन्होंने भारत और इसकी विविधता को समझने की कोशिश की। इसके साथ समस्या यह थी कि उन्होंने अपना लेंस नहीं बदला क्योंकि वे भारतीयों को उनके अपने समाज की तर्ज पर वर्गीकृत करने का तरीका ढूंढ रहे थे।

अंग्रेजों ने ही की थी भारत को बांटने की प्लानिंग

1800 ई. के आसपास अंग्रेजी प्रशासन को भारत को तोड़ने का एक फॉर्मूला मिल गया। तब रॉयल स्टैटिस्टिकल सोसायटी ने सिफारिश की कि अंग्रेज, लोगों से उनके धार्मिक झुकाव के बारे में पूछें। ब्रिटिश अधिकारियों को लिखे पत्रों में से एक में इस सोसायटी ने लिखा कि हर राज्य के लिए अपने लोगों के धार्मिक विश्वासों का सटीक ज्ञान आवश्यक है। लेकिन इंग्लैंड को इन सबसे बाहर रखा जाएगा, यह उसका हिस्सा नहीं है।

लगभग उसी समय ब्रिटिश, सैन्य विजय और सहायक गठबंधनों के माध्यम से भारत पर अपनी पकड़ मजबूत कर रहे थे। इसके बाद उनका अगला कदम स्थानीय लोगों को अंग्रेजों के प्रति वफादार बनने के लिए राजी करना था। यह एक कठिन कार्य था क्योंकि उन्होंने अभी-अभी जजिया कर और इस्लामी दमन के अन्य रूपों से अपनी स्वतंत्रता का आनंद लेना शुरू ही किया था। ऐसे समय में अंग्रेजों द्वारा लोगों के धार्मिक झुकाव के बारे में डेटा एकत्र करने की प्रक्रिया ने भारतीयों को भ्रमित किया और अंग्रेजी हुकूमत ने जानबूझकर ऐसा किया था।

अपनी पुस्तक “ब्रेकिंग इंडिया” में डॉ. राजीव मल्होत्रा ​​ने खुलासा किया है कि भारतीय समाज को विभाजित करने के लिए “आर्यन बनाम गैर-आर्यन” कथा दी गई थी। भारतीय समाज के शिक्षित और योद्धा वर्णों को आर्य आक्रमणकारियों के रूप में दिखाया गया, जो भारत आए और गैर-आर्यों के हितों और जीवन शैली को अपने अधीन कर लिया। गैर आर्य श्रेणी उपरोक्त श्रेणियों से संबंधित लोगों के अलावा अन्य लोगों के लिए आरक्षित थी। इनमें अन्य लोगों के अलावा 100 जाति और आदिवासी शामिल हैं।

भारतीय ग्रंथों को बदनाम किया गया

यह पूरा खेल अंग्रजों के लिए सहज था। भारतीय समाज में उनका विभाजन डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के अनुरूप था। वे एक समूह को कम विकसित जबकि दूसरे को अधिक के रूप में चित्रित करते थे। नतीजतन अंग्रेजों के दावे के खोखलेपन को उजागर करने वाले भारतीय ग्रंथों को बदनाम किया गया। रामायण, महाभारत, वेद, पुराण, उपनिषद और समृद्ध भारतीय साहित्य के ढेरों को पुरातन, गैर-वैज्ञानिक और पौराणिक कहानियों की संज्ञा दी गई।

30 वर्षों की अवधि के भीतर लॉर्ड मैकाले ने प्रभावी ढंग से भारत में गुरुकुल परंपरा की स्मृति को नष्ट कर दिया और शिक्षा प्रणाली का अंग्रेजीकरण करके इसे बदल दिया। मैकाले की विरासत को हर्बर्ट होप रिस्ले ने तेजी से आगे बढ़ाया। उन्होंने लोगों को अलग-अलग जातियों में वर्गीकृत करने के लिए एक नेजल इंडेक्स विकसित किया था। यह शब्द ‘जाति’ के ढांचे के भीतर रूपांतरित हुआ और अंततः इसे अपना भी लिया गया।

और पढ़ें: पोन्नियिन सेल्वन-1 की वो कहानी, जो मणिरत्नम ने अपनी फिल्म में आपको दिखाई ही नहीं

