शास्त्रीय नृत्य की बात आती है तो उत्तर प्रदेश से उत्पन्न हुई कथक नृत्य कला का नाम अवश्य लिया जाता है। कथक भारत के उन चुनिंदा शास्त्रीय नृत्यों में से एक है जिसे सीखने के लिए दुनियाभर से लोग भारत आते हैं और इसकी सराहना करते हैं। परन्तु आज हम कथक के जिस स्वरूप को देखते हैं वह इसके प्रारंभिक स्वरूप से बिल्कुल भिन्न है। लेकिन प्रश्न यह है कि कथक आज जिस स्वरूप में है उसमें वह कैसे पहुंचा और इससे जुड़ा इतिहास क्या है? हम इस लेख में जानेंगे कि कथक नृत्य (Kathak Nritya) की उत्पत्ति कैसे हुई और इसका मूल स्वरूप क्या था?
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कथक (Kathak Nritya) की उत्पत्ति
भारत में कुल आठ प्रकार के शास्त्रीय नृत्य हैं और उन्हीं में से एक कथक (Kathak Nritya) भी है जिसकी उत्पत्ति उत्तर प्रदेश से मानी जाती है। बताया जाता है कि शुरुआत में कथक प्रस्तुत करने वाले लोग महाभारत और पुराणों जैसे धार्मिक ग्रंथों की कथाओं पर नृत्य किया करते थे अर्थात नृत्य के माध्यम से कथा कहने की कला। इन्हें कथाकार या कहानीकार के नाम से जाना जाता था और ये धार्मिक अनुष्ठानों और मंदिरों में नृत्य किया करते थे। यही कारण था कि इस नृत्य का नाम कथक रखा गया जिसका अर्थ होता है कथा कहने वाला।
कथक (Kathak Nritya) की उत्पत्ति का एक सिरा भरत मुनि के नाट्यशास्त्र से जुड़ता है, वहीं दूसरा सिरा मध्य प्रदेश के भारहुत गांव में मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गई आकृतियों से। एक ओर जहां भरत मुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र की समय सीमा 500ई.पूर्व से 500 ईस्वी के आस पास बताई जाती है वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश के भारहुत गांव में बने मंदिरों की समय सीमा दूसरी शताब्दी ईस्वी बताई जाती है। इसीलिए कथक की उत्पत्ति के बारे में यह स्पष्ट नहीं कहा जा सकता है कि यह कब, कहां और कैसे उत्पन्न हुआ। अधिकतर इतिहासकार यही मानते हैं कि कथक नृत्य कला समाज में धीरे-धीरे विकसित हुई और समय के अनुसार उसमें परिवर्तन होते चले गये।
भक्ति आंदोलन और कथक
कथक नृत्य (Kathak Nritya) कला के विकास के बारे में बात की जाए तो भक्ति आंदोलन की इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसी आंदोलन के दौरान भगवान कृष्ण की जीवन लीलाओं को नृत्य भंगिमाओं में परिवर्तित कर उन्हें कथक नृत्य कला के साथ जोड़ा गया। जिसके बाद लोगों के लिए यह कला और अधिक रोचक हो गयी परन्तु अभी भी कथक में कामुकता का प्रवेश नहीं हुआ था।
मुगल काल में नृत्य कला का विघटन
मुगल काल को लेकर लोगों के मस्तिष्क में यह बात बैठी हुई है कि भारत में कला का असल विकास तो इसी दौर में हुआ था। कथक नृत्य (Kathak Nritya) के बारें में भी कहा जाता रहा है कि इसका असल विकास मुगल काल में ही हुआ था वरन् इससे पहले तो यह सिर्फ मंदिरों में होने वाले अनुष्ठानों तक ही सीमित था। वे मुगल ही थे जिन्होंने कथक को लोकप्रिय बनाया और इसका संरक्षण किया। परन्तु यह कोई नहीं बताता कि कथक में जो कामुक भंगिमाएं जोड़ी गईं वह मुगलकाल में ही हुआ।
