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राजपूताना के महान वीर ‘चारण’ की अद्भुत गाथा, जिनके साथ इतिहास ने न्याय नहीं किया

आज के समय में हमें राजपूत राजाओं के बारे में जो भी कहानियां मिलती हैं या उनके बारे में जो भी तथ्य मिलते हैं, उन सबके पीछे इस समाज का बहुत बड़ा योगदान है.

Devesh Sharma द्वारा Devesh Sharma
10 December 2022
in इतिहास
चारण समाज

Source- Google

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चारण समाज’: भारतीय इतिहास में राजपूत राजाओं के शौर्य की कहानियां तो सर्वविदित हैं परन्तु इन कहानियों को हम लोगों तक किसने पहुंचाया और इतने लंबे समय तक किस प्रकार संजोए रखा, यह बड़ा रुचिकर और गहन चर्चा करने वाला विषय है। इस लेख में आज हम एक ऐसे समाज के बारे में बात करेंगे, जिन्होंने न केवल राजपूत राजाओं के इतिहास से हमें परिचित कराया बल्कि अलग-अलग भाषाओं में साहित्य भी रचा और समय आने पर युद्ध भी लड़ा।

दरअसल, हम बात कर रहे हैं “चारण” समाज के बारे में। यह भारतीय उपमहाद्वीप के राजस्थान, सिंध, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा और बलूचिस्तान में निवास करने वाली एक ऐसी जाति थी, जो ऐतिहासिक रूप से बहुत अधिक समृद्ध थी। साथ ही चारण समाज के लोग कवि, इतिहासकार होने के साथ-साथ योद्धा और जागीरदार भी रहे। इसी के साथ चारण, सैन्य क्षत्रपों, कृषि विशेषज्ञों व व्यापारियों के रूप में भी प्रतिष्ठित थे। यही नहीं, मध्ययुगीन राजपूत राज्यों में चारण जाति के लोग मंत्री, मध्यस्थ, प्रशासक, सलाहकार और योद्धा के रूप में भी स्थापित थे। शाही दरबारों में राज कवि और इतिहासकार का पद मुख्यत: चारणों के लिए ही नियोजित किया जाता था।

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राजपूत इतिहास को संजोकर रखने वाले चारण

ज्ञात हो कि चारणों का मुख्य कार्य साहित्यिक, ऐतिहासिक और सामाजिक रचनाएं करना था। युद्ध भूमि में ये योद्धा के तौर पर राजाओं के साथ जाया करते थे और युद्ध लड़ने के साथ-साथ युद्ध का आंखों देखा वर्णन भी करते थे ताकि आने वाली पीढ़ी को इस बारे में जानकारी मिल सके। राजस्थान से लेकर बलूचिस्तान तक हर एक क्षेत्र में ये लोग हुआ करते थे और वहीं की लोक भाषाओं में रचना करते थे। वर्तमान समय में आज राजपूत राजाओं के बारे में हमें जो कुछ भी प्राप्त होता है उसके लिए चारण कवियों और इतिहासकारों को पूरा श्रेय दिया जाना चाहिए। अगर उन्होंने इस तरीके से इतिहास की रचना नहीं की होती तो शायद आज हमें राजापूत राजाओं की बहुत सी कहानियों के बारे में पता भी नहीं चलता।

चारण की हत्या करना पाप माना जाता था

बताया जाता है कि चारण समाज के लोगों को पूजनीय माना जाता था और इनकी हत्या करना गौहत्या या ब्रह्म हत्या के समान माना जाता था। यही नहीं, इन्हें जब भी किसी राजा के दुष्कृत्यों के बारे में पता चलता तो बिनी किसी चिंता के उसकी आलोचना किया करते और राज्यों के आपसी मतभेद को सुलझाने में सहायता करते थे। प्राचीनकाल में भी चारणों के अस्तित्व के बारे में जानकारी मिलती है। संस्कृत के महान कवि-नाटककार कालिदास ने शास्त्रीय नाटको में चारण चरित्रों को मुख्य रूप से दर्शाया है। बताया जाता है कि चारण परंपरा ऐतिहासिक युग में ऋषि संस्थान के रूप में प्रारंभ हुई थी। प्रारंभ में ऋषियों की संस्था वनों, पर्वतों, समुद्र और नदी के किनारे रहते हुए राजकुमारों के लिए आश्रमों का संचालन करती थी।

चारण परंपरा से विकसित हुए साहित्यिक उदाहरण

चारण परंपरा को देखा जाए तो राजस्थानी और गुजराती साहित्य, प्रारंभिक और मध्ययुगीन काल से लेकर 19वीं शताब्दी तक, मुख्य रूप से चारणों द्वारा रचित है। हालांकि, ऐसा नहीं है कि सिर्फ राजस्थानी और गुजराती भाषा में ही चारण परंपरा के तहत साहित्य रचना की गई है बल्कि बुंदेली, ब्रज जैसी अन्य भारतीय भाषाओं में भी इनकी कई रचनाएं हैं। उदाहरण के लिए राजस्थानी में जहां एक ओर रासो साहित्य की रचना की गई वहीं, बुंदेली में आल्हा-ऊदल की शौर्य गाथाओं की रचना की गई। इसलिए यह तो स्पष्ट है कि यह परंपरा किसी एक भाषा तक सीमित नहीं थी।

चारण समाज से निकले इतिहासकारों के बारे में बात की जाए तो 14वीं शताब्दी में आल्हाजी बारहट घोड़े के व्यापारी और कवि थे जिन्हें मंडोर के शासक राव चुंडा (जिन्होंने मारवाड़ में राठौड़ शासन की नींव रखी) को बचपन में बचाने के लिए जाना जाता है। 17वीं शताब्दी में नरहरिदास बारहट मध्ययुगीन भारत में एक प्रसिद्ध राजस्थानी कवि थे। इनका जन्म एक चारण परिवार में ही हुआ था। 19वीं शताब्दी में सूर्यमल्ल राजस्थान के बूंदी के हाड़ा शासक महाराव रामसिंह के दरबारी कवि थे और इन्होंने वंश-भास्कर नामक एक काव्य ग्रंथ की रचना की है, जिसे बूंदी राज्य के विस्तृत इतिहास के रूप में जाना जाता है।

इसी प्रकार कई ऐसे कवि, साहित्यकार और इतिहासकार हुए जिन्होंने न केवल रचनाएं की बल्कि उन्हें आगे की पीढ़ी को सौंपने का कार्य भी किया। यदि चारण परंपरा या चारण जाति के बारे में संक्षेप में कहा जाए तो यह अपने समय की घटनाओं को पन्नों पर दर्ज करने वाले विद्वान थे, जिन्होंने न केवल भारतीय इतिहास को समृद्ध करने में अपनी भूमिका निभाई बल्कि राजाओं के साथ-साथ युद्ध लड़ने में भी भाग लिया।

और पढ़ें: महाजनपदों का गौरवशाली इतिहास- भाग 1: अंग महाजनपद

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