रिस्ले का एथनोग्राफी डेटा

ज्ञात हो कि भारत में वर्ण और जाति दो समान अवधारणाएं हैं। शब्द “वर्ण” लोगों को उनके व्यवसाय के आधार पर वर्गीकृत करने के लिए एक सार्वभौमिक अवधारणा है। दूसरी ओर, “जाति” शब्द मुख्य रूप से समुदायों को संदर्भित करता है। यह सामाजिक पहचान सुनिश्चित करने का एक स्थानीय तरीका है, जबकि वर्ण एक सार्वभौमिक अवधारणा है। इन दोनों अवधारणाओं का नस्ल, जातीयता या जीन से कोई संबंध नहीं था।

हालांकि, रिस्ले के लिए ऐसा कुछ भी नहीं  था। उन्हें 1872 ई. के बाद से अंग्रेजों द्वारा एकत्र किए गए जनगणना के आंकड़ों को नस्लीय रूप से विभाजनकारी एंगल देने का कार्य सौंपा गया था। 1873 और 1901 के बीच, रिस्ले ने भारतीय समाज का गहन एथनोग्राफी अध्ययन किया था। 1891 में उन्होंने द स्टडी ऑफ एथनोलॉजी इन इंडिया नामक एक पेपर और द ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ बंगाल नामक एक पुस्तक प्रकाशित की। यह पुस्तक 1885 और 1891 के बीच बंगाल के उनके 6 वर्ष के एथनोग्राफी सर्वेक्षण पर आधारित थी।

1899 में उन्हें भारत के जनगणना आयुक्त के रूप में नियुक्त किया गया था। रिस्ले ने मौजूदा भारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं का एक खराब मैशअप बनाया और उन्हें यूरोपीय लोगों की अपनी श्रेणी या यूं कहें कि जाति व्यवस्था में डाल दिया। तथ्य यह है कि जब वो एथनोग्राफी डेटा एकत्र कर रहा था तो लोग उसके वर्गीकरण को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। रिस्ले ने स्वयं 1901 की जनगणना रिपोर्ट के बारे में अपनी टिप्पणी में इस तथ्य को नोट किया है। रिस्ले ने ही उनकी जाति को स्वयं का आविष्कार बताया और उन्हें जनगणना में दर्ज कराया। असंतुष्ट जातियों और वर्णों को क्रमिक जनगणनाओं में सूत्रीकरण को स्वीकार करना पड़ा क्योंकि उन्हें जो भी लाभ मिलेगा वह उसी वर्गीकरण पर आधारित था।

‘उत्पीड़ित बनाम दमनकारी की अवधारणा अनिवार्य बन गई’

ऐसे में जाति ब्रिटिश भारत में प्रत्येक नीति दस्तावेज की एक अप्रभेद्य विशेषता बन गई। अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी दुर्भाग्य से यह नहीं बदला। संविधान सभा ने इस शब्द और इसके नकारात्मक अर्थ को सार्वजनिक स्मृति से हटाने के लिए बहुत कम प्रयास किया। हमारी राजनीति के संस्थापकों ने “जाति” के बजाय लोगों के “वर्ग” शब्द पर जोर देने की कोशिश की। हालांकि, आरक्षण प्रावधान ने जाति को विस्तार ही दिया लेकिन यह अप्रत्यक्ष तौर पर रखा गया था।

वहीं “वर्ग” जल्दी से “जाति” में परिवर्तित हो गया और जल्द ही इसने राजनीति पर कब्जा कर लिया। राजनीति से, इसने शिक्षा जगत पर अधिकार कर लिया और शिक्षा क्षेत्र से यह जनता के लिए वैध अधिकार के साथ वापस आ गया। समय के साथ “जाति” शब्द के चारों ओर एक राजनीतिक अर्थव्यवस्था का निर्माण हुआ है। 1950 के दशक के दौरान छुआछूत को हटाने और अन्य प्रकार के भेदभाव के बारे में बात करना नीति-निर्माण की बात करने वालों के लिए एक अपरिहार्य लक्ष्य बन गया। यहीं पर मार्क्सवाद का प्रवेश हुआ। पूर्व पीएम जवाहर लाल नेहरू राजनीति चलाने की सोवियत प्रणाली के उत्साही प्रशंसक थे, इसलिए उत्पीड़ित बनाम दमनकारी की अवधारणा एक अनिवार्य विषय बन गई।