एक पवित्र कला कथक को मंदिरों में होने वाले पवित्र अनुष्ठानों से बाहर निकालकर मुगल दरबारों में लाया गया। दरबार में बैठने वाले अय्याश बादशाहों और मंत्रियों के लिए यह कला मात्र मनोरंजन का एक साधन बनकर रह गयी। और तो और मुगल काल में कथक के मूल स्वरूप को छिन्न-भिन्न कर दिया गया। इसकी नृत्य भंगिमाओं में तो परिवर्तन किया ही गया, नर्तकियों द्वारा पहने जाने वाली साड़ी को मुगल हरम की नर्तकियों की पोशाक में परिवर्तित कर दिया गया। ये पोशाकें कुछ इस प्रकार की हुआ करती थीं जिससे नर्तकियां कामुकतापूर्ण प्रतीत हो सकें।
यहां एक और प्रश्न पर ध्यान देना होगा कि मुगल दरबार तक कथक (Kathak Nritya) पहुंचा कैसे? तो इसका उत्तर है धनबल और लालच के द्वारा। असल में मुगल बादशाहों ने कथक की समृद्धि को देखने के बाद कलाकारों को बड़े-बड़े पुरस्कार और धनसंपदा से पुरस्कृत कराना प्रारंभ कर दिया जिसके चलते धीरे-धीरे कलाकार मंदिरों को छोड़ दरबार में राजाओं के समक्ष प्रस्तुति देने लगे। अंततः कथक मात्र एक आय का साधन और मनोरंजन का माध्यम बनकर रह गया।
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अंग्रेजी राज में कथक (Kathak Nritya) की स्थिति
कथक कला के मूल स्वरूप को समाप्त करने की रही बची कसर अंग्रेजों ने इस पर प्रतिबंध लगाकर पूरी कर दी। जब तक भारत में औपनिवेशिक काल आया या यूं कहें कि अंग्रेजों ने शोषण करना प्रारंभ किया तब तक कथक एक दरबारी मनोरंजन के रूप में प्रसिद्ध हो गया था और समाज में कथक करने वाली नर्तकियों को ‘नाच करने वाली लड़कियों’ के रूप में संदर्भित किया जाता और हेय दृष्टि से देखा जाता था। इसलिए अंग्रेजों ने कथक को फूहड़ता का नाम देकर इस पर प्रतिबंध लगा दिया। अंग्रेजों का कथक पर प्रतिबंध लगाने का उद्देश्य भारतीय कला को नष्ट करना और उन्हें नीचा दिखाना था। हालांकि 1910 में मद्रास में हिंदू मंदिरों में अंग्रेजाे द्वारा नृत्य परंपरा पर लगाए गए प्रतिबंधित का उस समय जमकर विरोध किया गया था। परन्तु पराधीन लोग अपनी संस्कृति को कितना ही बचा सकते हैं।
स्वतंत्रता संग्राम में कथक की स्थिति
भारत अधीन था लेकिन कब तक, कभी न कभी तो स्वतंत्रता मिलनी ही थी और उस स्वतंत्रता में होने वाले आंदोलनों से तो हम सभी परिचित ही हैं कि किस प्रकार लोगों के अंदर राष्ट्र, स्वदेश और अपनी संस्कृति को लेकर भावनाएं उमड़ रही थीं। इन्हीं भावनाओं ने कथक (Kathak Nritya) को दोबारा से जीवित और पुनः निर्मित करने का कार्य किया। दरअसल, 20वीं शताब्दी की शुरुआत थी और भारत में स्वदेश और अपनी संस्कृति को लेकर लोगों की भावनाएं उफान पर थीं। उन्होंने विदेशी वस्त्रों से लेकर उनकी संस्कृति से जुड़ी सभी चीजों को त्यागना शुरू कर दिया और लोगों ने अपनी जड़ों की ओर वापसी करना प्रारंभ किया। इन आंदोलनों के कारण कथक को भी सहारा मिला और लोगों ने कथक को जीवित करने के लिए लड़कों को प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया और देखते ही देखते कथक पुनः अपने उसी स्थान पर पहुंचने लगा।
हालांकि तथाकथित सभ्य समाज के लोग या यूं कहें अंग्रेजों के चाटुकार इसे सम्मान की दृष्टि से स्वीकार नहीं करते थे परन्तु दुनिया ने स्वीकार किया और पंडित बिरजू महाराज जैसे लोगों की दुनिया ने सराहना की। वर्तमान समय में कथक के तीन घराने हैं बनारस, लखनऊ और जयपुर इन तीनों घरानों ने ही कथक (Kathak Nritya) को पुनः जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिसमें 20वीं सदी की शुरूआत में कालकाप्रसाद महाराज का नाम हमारे सामने है।
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