भारत में यह कथा आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं थी। इसने सामाजिक व्यवस्था में भी घुसपैठ की। जेएनयू और अन्य कला केन्द्रित विश्वविद्यालयों ने इसके बारे में बात करना लगभग अनिवार्य बना दिया। जितना अधिक कोई जाति के बारे में बात करेगा, शिक्षा के क्षेत्र में उसके सफल होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी। इस तरह भारतीय विश्वविद्यालयों के छात्रों को पूरी दुनिया में प्रमुखता मिलने लगी। उनकी स्पष्ट प्रतिभा और कड़ी मेहनत के अलावा देश की कमियों को लेकर होने वाले बहस में शामिल होने के खुलेपन ने IVY वर्ग को आकर्षित किया। ज्ञात हो कि आइवी लीग (IVY League) ने हमेशा मार्क्सवाद को आकर्षक पाया है, यहाँ तक कि मार्क्सवाद और लेनिनवाद को उजागर करने के लिए अलेक्जेंडर सोल्शेनीत्सिन को हार्वर्ड में अपमानित तक किया गया था।

मीडिया ने आग में घी डालने का काम किया

मार्क्सवाद के खोखलेपन के संपर्क में आने का भारत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उस समय की सरकारें समाजवाद थोपती रहीं, जातिगत भेदभाव को खत्म करने के नाम पर शिक्षाविदों को अधिक विदेशी चंदा मिलता रहा और चांसलर, कॉलेज के प्रोफेसर, शीर्ष छात्र और नौकरशाह जातिगत भेदभाव के कारण होने वाली गरीबी उन्मूलन पर व्याख्यान देकर अमीर होते गए। मंडल आयोग की रिपोर्ट और 1991 के उदारीकरण ने समाज की जातिगत आग में घी डालने का काम किया।

LPG सुधारों ने भारत में संचालित करने के लिए उपग्रह और वाणिज्यिक टेलीविजन के लिए द्वार खोल दिए। एकमात्र समस्या लाभ की थी। लाभ के लिए, टेलीविज़न और समाचार पत्रों के प्रकाशनों तक में जातिगत उल्लेख किए जाने लगे। यह कहां जाने लगा कि राजनीति है और यदि राजनीति है तो समाज में विभाजन भी है। 90 के दशक का समाज उत्पीड़क-उत्पीड़ित रेखाओं के साथ अत्यधिक विभाजित था। इन मीडिया कंपनियों ने नकारात्मकता फैलाकर पैसा चूसना शुरू कर दिया। उन्होंने कथित रूप से “उत्पीड़ित” पक्ष के साथ होने का दिखावा किया क्योंकि वे राजनीतिक तौर पर सही दिखना चाहते थे। इसके पीछे कारण सरल था। उत्पीड़क कहे जाने वाले अल्पमत में थे, जबकि विरोधी दल बहुमत में था। खास बात यह है कि किसी भी सेंसरशिप की मांग के मामले में सरकार हमेशा लोकप्रिय बहुमत का पक्ष लेती है।

और पढ़ें: सिंधुदुर्ग किला: मराठा साम्राज्य का अभेद्य गढ़, जहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता था

इस तरह स्थानीय मुद्दे राष्ट्रीय मुद्दे बन गए। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति दूसरे की हत्या करता है तो समाचार पोर्टल उसकी व्यक्तिगत जाति पहचान को देखना शुरू कर देते हैं। यदि मारे गए व्यक्ति की पहचान उत्पीड़ित की है तो इसे उस पहचान समूह की आवाज का दमन कहा जाएगा। आज भी स्थिति लगभग वैसी ही है और आज भी इन मीडिया समूहों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि ऐसी घटनाएं व्यक्तिगत कटुता के कारण भी हो सकती है। धीरे-धीरे लगातार यह चलन शुरू हुआ।

अखबारों के कॉलम से न्यूजरूम तक इसी पर चर्चा होने लगी। न्यूजरूम से ही यह टीवी धारावाहिकों और सिनेमाघरों में चला गया और अंततः सिनेमा रॉकस्टार जाति और भारतीयों की अन्य अपरिवर्तनीय विशेषताओं के विशेषज्ञ बन गए। आज हर छोटे से मुद्दे में जाति का एंगल ढूंढ़ने वाले समाचार लेखक पिछली पीढ़ियों द्वारा फैलाए गए प्रचार की सोच हैं। उन्होंने देखा है कि कैसे जाति के बारे में बात करने से उन्हें शक्ति मिलती है। उन्होंने यह भी देखा है कि कैसे उनके सीनियर्स को समाज पर इसके प्रभाव की कोई परवाह नहीं है। उन्हें सत्ता की इच्छा के अनुरूप चलने में कोई हिचक नहीं है, इसका नतीजा यह है कि वे आज भी देश को सामाजिक तौर पर तेजी से विभाजित करते ही जा रहे हैं।

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